Wednesday, February 21, 2018

न तो नीरव कोई पहला किस्सा है और ना ही देश की लूट कोई पहली कहानी


पशुपालन घोटाले में लालू प्रसाद का नाम आने से वो घोटाला बहुत बड़ा हो गया। वरना उनसे बड़े घपले-घोटाले कर के आईपीएल वाले ललित मोदी, किंगफिशर वाले विजय माल्या और मुकेश अंबानी के रिश्तेदार नीरव मोदी ऐश ही तो कर रहे हैं। दरअसल लालू राजनीति की चुनौती थे, माल्या मोदी राजनीति के मददगार हैं। लालू प्रसाद को घोटाले के बाद मीडिया ट्रायल का जैसा सामना उन्हें करना पड़ा वैसा मोदी-माल्या को नहीं करना पड़ा। लालू प्रसाद के मामले में राजनीति ने जितनी ताकत लगाई उतनी मोदी-माल्याओं में कभी भी नहीं लगाएगी क्योंकि, लालू प्रसाद को कमजोर कर सत्ता हासिल करने की तमाम गुंजाइश हैं लेकिन, मोदी-माल्याओं को कमजोर कर पार्टियां खुद का कुबेर कमजोर नहीं कर सकतीं।
      भारत में सार्वजनिक संपत्ति की लूट का इतिहास बहुत पुराना है। लेकिन राजनीति बड़ी ही होशियारी से सिर्फ कुछ राजनेताओं से जुड़े घोटालों को मसला बनाकर बड़ी लूट को छुपाती रही है। ये सिर्फ भारत में ही नहीं हुआ है वरन पूरी दुनिया में हुआ है।
    अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, जापान जैसे पूंजीपति देशों के चंद पूंजीपतियों ने गरीब और विकासशील देशों के कुछ व्यापारियों को मिलाकर दुनिया की बड़ी आबादी को अपनी मुट्ठी में कर लिया है। विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाएं इसी मकसद से खड़ी ही की गईं कि इनके जरिए दुनिया की बड़ी आबादी पर आर्थिक शासन थोपा जा सके।
   भारत समेत एशिया के ज्यादातर देशों की बड़ी आबादी उसी आर्थिक गुलामी का शिकार है। मालिकों के लिए मुनाफा पैदा करने वाली ये भीड़ पूंजवादी मुनाफे के लिए अपनी हड्डियां गलाती रहे इसके लिए सरकारें पूंजीपतियों के सामने खड़ी नजर आती हैं।  
  आपको ये जान कर बेहद हैरानी होगी कि दुनिया की 85 फीसदी संपदा महज 20 फीसदी लोगों के पास है। बाकी की 15 फीसदी संपदा में दुनिया की 80 फीसदी आबादी जैसे-तैसे जीने के लिए अपनी हड्डियां गला रही है। वर्ल्ड इंस्टिट्युट ऑफ डेवलपमेंट इकॉनामिक रिसर्च के मुताबिक दुनिया के महज 1 फीसदी अमीरों ने दुनिया की 40 फीसदी सपंदा हथिया ली है। दुनिया की 85 फीसदी संपदा पर 10 फीसदी अमीरों का कब्जा है।
   अब बात भारत की। प्रत्यक्ष विश्व बैंक के एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत के 86 फीसदी लोगों की एक दिन की कमाई 80 रुपये से भी कम है और महज 1 फीसदी संपदा के सहारे कुल आबादी के 30 फीसदी लोगों को जीना पड़ रहा है।
   इसलिए किसी एक माल्या या मोदी के घोटाले कर लेने भर से देश बर्बाद हुआ है ये सिर्फ और सिर्फ प्रौपेगंडा है। ये प्रौपेगंडा वो खड़े करते हैं जिनको पूंजीपतियों ने अपने पैसों के बल पर खड़ा किया है और जिनको इसी किस्म के प्रौपेगंडा के लिए वो पालता रहा है। इसमें मीडिया, राजनीतिक दल और कॉर्पोरेटर शामिल होते हैं।
   हमें मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों को समझने की कोशिशें करनी होंगी। पहले विश्व युद्ध के बाद यूरोप की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से तहस-नहस हो गई थी। तब यूरोप में जनक्रांति की तमाम संभावनाएं थीं लेकिन जनता ने न कोई क्रांति की और ना ही कोई विरोध हुआ। ऐसा क्यों हुआ ? दरअसल सत्ताधारी वर्ग सिर्फ उत्पादन पर ही नियंत्रण नहीं रखता वो विचारधारा पर भी पूरी तरह से नियंत्रण रखता है। वो अपने हित की बात को ही राष्ट्र और धर्म से जोड़ता है और फिर उसी को विचारधारा के तौर पर जनता पर थोप देता है। ऐसे ही सत्ताधारी वर्ग संस्कृति को अपने नियंत्रण में लेता है और फिर जन समान्य की श्रद्धा का अपने हिसाब से प्रबंधन करने लगता है।
  इसलिए आप सिर्फ किसी मोदी या माल्या में मत उलझ जाइए। देश की कुल संपदा में आपकी हिस्सेदारी कितनी है और पांच बड़े अमीरों की हिस्सेदारी कितनी है इसका आकलन कीजिए और फिर व्यवस्था से पूछिए कि आपका बाकी का हिस्सा है कहां। क्योंकि, जान लीजिए तमाम किस्म के राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक प्रौपेगंडा इसीलिए खड़े किए जाते रहें हैं ताकि आप उसमें उलझे रहें और किसी भी दिन अपना हिस्सा न मांग सकें।        

Monday, February 19, 2018

एक खत, हर आतंकवादी के नाम



प्रिय बुरहान वानी,
मुझे तुम्हारे मारे जाने का दुख है। लेकिन जी कर भी तुम क्या करते सिवाय बगुनाहों के कत्ल के । दुख है कि देश का एक नवजवान पहले रास्ता भटका और अब मारा गया। चलो अच्छा ही हुआ। वैसे तुम जिंदा होते तो शायद किसी दिन ये समझ पाते कि जो रास्ता तुमने चुना वो तुम्हारे अल्लाह ताला के खिलाफ बग़ावत का रास्ता है, वो इस्लाम के ख़िलाफ बग़ावत का रास्ता है। तुम ज़िंदा होते तो शायद किसी दिन ये देख पाते कि तुम इंसानियत का दुश्मन हो गए थे, तुम अल्लाह ताला की बसाई दुनिया उजाड़ रहे थे। फिर तुम एक दिन भटके लोगों को रास्ता दिखाते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तुम उसी फौज की गोली का शिकार हो गए जिस फौज पर तुम्हें आतंकी बनाने का आरोप है। बताया जा रहा है कि तुम अपने भाई के मारे जाने के बाद बदले की भावना का शिकार हो गए। 
Copyright Holder: ASIT NATH TIWARI
    बुरहान, तुम्हारे कश्मीर से ही लाखों कश्मीरी पंडितों को उजड़ना पड़ा था। जिस वक्त वो उजड़ रहे थे उस वक्त उनकी दुनिया उजड़ रही थी। उस वक्त न जाने कितनों के भाई, पिता, बेटे मारे गए थे। क्या कोई कश्मीरी पंडित मिलिटेंट बना? वो बदला लेने निकला? नहीं न। तुम भी नहीं निकलते। जानते हो तुम क्यों मिलिटेंट बने ? तुम इसलिए मिलिटेंट बने क्योंकि कोई तु्म्हें, तुम जैसे भारतीय नवजवानों को मिलिटेंट बनाना चाहता था, आज भी चाहता है। वो लगातार हिंदुस्तानियों के खिलाफ हिंदुस्तानियों के हाथ में बंदूक थामाता जा रहा है और लगातार हिंदुस्तानियों के हाथों हिंदुस्तानियों का क़त्ल करवाता जा रहा है। तुम उसके बहकावे में आ गए। तुम्हारे जैसे हमारे हजारों नवजावन उनके बहकावे में आते रहे हैं। घाटी में ऐसे हज़ारों दलाल बेठै हैं जो तुम जैसे नवजवानों को अपने मुल्क के खिलाफ, कौम के खिलाफ और इंसानियत के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं। 
     बुरहान, कौम के नाम पर जिस शख्स ने तुम्हें हथियार उठाने के लिए उकसाया था क्या उसका बेटा बाग़ी है क्या? क्या उसने खुद हथियार उठाए हैं? क्या तुमने कभी ये जानने की कोशिश की ? क्या तुमने कभी ये सवाल पूछा कि ये लोग देखते-देखते अमीर कैसे हो गए? क्या तुमने कभी ये सोचा कि जिस सरज़मीं पर खुदा ने तुम्हे पैदा किया है तुम उसी सरज़मीं को खुदा के बंदों के खून से रंग रहे हो?
   निश्चित तौर तुमने न तो कभी ये सवालात उठाए न सोच पाए। तुम तो गोलियों में भरोसा करने लगे थे। तुम तो खुदा की बनाई दुनिया को उजाड़ने में लगे रहे। तुम तो अपने मुल्क के दुश्मनों के हाथ का खिलौना बने रहे।
   बुरहान, तुमने कभी किसी उस मां का सामना किया है जिस मां के बेटे की मौत तुम्हारी गोलियों से हुई हो? कभी उस मासूम से मिले हो जिसे तुमने यतीम किया हो? कभी उस बेवा से मिले हो जिसका शौहर तुम्हारी गोलियों का शिकार हुआ हो? 
   बुरहान, जिस इस्लाम के नाम पर तुम गोलियां बरसाते रहे उसी इस्लाम की राह पर कभी चल पाए तुम? तुम जब मारे गए उस वक्त तुमने जमकर शराब पी थी। शराब तो हराम है न? तो क्या जवाब दोगे अपने अल्लाह ताला को? 
हम तो यही दुआ करेंगे कि अल्लाह तुम्हें माफ करें।

बिसात पर अंबेडकर और हाशिए पर दलित

मन में अंबेडकर, मिजाज में अंबेडकर, दिल में अंबेडकर, दिमाग़ में अंबेडकर, राह में अंबेडकर, आह में अंबेडकर, लेकिन उद्दश्यों में अंबेडकर नहीं हैं। उद्देश्य तो सत्ता प्राप्ति की है, चाह तो सत्ता की है और इस चाह में अंबेडकर समा नहीं सकते। तो फिर अंबेडकर को प्रतीक बनाना पड़ा। भारत की राजनीति प्रतीकों के सहारे चलती रही है। कभी गांधी प्रतीक थे, कभी राम प्रतीक बने और आज अंबेडकर बनाए जा रहे हैं। तभी तो हिंदू धर्म के आडंबरों को खारिज कर बौद्ध बने अंबेडकर उन लोगों को भी भाने लगे हैं जो हिंदू राष्ट्र के सपने देखा करते हैं और जिनके लिए बुद्ध और कबीर हिंदू विरोधी हैं।
Copyright Holder: ASIT NATH TIWARI
तो झंडों और डंडों पर हैं अंबेडकर, मंचों और नारों में हैं अंबेडकर। और अंबेडकर का समाज, वो तो आज भी उसी गंदी बस्ती में है जिससे निकालने के लिए अंबेडकर ने संघर्ष किया और सबके निशाने पर आए। वो आज भी अपनी ही धर्म व्यवस्था का शिकार है और हाशिए पर खड़ा गांव के दक्खिन वाली बस्ती में जीने की विवशता की गवाही दे रहा है। नारों, झंडों में अंबेडकर को ढोने वाले मंचों के रास्ते शाही दरबार तक पहुंच गए, शहंशाह हुए और दलित समाज को वहीं का वहीं खड़ा रखा जहां से निकालने का संघर्ष अंबेडकर ने खड़ा किया था।
तो सच ये है कि अंबेडकरवाद को भी गांधीवाद और लोहियावाद जैसे लबादे में लपेट कर राजनीति की बिसात पर रख दिया गया है। जहां मकसद अंबेडकर को पाना नहीं, अंबेडकर के नाम पर सत्ता पाना है। अहिंसा के इस पुजारी के नाम खड़ा संगठन भीम आर्मी लोगों से हथियार उठाकर हमलावर होने की खतरनाक अपील कर रहा है तो समाज का संघर्ष खड़ा करने वाले अंबडेकर के नाम राजनीति करने वाले नेता पूरे दलित समाज को सिर्फ और सिर्फ वोटबैंक की दलदल बनाए रखने की तमाम कवायदें करते दिख रहे हैं।

Sunday, February 18, 2018

भूख: दूर तक फैला हुआ बेबसी का इक समंदर

उत्तर प्रदेश के सीतापुर में 70 साल की एक बुजुर्ग महिला पड़ोसियों के रहम-ओ-करम पर जिंदा हैं। जिले के इमलिया सुल्तानपुर के तिहार गांव की ये महिला विधवा भी हैं और बेऔलाद भी। गांव में एक जर्जर झोपड़ी है जिसमें सिर छुपाने की जगह मिल जाती है। जब तक सेहतमंद थीं मजदूरी का आसरा था लेकिन अब बूढ़ी हड्डियां साथ नहीं देतीं। लिहाजा गांव वालों ने सिस्टम की बुनियादी खराबियों और गरीबी के अधिकारों का इस्तेमाल कर इनका नाम गीरीबी रेखा वाली सूची में डलवाया। उम्मीद थी हर महीने इन्हें सस्ता राशन मिल जाएगा और बूढ़े बदन को जिंदा रखने की खातिर चार रोटियां मिल जाएंगी। गांव वालों की उम्मीदें धरी की धरी रह गईं और ढिंढोरा वाली योजनाओं का राशन बाजार में बिकता गया।
       कोटेदार ने इस बूढ़ी महिला को पिछले डेढ़ साल से छटांक भर अनाज नहीं दिया है। शहर होता तो ये महिला भूख की मौत मर चुकी होती। गांव है तो गांव वाले हैं, गंवई रवायत है और पड़ोस में पकने वाली रोटियों में इस मां की हिस्सेदारी भी है। रोज़ाना कोई न कोई दो-चार रोटियां दे जाता है और बूढ़े बदन में झुरझुरी आ जाती है। देश भर में भारत माता की जय के नारों के बीच कई बूढ़ी माताएं भूख से बिलख रहीं हैं। 
     सीतापुर के तिहार की इस बूढ़ी माता को नारों का मतलब समझ में नहीं आता, ये आधार और पैन कार्ड नहीं जानतीं। इनके पास एक राशन कार्ड है। इनको बताया गया था कि राशन कार्ड बनने के बाद कोटे से राशन मिलेगा लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। राशन कार्ड लेकर ये बार-बार कोटेदार के पास जाती रहीं और कोटेदार इनको अब तक लौटाता ही रहा है। बताया जा रहा है कि कोटेदार के पास जो सूची है उसमें इनका नाम नहीं है। ये भारत को वो सच है जिसका जिक्र लाल किले से नहीं किया जाता। ये भारत का वो सच है जो नारों में नहीं दिखता है। बेबसी का ये समंदर दूर तक फैला हुआ है। 

वंशवाद: सवाल सिर्फ कांग्रेस से ही क्यों ?

दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय से निकली बात गुजरात के धरमपुर पहुंचते-पहुंचते मुगलिया सल्तनत तक पहुंच गई। राहुल की ताजोपशी का रास्ता क्या साफ हुआ तुलना औरंगजेब की ताजपोशी से हो गई। लेकिन मुगलिया सल्तनत की नजीर पेश करने वाले ये भूल गए कि सत्ता की विरासत वंश की विरासत तक सिर्फ मुगलों ने नहीं पहुंचाई, राजा दशरथ की विरासत भी उनके बेटे रामचंद्र ने ही संभाली थी। लेकिन, ये बातें राजतंत्र की हैं। उस प्रजातंत्र की नहीं जिसके बारे में बताया गया कि ये जनता के लिए, जनता द्वारा जनता का शासन है। तो फिर इस खांचे में मौजूदा जनतंत्र कहां फिट होता है? कांग्रेस में नेहरु-गांधी परिवार की ताजोपशी पर हर बार सवाल उठे हैं लेकिन, एक बड़ा सच ये है कि देश की जनता ने हर बार कांग्रेस के नेहरु-गांधी परिवार को सिर-आंखों पर बैठाया है। चाहे वो दौर मोतीलाल नेहरु का रहा हो या फिर जवाहर लाल का, दौर इंदिरा गांधी का रहा हो या राजीव गांधी का। देश ने देखा कि कैसे सोनिया गांधी के नेतृत्व पर भरोसा जताकर देश ने अटल बिहारी बाजपेयी जैसे नेता को सत्ता से दूर कर दिया। तो मतलब साफ है कि विरोधियों को हर बार कांग्रेस के वंशवाद ने नहीं देश की जनता ने जवाब दिया है। तो याद कीजिए कांग्रेस में सीताराम केसरी का दौर। नेहरु-गांधी परिवार से इतर पार्टी का नेतृत्व जब भी गया है देश की जनता ने कांग्रेस को नकार दिया है। तो सच ये भी है कि लोकतंत्र के ढांचे में कांग्रेस का नेहरु-गांधी परिवार वंशवाद नहीं जनता के भरोसे का प्रतीक रहा है।
और सच ये है कि परिवारवाद हर जगह देखने को मिलता है। डॉक्टर का बेटा डॉक्टर ही बनना चाहता है, बिजनसमैन का बेटा बिजनसमैन। ऐसा माना जाता है कि लोकतन्त्र में वंशवाद के लिये कोई जगह नहीं है लेकिन, फिर भी विरासत की सियासत भारतीय राजनीति का अटूट हिस्सा बन गई है। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद का नामांकन भरते ही एक बार फिर वंशवाद की बहस ने जोर पकड़ लिया है। राजनीतिक हलकों में एक बार फिर सियासत में विरासत को लेकर हलचल मच गई है। एक तरफ राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी हो गई है। राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष बनने को राजनीतिक विरासत के तौर पर देखा जा रहा है। यूं तो देश की 130 साल पुरानी पार्टी कांग्रेस को हमेशा से ही वंशवाद का तमगा हासिल हुआ है। ऐसा इसलिए, क्योंकि पं.नेहरु, इंदिरा से लेकर सोनिया-राहुल तक सब विरासत की सियासत में लिपटे नजर आते हैं। सच्चाई तो ये है कि देश में अगर वामपंथी दलों के छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई दल ऐसा हो जो वंशवाद से अछूता हो। पूरब से लेकर पश्चिम तक उत्तर से लेकर दक्षिण तक देश की सियासत में विरासत के रंग साफ तौर पर देखने को मिलते हैं। भारत के बड़े राज्यों की बात करें तो उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक और दक्षिण से लेकर पंजाब तक परिवारवाद की हनक दिखाई देती है। तो फिर सिर्फ कांग्रेस पर ही वंशवाद के आरोप लगाना कहां तक जायज है? और सबसे ज्यादा हैरानी की बात तो ये है कि कांग्रेस पर वंशवाद के आरोप वो लगा रहे हैं जिनके दामन खुद सियासत की विरासत के रंग में रंगे हैं। देश की सभी सियासी पार्टियां परिवारवाद के आगोश में लिपटी हैं। भारतीय राजनीति के कई बड़े चेहरे, कई बड़े दल इसी वंशवाद की चपेट में हैं। ऐसा क्यों है कि अक्सर सियासी हलकों में बहस सिर्फ गांधी परिवार को लेकर ही उठती दिखाई देती है? यकीनन राहुल का जन्म देश के सबसे शक्तिशाली सियासी परिवार में हुआ है लेकिन, राहुल गांधी की हैसियत का अंदाजा क्या सिर्फ इससे लगाना ठीक होगा कि उनका जन्म गांधी परिवार में हुआ। नहीं... आज राहुल को भारतीय राजनीति का परिपक्व और बड़ा चेहरा माना जाता है। गांधी परिवार से इतर देश की सियासत में राहुल की अपनी अलग पहचान है।
देश की राजनीति में हावी वंशवाद को देखिएगा तो नेहरु-गांधी परिवार से अलग कई उदाहरण सामने होंगे।
दक्षिण का सियासी कुनबा
दक्षिण भारत की सियासत में भी वंशवाद हावी है। तमिलनाडु की सबसे बड़ी पार्टी डीएमके में भी वंशवाद की जड़ें गहरी हैं। करुणानिधि की पार्टी में उनके परिवार के लोग पूरी तरह से काबिज हैं। मौजूदा समय में डीएमके की कमान करुणानिधि के बेटे स्टालिन के हाथों में है। उनके नाती दयानिधि मारन और बेटी कनिमोरी का पार्टी में दबरदस्त दबदबा है।
महाराष्ट्र में ठाकरे राज
महाराष्ट्र की सियासत में बीजेपी की सहयोगी शिवसेना में पूरी तरह से परिवारवाद का कब्जा है। बालासाहेब ठाकरे ने शिवसेना बनाई थी। बालासाहेब ठाकरे ने अपने बेटे उद्धव ठाकरे को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपी थी और अब उद्धव ने अपने बेटे आदित्य को युवाओं के नेतृत्व की कमान सौंप दी है
वंशवाद से अछूता नहीं कश्मीर
जम्मू-कश्मीर की दोनों प्रमुख पार्टियों में वंशवाद की जड़ें गहरी हैं। जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कॉन्फ्रेंस की तीसरी पीढ़ी उमर अब्दुला के हाथों में पार्टी की कमान है। उमर के पिता फारुक अब्दुला सांसद हैं। मुफ्ती मुहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी की कमान उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के हाथों में है, महबूबा मुफ्ती मौजूदा समय में जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री हैं।
पंजाब का सियासी विरासत
पंजाब की सियासत में सियासी घराने ही अहम भूमिका निभा रहे हैं। पंजाब की सियासत में अकाली दल और कैप्टन अमरिंदर सिंह का वर्चस्व देखने को मिलता है। अकाली दल की कमान बादल परिवार के हाथों में है।
हरियाणा में परिवारवाद
देवी लाल, बंसी लाल और भजन लाल का कभी हरियाणा की राजनीति में काफी दबदबा हुआ करता था लेकिन, इनके बाद प्रदेश की राजनीति में उनके परिवारों का असर बना हुआ है। इन तीनों का जिक्र हरियाणा की राजनीति में वंशवाद का उदाहरण है
बीजेपी में गहरी हैं परिवारवाद की जड़ें
कांग्रेस के परिवारवाद पर सवाल उठाने वाली बीजेपी भी वंशवाद की राजनीति से अलग नहीं है... बीजेपी की सियासत में एक फौज परिवारवाद से आई है...
विजयाराजे सिंधिया की बेटी वसुंधरा राजे सिंधिया दूसरी बार राजस्थान की मुख्यमंत्री बनी हैं
यशोधरा राजे सिंधिया शिवराज सिंह चौहान की कैबिनेट में मंत्री हैं
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के बेटे सांसद हैं
बीजेपी के सबसे बड़े नेता कल्याण सिंह के बेटे सांसद हैं, और पोता विधायक और मंत्री हैं
यशवंत सिन्हा के बेटे जयंत सिन्हा मोदी कैबिनेट में मंत्री हैं
राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह नोएडा से बीजेपी विधायक हैं
हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री पीके धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर बीजेपी से सांसद हैं
केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के बेटे वरुण गांधी सुल्तानपुर से बीजेपी सांसद हैं
बीजेपी नेता प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन मुंबई नॉर्थ सेंट्रल से लोकसभा सांसद हैं
पूर्व केंद्रीय मंत्री गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे महाराष्ट्र सरकार में मंत्री हैं
लालजी टंडन के बेटे गोपालजी टंडन देवरिया से बीजेपी विधायक हैं
जाहिर है कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप लगाने वाली बीजेपी का दामन खुद सियासत में विरासत से रंगीन है
सपा है देश का सबसे बड़ा सियासी कुनबा
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में तो परिवारवाद पूरी तरह हावी है। देश में सबसे बड़ा सियासी कुनबा मुलायम सिंह यादव का है। मुलायम परिवार के दो दर्जन से ज्यादा लोग राजनीति में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। बेटे अखिलेश यादव, बहु डिंपल यादव, भाई शिवपाल सब सपा के बड़े चेहरों में शुमार हैं। मुलायम परिवार के सदस्य सांसद से लेकर पंचायत तक में काबिज हैं। सपा के मौजूदा पांचों सांसद मुलायम परिवार से हैं। उनके बेटे अखिलेश यादव यूपी का मुख्यमंत्री रह चुके हैं और फिलहाल पार्टी के अध्यक्ष हैं...
वंशवाद से दूर नहीं मायावती
कांग्रेस और दूसरे दलों पर हमेशा वंशवाद को लेकर तंज कसने वाली मायावती खुद वंशवाद से अछूती नहीं हैं। मायावती ने भी मुलायम की राह अपनाई है। मायावती ने पार्टी में दूसरे नंबर का दर्जा देते हुए अपने भाई आनंद कुमार और भतीजे अकाश को पार्टी में अहम पद से नवाजा है।
आरएलडी में भी हावी वंशवाद
पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की पार्टी लोकदल जो बाद में आरएलडी बनी, पर उनके बेटे अजित सिंह का कब्जा कायम है। उन्होंने अपनी विरासत को आगे बढ़ाने के लिए बेटे जयंत चौधरी को भी पार्टी में अहम भूमिका दे रखी है।
लालू प्रसाद यादव का सियासी कुनबा
बिहार की सियासत में वंशवाद की बात हो तो भला लालू प्रसाद यादव को कोई कैसे भूल सकता है। बिहार की सियासत में सबसे बड़ा राजनीतिक कुनबा लालू प्रसाद यादव का है। लालू प्रसाद की पत्नी राबड़ी देवी उनके जेल जाने के बाद मुख्यमंत्री रहीं और अब बेटी राज्यसभा सांसद हैं। साथ ही लालू के दोनों बेटे तेज प्रताप यादव और तेजस्वी नीतीश कुमार के साथ गठबंधन सरकार में मंत्री रहे हैं। लालू का लगभग पूरा कुनबा राजनीति में सक्रिय है। एक समय में उनके दोनों साले साधु और सुभाष यादव का बिहार की राजनीति में जलवा था।
पासवान के जूनियर पासवान
बिहार की सियासत में रामविलास पासवान की पार्टी एलजेपी भी वंशवाद से अछूती नहीं है। पासवान के बाद पासवान के बेटे चिराग पासवान भी राजनीति में उतरे। चिराग ने 2014 में चुनाव लड़ा और सांसद बने।
वंशवाद सिर्फ यूपी और बिहार तक ही सीमित नहीं है। पंजाब, कश्मीर, महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक, ओडीशा, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश हर जगह ये वंशवाद देखने को मिलता है। तो फिर हर सवाल कांग्रेस से ही क्यों ?

भाजपा के हिंदुत्व के मुकाबले कांग्रेस का हिंदुत्व



गांधी के गुजरात में गोधरा के कलंक का धब्बा लगा तो पूरी दुनिया में संदेश गया कि भारत का गुजरात उग्र हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला बन गया है। गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में दहकती आग में साबरमती के संत के संघर्ष भी धधक गए। हिंदुत्व का ऐसा उग्र स्वरूप राम मंदिर आंदोलन के दौर में भी नहीं दिखा था। तब गुजरात सहमा, अब संभलता दिख रहा है। 2017 के विधानसभा चुनाव में उग्र हिंदुत्व के सामने जैसे ही नरम हिंदुत्व खड़ा हुआ बीजेपी की पेशानी पर बल पड़ने लगे। ये हिंदुत्व की सियासत को दूसरा रास्ता दिखाने का दांव था। राहुल गांधी के माथे पर तिलक, दाहिनी कलाई पर लाल और भगवा रंग के धागे और बाईं कलाई पर काले रंग का धागा। और फिर सहिष्णु हिंदू की छवि।
और फिर पंथ निरपेक्षता पर गर्व करता हिंदुत्व। और फिर इलाहाबाद के संगम तट पर मुगल शासक अकबर के बनवाए किले को स्वीकार कर आगे बढ़ता हिंदुत्व। तो जाहिर है उग्र हिंदुत्व की सोच की परेशानी बढ़नी थी। उस सोच को उन्मादी हिंदुत्व की ज़रूरत है। उस सोच को विध्वंस का आसरा है, गोधरा के बाद हुए गुजरात पर ही भरोसा है। तो उस सोच को सनातनी परंपरा के उस धागे से परेशानी होने लगी जिसे धारण कर वो गौरवान्वित होता रहा है। उसे राहुल गांधी के जनेऊ ने परेशान कर दिया। उग्र हिंदुत्व को जनेऊ से परेशानी होने लगे तो फिर इसके सियासी मतलब तो बड़े होंगे ही।
मंदिर-मंदिर घूमती सियासत के मायने भी तलाशे जाने चाहिए। हिंदुवादी सियासत की नई बिसात बिछा रही कांग्रेस विवादित मुद्दों से बचती रही और अपनी पारंपरिक राजनीति को कांग्रेस से चुनौती पाती देख बीजेपी जनेऊ से लेकर राम मंदिर के मसले को उठाती रही। हद तो ये कि मंदिर जाने से भी परेशानी होने लगी, इतनी परेशानी कि बात राहुल गांधी के नाना तक पहुंच गई.
तो कांग्रेस की रणनीति में बीजेपी उलझती दिखी। कांग्रेस ने बड़ी साफगोई से बिना कोई विवदाति मुद्दा छुए बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे में सेंध लगा ली। सेंध ही नहीं लगाई बल्कि सॉफ्ट हिंदुत्व की एक नायाब बिसात भी बिछा दी। और फिर कांग्रेस की बिसात पर बीजेपी नेताओं को उतरना पड़ा
ऐसा पहली बार हुआ जब बीजेपी की पारंपरिक राजनीति को कांग्रेस ने नरमी से डील करने की कोशिश की और उसकी बिसात पर ही अपनी डिफेंसिव चाल चल दी। हिंदुत्व की बिसात पर कांग्रेस की चाल का अंदाजा शायद बीजेपी को था नहीं। और शायद यही वजह है कि आनन-फानन में बीजेपी ने राम मंदिर मसले को किनारे लगाया और गुजरात चुनाव में पाकिस्तान का एंगल खोजा। तो गुजरात चुनाव को महज किसी राज्य का चुनाव ही मानिए लेकिन, गुजरात चुनाव में बिछाई गई कांग्रेसी बिसात को गुजरात के दायरे से बाहर भी महसूस कीजिए। सॉफ्ट हिंदुत्व का ये कार्ड उग्र हिंदुत्व से ही अपनी हिस्सेदारी अलग करेगा।

भाजपा की महत्वाकांक्षा से कमजोर पड़ गए हिंदूवादी संगठन !

विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया के बागी तेवर अपनाने के बाद विहिप की एकता ख़तरे में पड़ गई है। ऐसा पहली बार हुआ है जब कार्यकारी अध्यक्ष पद के लिए विहिप में सिरफुटौव्वल की नौबत आई हो। विहिप की गुटबाजी देख राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सतर्क हो गया है।
बीजेपी को तोगड़िया पसंद नहीं
विहिप का नया संकट बीजेपी की नाराजगी से पैदा हुआ है। बताया जा रहा है कि बीजेपी को प्रवीण तोगड़िया रास नहीं आ रहे हैं और बीजेपी ने तोगड़िया की छुट्टी करने का सुझाव संघ को दे दिया है। हलांकि विहिप की तरफ से बीजेपी को ये समझाने की कोशिशें हो चुकी हैं कि फिलहाल तोगड़िया की छुट्टी से गलत संदेश जाएगा क्योंकि प्रवीण तोगड़िया ने बीजेपी के लिए बहुत काम किया है। बावजूद इसके बीजेपी अपने रुख पर कायम है और वो हर हालत में तोगड़िया की विहिप से छुट्टी पर अड़ी है।
क्या है विहिप का संकट ?
विश्व हिंदू परिषद का मौजूदा संकट कार्यकारी अध्यक्ष के चयन को लेकर पैदा हुआ है। बीजेपी के दबाव के बाद 29 दिसंबर को भुवनेश्वर में विहिप की एक्जीक्यूटिव बोर्ड और ट्रस्ट कमिटी की बैठक हुई। इस बैठक में नए कार्यकारी अध्यक्ष का चयन होना था। विहिप की परंपरा के मुताबिक ट्स्ट कमिटी बैठक में कार्यकारी अध्यक्ष के नाम का ऐलान करती है। लेकिन 29 दिसंबर की बैठक में ये परंपरा खतरे में पड़ गई। ट्रस्ट ने जैसे ही इसके लिए राघव रेड्डी के नाम का ऐलान किया वैसे ही बैठक में हंगामा हो गया। हंगामा करने वालों ने हिमाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल वी कोकजे का कार्यकारी अध्यक्ष बनाने की मांग उठा दी। वी कोकजे फिलहाल विहिप के अंतर्राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। इस हंगामे के बाद तीसरा गुट भी खड़ा हो गया और तीसरे गुट ने मौजूदा कार्यकारी अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया को ही एक और कार्यकाल देने की सिफारिश कर दी। हंगामे के बाद फिलहाल विहिप के अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन टल गया है लेकिन, विवाद नहीं थमा है।
अब गेंद संघ के पाले में   
विहिप का गहराता संकट संघ के लिए मुश्किलें खड़ी करने लगा है। संघ और विहिप की कोशिश थी कि 29 दिसंबर को भुवनेश्वर में हुई बैठक में जो कुछ भी हुआ वो बाहरी दुनिया को पता न चले। लिहाजा प्रवीण तोगड़िया ने तो इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली लेकिन, जब तक ये मैसेज बैठक में मौजूद लोगों तक पहुंचता तब तक विहिप के ही प्रवक्ता सुरेंद्र कुमार जैन ने मीडिया में कुछ बातें पहुंचा दीं। विहिप का संकट और संकट का सच पब्लिक डोमेन में पहुंचने के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सतर्क हो गया है। संघ ने साफ कर दिया है कि विहिप के अंतर्राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष का चयन अब संघ के निर्देश पर होगा। अब संघ के सामने कई चुनौतियां हैं। संघ को बीजेपी की नाराजगी से भी बचना है और राघव रेड्डी के खिलाफ वी कोकजे की उम्मीदवारी से भी जूझना है। फिलहाल पहली बार ऐसी स्थिति विहिप में पैदा हुई है और संघ के सामने अपने ही घर में अपनों और गैरों में फर्क करने का वक्त आ गया है। 

मीडिया का भक्ति काल

मीडिया की साख पर जैसा संकट इस वक्त खड़ा है वैसा पहले कभी था क्या ? बहुत सारे लोग आपातकाल के दौरान की मीडिया पर सवाल खड़े करते हैं। लेकिन आपाताकाल का जितना विरोध तब की मीडिया ने किया था वैसा विरोध सरकार के किसी फैसले का शायद ही कभी हुआ हो। राजनीति में मर्यादाओं की चर्चा होगी तो आपातकाल की भी चर्चा होगी। तब इंद्र कुमार गुजराल सूचना-प्रसारण मंत्री हुआ करते थे। कहा जाता है कि संजय गांधी ने तब उनसे कहा था कि दूरदर्शन और आकाशवाणी पर सरकार विरोधी खबरों की संख्या कम करवाएं। इंद्र कुमार गुजराल ने तत्काल अपना इस्तीफा टाइप करवाया और इंदिरा गांधी के पास भेज दिया था। इस्तीफे की चिट्ठी मिलते ही गुजराल तलब किए गए। इस्तीफे की वजह पूछी गई। गुजराल ने तब कहा था कि आपातकाल से तो देश बाहर निकल जाएगा लेकिन मीडिया पर सरकारी नियंत्रण हुआ तो लोकतंत्र का दम घुट जाएगा। इंदिरा मनाती रहीं, उनके सामने ही संजय गांधी को डांटा भी लेकिन गुजराल ने इस्तीफा वापस नहीं लिया। ये थी तब की राजनैतिक मर्यादा। आज इतनी हिम्मत किसी मंत्री में नहीं कि वो प्रधानमंत्री के फैसले के खिलाफ चूं तक बोल पाए, इस्तीफा तो बहुत दूर की बात है।
   हलांकि, तमाम बंदिशों के बावजूद तब के पत्रकार और संपादकों ने नागिन डांस नहीं किया और आपातकाल के खिलाफ खूब लिखा, खूब बोला और फिर जेपी आंदोलन में शामिल होकर इंदिरा सरकार की चूलें भी हिलाईं। आज मीडिया में इतनी हिम्मत नहीं बची है कि वो सरकारी नीतियों, फैसलों की आलोचना कर सके या फिर उनसे हो रहे नुकसान की चर्चा कर सके। सरकार तो छोड़िए आलम ये है कि आज का मीडिया उस पार्टी का भोंपू बन गया लगता है जिसकी सरकार है। और जैसा कि प्रकृति का नियम है अपने मालिक के लिए दुम हिलाने वाले या भौंकने वाले को टुकड़ा मिलता है वैसे टुकड़े उछाले भी जा रहे हैं।
इसी के साथ बेहद चालाकी से सारी नाकामी का ठीकरा मीडिया पर फोड़ा जा रहा है। आम आदमी के सवालों का तोप मीडिया की तरफ है। पहले महंगाई बढ़ने पर सरकार से सवाल पूछे जाते थे। अब मीडिया से पूछा जा रहा है कि 60 साल क्या सस्ते दिन थे जो अब महंगाई की बात हो रही है ? बेरोजगारी के मसले पर भी सवाल मीडिया से ही पूछे जा रहे हैं। लोग पूछ रहे हैं कि पिछले 60 साल में सबको रोजगार मिल गया था क्या जो अब बेरोजगारी पर खबर चला रहे हो ? इसी तरह के सवाल तमाम मसलों पर मीडिया से पूछे जाने लगे हैं। बेहद चालाकी से सरकार ने, सरकार चला रहे सियासी दल ने आम आदमी के तमाम सवालों को मीडिया की तरफ मोड़ दिया है। ऐसा माहौल गढ़ा जा रहा है जैसे महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, अस्पतालों की बदहाली के लिए मीडिया ही जिम्मेदार है । और मीडिया का काम सवाल पूछना है ही नहीं बस सरकार की चाकरी करना है। ऐसा माहौल गढ़ा जा रहा है जिसमें सरकार से सवाल पूछने वाला देशद्रोही है। ऐसा माहौल गढ़ा जा रहा है जिसमें सरकार को कुछ करना न पड़े और उसकी नाकामी का ठीकरा या तो पिछले 60 वर्षों पर फूट जाए या फिर मीडिया पर। बेहद चतुराई से तमाम असहमतियों को मीडिया की तरफ मोड़कर सरकार जवाबदेही मुक्त होती दिख रही है।
मेरा मानना है कि ख़बर किसी के पक्ष या खिलाफ़ में नहीं होती है। खबर बस खबर होती है। मसलन लखनऊ में एक गाड़ी में रात भर किसी लड़की से हुआ बलात्कार खबर ही है ये योगी सरकार की मुखालिफत नहीं है। नोटबंदी के बाद देश में बढ़ी बेरोजगारी खबर भर है किसी सरकार का विरोध नहीं है। लेकिन मौजूदा माहौल में ये सरकार विरोधी ख़बरें बताई जा रहीं हैं और ऐसी ख़बरें लिखने-बोलने वाले देशद्रोही बताए जा रहे हैं। तो मीडिया के लिए जो दौर अभी चल रहा है वैसा दौर पहले कभी रहा तो बताइएगा ज़रूर। मेरी जानकारी में इजाफा होगा और शायद तब मैं कुछ अच्छा लिख पाने के काबिल बन पाऊंगा। फिलहाल लोग मीडिया को भांड, दल्ला और न जाने और क्या-क्या कह रहे हैं।

तानाशाही नहीं चलेगी, बस उन तीनों को याद कीजिए

भारत के तीन सर्वश्रेष्ठ राजनेताओं का चयन करना हो तो किसी के सामने ये बहुत बड़ी चुनौती होगी। फिर भी गुण-दोषों के आधार पर आप किसी नतीजे पर ज़रूर पहुच जाएंगे। भारत में औपचारिक तौर पर लोकतांत्रिक राजनीति की शुरुआत महात्मा गांधी ने की थी। उससे पहले बाल गंगाधर तिलक लोकतांत्रिक राजनीति की ज़मीन ज़रूर तैयार कर रहे थे लोकिन, उनकी तमाम कोशिशें नेताओं को ही तैयार कर पाई, राजनीति में बड़े पैमाने पर आम आदमी की भागीदारी सुनिश्चित नहीं कर पाई।
      1916 में दक्षिण अफ्रिका के जन आंदोलन को दिशा देकर महात्मा गांधी भारत लौटे। भारत लौटते ही महात्मा गांधी ने पहला जो काम किया वो था जनमानस को लोकतंत्र के लिए तैयार करना। इसके लिए वो बाजाप्ता अखबार निकालते थे, चिट्ठियां और लेख लिखा करते थे। वो जानते थे कि अंग्रेज परस्त अखबार भारत में लोकतंत्र की बात नहीं करेंगे। इसलिए महात्मा गांधी ने सबसे पहला हथियार सूचना और जन संपर्क को बनाया।
महात्मा गांधी ने जो दूसरा बड़ा काम किया वो था बड़े पैमाने पर लोगों को अपने विचारों के साथ जोड़ना। महात्मा गांधी से पहले की कांग्रेस राजनेताओं की बड़ी टोली तो थी लेकिन उसके पास आम लोगों की ताकत नहीं थी। 1917 में बिहार के चंपारण पहुंचे महात्मा गांधी ने पहली बार कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन के साथ आम लोगों को जोड़ा। छोटी-छोटी सभाएं, गांव-टोलों के किसानों-मजदूरों के साथ बैठकें और फिर वकीलों, डॉक्टरों, जमींदारों और पढ़े-लिखे नवजवानों के साथ उनके सीधे संपर्क ने भारत को पहली बार जन आंदोलन का तरीका सिखाया। आज भारत जो कुछ भी है उसमें जन आंदोलनों की बड़ी भूमिका है। हम महात्मा गांधी को सिर्फ आज़ादी की लड़ाई तक सीमित कर के नहीं देख सकते। छुआछूत, स्वच्छता, अहिंसा, कुटीर उद्योंगों के तहत रोज़गार, शिक्षा जैसे क्षेत्र में उनके काम उनके नज़रिए को स्प्षट करते हैं। मतलब आप उनको समग्र राजनेता कह सकते हैं। एक नेता जिसने समग्रता में राष्ट्र और समाज को सम्मान के साथ जीने की कला दी।
       आज़ादी के बाद भारत के पास संघर्षों में तपे, आदर्शों में ढले राजनेताओं की बड़ी फौज थी। डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. भीम राव अंबेडकर, जवाहर लाल नेहरु, सरदार वल्लभ भाई पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे बड़े कद के नेता देश में मौजूद थे। लेकिन उस वक्त देश को एक ऐसे नेता की ज़रूरत थी जिसकी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मजबूत दखल हो। एक ऐसे नेता की ज़रूरत थी जिसकी तरफ दुनिया देखती हो और जिसकी बातों को गंभीरता से लेती हो। इस मामले में तब जवाहर लाल नेहरु का कद सबसे बड़ा था। नेहरु कश्मीर के सारस्वत ब्राह्मण थे और समाजवादी विचारों के घोर पोषक थे। हैरो से प्राइमरी की पढ़ाई करने के बाद लंदन के ट्रिनिटी और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई करने वाले नेहरु ने सात सालों तक लंदन में फैबियन समाजवाद और आयरिश राष्ट्रवाद का अध्ययन किया था। समाजवाद और राष्ट्रवाद के इसी अध्ययन ने उन्हें विचारों का पक्का और समाज-राष्ट्र के प्रति घोर निष्ठावान बनाया था। आज जहां भारत खड़ा है उसमें नेहरु का बड़ा योगदान है। आज़ादी के बाद दुनिया में भारत को एक देश के तौर मान्यता दिलाने में नेहरु बहुत जल्दी सफल हुए थे। इतना ही नहीं बांधों, बिजली, नहरें, अस्पतालों और यूनिवर्सिटीज, वैज्ञानिक शोध संस्थानों का जो ढांचा तब नेहरु ने खड़ा किया वही ढांचा आज भी भारत के विकास का बुनियाद बने हुए हैं।
      भारत के तीसरे सर्वश्रेष्ठ राजनेता के चयन में भी बहुत सारी चुनौतियां हैं। किसको छोड़ें, किसका जिक्र करें ये बड़े सवाल हैं। जय प्रकाश नारायण, डॉ राम मनोहार लोहिया, इंदिरा गांधी जैसी तमाम शख्सियतें हैं। यहां भी गुण-दोषों के आधार पर बेहद बरीकी से किसी एक नाम चयन किया जा सकता है।
   जय प्रकाश नारायण सिर्फ बड़े स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं थे बल्कि आज़ादी के बाद आम लोगों की स्वतंत्रता के बड़े रक्षक भी साबित हुए। इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता कि आज़ादी के बाद नेहरु काल से ही शासक वर्ग सुविधाभोगी होने लगा था। इतना ही नहीं शासक वर्ग खुद को ऊंचे दर्जे का भी समझने लगा था। नेहरु और लाल बहादुर शास्त्री खुद कई बार इस बात को स्वीकार कर चिंता जाहिर कर चुके थे।
1971 में पाकिस्तान पर युद्ध विजय और अलग बांग्लादेश के निर्माण के बाद देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के स्वभाव से लोकशाही जाती रही। पाकिस्तान पर शानदार विजय और एक अलग देश का निर्माण करवाने में सफल रहीं इंदिरा के स्वभाव में तानाशाही घर कर गई। तब तक देश का साधारण आदमी यही जनता था कि सरकार का मतलब कांग्रेस और मतदान का मतलब कांग्रेस। लोगों को ये पता ही नहीं था कि लोकतंत्र में विकल्प देना जनता का काम है।
    1974 में जय प्रकाश नारायण ने सप्तक्रांति के जरिए वही प्रयोग दुहराया जो प्रयोग गांधी 1918 में बिहार के चंपारण में कर चुके थे। जय प्रकाश नारायण ने क्रांति के साथ बड़े पैमाने पर आम लोगों को जोड़ा। उन्होंने एक बार फिर आम लोगों को उनकी जिम्मेदारियों का एहसास करवाया। उन्होंने पहली बार देश में गैर कांग्रेसी सरकार की नींव डाल कर लोकशाही में बदलाव की ज़रूरत को स्थापित किया।
  भारत के इन सर्वश्रेष्ठ नेताओं के विचारों, आदर्शों और बलिदानों को आप सिर्फ और सिर्फ लोकशाही में खोज सकते हैं और तानाशाही की किसी भी आशंका के वक्त इनके प्रयोगों को इस्तेमाल कर सकते हैं। आज के भारत की मजबूत लोकतंत्र की नींव इन्हीं नेताओं ने तब रखी थी।

राजनीति जाए भाड़, होली खेलिए कुर्ताफाड़

मंडल जादो का माइंड सुन्न हो गया है। भेजा कामे नहीं कर रहा है। मझौलिया स्टेशन पर उतरते ही गुप्ताइन की दुकान पर चाय ली, सिगरेट सुलगाई और बेतिया में खरीदी हुई वही अखबार जो वो ट्रेन में पढ़ रहे थे फिर पढ़ने लगे। एक-एक अक्षर वही जो वो पहले पढ़ चुके हैं। दुकान पर तीन लोग पहले से मौजूद थे। एक मंगल भाई, पुराने समाजवादी हैं। समाजवादी आंदोलनों में कभी शामिल तो नहीं रहे लेकिन समाजवादी नेताओं के नाम तो ऐसे टपकाते हैं जैसे वैशाख में ताड़ के पेड़ से ताड़ी टपक रही हो। दूसरे हैं रंजीत गिरी। लाल झंडा ढो-ढो कर घर-बार बनवा लिया, बुलेट-बॉलेरो का इंतजाम कर लिया, फिलहाल चीनी मिल के चालान के धंधे से बिन गन्ना-बिन चीनी माल लपेट रहे हैं। भूमिहीनों को ज़मीन का पर्चा दिलवाने के नाम पर पिछले बीस सालों से चंदे काट रहे हैं। अब तो खुद खेतीहर हो गए हैं, 20 साल पहले भले ही भूमिहीन थे। अब तीसरे सज्जन का परिचय। जुबान के तीखे हैं बाकी दिल के साफ। बात-बात में साला फॉरवर्ड सब करते रहते हैं, बाकी बाबू-बबुआनों से अच्छी बनती है। उनसे ही दाल-पानी का रिश्ता है जिलदार राम का।
      मंडल जादो ने किसी से बात नहीं की। जिलदार राम ने भांप लिया बोले, का मंडल जादो कौनो टेंशन धर लिया क ? मंडल जादो कुछ जवाब देते इससे पहले मंगल भाई ने नाक धुसेड़ दी> आरे टेंशन का है, लालटेन वालों ने पूरा माल चभवाया था इस बार भइयावा को, भर मुंहे धी में डुबा लिया था जादो जीअवा। मंडल जादो ने सिगरेट की आखिरी कश ली और मुंह-नाक से ऐसे धुआं निकाला जैसे पाइपलाइन साफ कर रहे हों। साफ-सूफ करके बोला, ए भाई ई ललुआ त बड़ा इल्मी निकला हो, बैकवर्ड-बैकवर्ड करके वोट लिया आ भर परिवारे सेट कर दिया।
   रंजीत गीरी अब तक आंखें बंद कर ध्यान में थे। अचानक दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और ज्ञान चक्षु खोल कर जितना बड़ा खोल सकते थे मुंह खोला, जम्हाई ली और बोलने लगे। का गलती का किया बताइए? बेटा को डिपुटी मुखमंत्री नहीं बनाता त का आपको बनाता? आ बड़का का हेल्थे अइसा है कि उसको तो कम से कम 10 साल चाहिए हेल्थ मिनिस्टरी। मंडल भाई झुट्ठे दिमाग मत लगाइए, चुनाव में माल लपेटे न जी, मस्त रहिए, हम लोगों का चाह का पइसवा भी पेड कर दीजिए। मंडल जी से रहा नहीं गया बोले, पीजिए न महाराज जेतना चाय पीना है, बाकी ई कहां का इंसाफ है कि बैकवर्ड-बैकवर्ड करके वोट लीजिए और मंत्री बनाइए अपने दोनों बेटों को? एक बेटा को बनाते, बाकी एक सीट त कौनो बैकवर्ड नेता को देते। भर बिहार में उनको उनका दोनों बेटवे बैकवर्ड बुझाता है। ए गीरी जी हमरो नाम मंडल और बीपी बाबा के नाम भी था मंडल, बाकी ई त जान लीजिए मंगल भाई के समजवदिया सब, आपका कमनिस्टिया सब, आ हमरा मंडलवदिया सब देश को जेतना मूर्ख बनाया न ओतना त अंगरेजवनों सब नहीं बनाया। नीतीश कुमारे के देखिए, बात करते हैं समाजवाद की आ पार्टी के सब बड़का पद पर अपना जाति के लोगों को फिट किए बइठे हैं। लीजिए सिगरेट फूंकिए, आ छोड़िए राजनीति। राजनीति जाए भाड़ हमलोग होली खेलेंगे कुर्ताफाड़।

नमस्ते सदा वत्सले छोड़िए होली मनाइए

देशभटक पांड़े पगला गए हैं। भीतीहरवा आश्रम के बाहर नाखून से मिट्टी खोद रहे हैं। दांतों से पेड़ के तनों को डंस रहे हैं और भाव-भंगिमाओं से बच्चों का मनोरंजन कर रहे हैं। आही दादा ई का हो गया। देशभटक पांड़े की बूढ़ी मां कपार पीट रही हैं। बेतिया के एमजेके कॉलेज के डॉक्टर आदत के मुताबिक जवाब दे चुके हैं। यहां इलाज संभव नहीं बाहर ले जाइए। अब अपना देह तो इनसे चलता नहीं देशभटक को कहां-कहां लेकर जाती रहें। बाकी सपूत का दुख देखा नहीं जाता। समझे में नहीं आ रहा है कि का देख लिया टीवी में। पहिले तो कभी टीवी देख के एतना नहीं बउराया।
मां कपार पीट रही हैं और बेटा भीतीहरवा आश्रम की दीवार पर सिर पीट रहा है। गांव के लोग भावुक हुए जा रहे हैं। हे गान्ही महात्मा दोहाई सच्चाई के, बालक के माफी दे द, बुढ़िया के एके सपूत है। दोहाई महात्मा के। बाकी देशभटक पांड़े मानने को तैयार नहीं। अब चिल्लाने लगे देशभटक पांड़े, प्रबल प्रवंचना का शिकार हुआ। गांव के लोग भकुआ गए। भगेलू महतो मास्टर जी पूछ रहे हैं, पांड़े जी को परबल पंच कुछ कह दिए का? मास्टर जी गांव के लोगों को समझाने लगे, प्रबल माने बड़का और प्रवंचना माने धोखा। कौनो बड़का धोखा हुआ है पांड़े जी के साथ। धोखा..गांव के लोग अचंभे में। पांड़े बाबा को कौन धोखा हो गया, कौनो लड़की-वड़की ने भभूत खिला दिया का? गांव के लोग देशभटक पांड़े को समझाने लगे। कोई फूल चढ़ा रहा है, कोई अक्षत। ओझा-गुनी बुला लिए गए।
      घुटनी बाबा लोटा से दारू पी रहे हैं और देशभटक पांड़े का भूत उतार रहे हैं। भूत उतर रहा है। घुटनी बाबा के मुंह की दुर्गंध से देशभटक पांड़े को उबकाई आ रही है। लोग चिल्ला रहे हैं, दोहाई सरकार के, दोहाई घुटनी बाबा के, हे भूत-प्रेत दया करो। भूत उतर रहा ह। देशभटक पांड़े जोर से चिल्लाने लगे। नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि। अहा देशभटक ठीक हो रहे हैं, सही हो गए, यही बतिया तो वो बोलते रहते हैं, वाह माइंड ठीक हो गया बबुआ के। दोहाई सरकार के, दोहाई गान्ही महात्मा के।
भीड़ देख कर देशभटक पांड़े शुरू हुए। भाइयों-बहनों, माताओं-बहनों। तभी गांव के एक लड़के ने टोका, ए काका हम तो भतीजा हैं। देशभटक पांड़े ने नहीं सुना, बोलते रहे, भारत मां के सपूतों, बड़ा धोखा हुआ। हमको कभी देखा फुल पैंट पहने हुए। कड़ाके की ठंड में भी पाजामा-कुर्ता पहना, घने कुहरे में भी हाफ पैंट पहन कर लाठी भांज। भांजी कि नहीं। बोलिए-बोलिए। गांव के लोगों ने एक सुर में कहा सांच के जड़ पाताल में। देशभटक पांड़े का जोश बढ़ता गया। गांव के लोगों पिछले कई सालों से मैंने आपको बताया कि नहीं कि आज़ादी के बाद से इस देश में कुछ नहीं हुआ। बताया कि नहीं? सड़कें बनीं तो भी मैंने कहा कुछ नहीं हुआ। गांव में रेल पहुंची तब भी मैंने कहा अभी कुछ नहीं हुआ। पाकिस्तान से जंग जीते तब भी मैंने कहा कुछ नहीं हुआ। मैंने हर बार कहा न कि देश में तरक्की का कोई काम नहीं हुआ। आज़ादी के बाद से देश बर्बादी की ओर बढ़ रहा है। कहा कि नहीं? गांव के लोगों ने हामी भरी, कहा बबुआ, सबसे कहा, रोजे कहा, जब भेंटाए तब कहा। देशभटक पांड़े फिर शुरू हुए। यहीं धोखा हुआ, जिनके लिए जाड़े में हाफ पैंट पहन-पहन कर फुलफैंट को भारतीय संस्कृति के खिलाफ बताया, अब वही हमारी संस्कृति का बलात्कार कर रहे हैं। कह रहे हैं शाखाओं में फुल पैंट पहन कर आना है। जिनके लिए सड़क, रेल, पुल, बिजली, नहर सबको बर्बादी की वजह बताया, अब वही लोग देश की संसद में कह रहे हैं कि पिछली सरकारों का, अब तक के तमाम प्रधानमंत्रियों का देश की तरक्की में बड़ा योगदान है। बताइए हमसे धोखा हुआ कि नहीं? बताइए, बताइए, नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे। आ ई धोखा हम नहीं सहेंगे, इस बार शाखा में नहीं गांव में होली मानाएंगे।

आतंकवदियों का गढ़ ही है पाकिस्तान, खतरे में है अवाम

दुनिया भर आतंक फैलाने वाले समूहों में सबसे ज्यादा समूह पाकिस्तान में सक्रिय हैं। इससे ये साफ होता है कि पाकिस्तान आतंकवाद का सबसे बढ़ा पनाहगाह है। पाकिस्तान पोषित आतंकी समूह वैसे तो दुनिया के तमाम देशों में इंसानियत का कत्ल करने के लिए ही जाने जाते हैं लेकिन, उनके निशाने पर मुख्य रूप से भारत ही होता है। पाकिस्तान की पूरी राजनीति भारत की मुखालिफत पर टिकी है और जब कभी भी पाकिस्तान में चुनाव नजदीक आते हैं भारत-पाक सीमा पर आतंकी हमले, आतंकी घुसपैठ तेज हो जाती है।
  पाकस्तान में गली-मुहल्लों में आतंकी संगठन हैं। इस संगठनों की गिनती बेहद मुश्किल है। इन संगठनों में जो सबसे ज्यादा खतरनाक और पाकिस्तानी राजनीति को प्रभावित करने वाले हैं वो वहां की सेना के सहयोग से ताकत पाते हैं। इनमें सबसे बड़ा नाम जैश-ए-मुहम्मद है।
 जैश-ए-मुहम्मद का चीफ आंतरराष्ट्रीय आतंकी मसूद अजहर है। इस आतंकी संगठन का गठन पाकिस्तान के बहावलपुर में 31 जनवरी 2000 को किया गया था। संगठन खड़ा करने से पहले ही मौलाना मसूद अजहर कुख्यात आतंकियों को पाकिस्तानी सेना की मदद से ट्रेनिंग दिलवा चुका था। जैश-ए-मुहम्मद के गठन से पहले ही मौलना मसूद अजहर ने अपने आतंकियों के जरिए 1999 में भारत के विमान को हाईजैक कर लिया था। यात्रियों से भरे इस विमान को कंधार ले जाया गया था। यात्रियों की जान की कीमत वसूलते हुए इस आतंकवादी ने अपने तीन आतंकी साथियों को रिहा करवाया था।
   दुनिया के लिए खतरा बन चुका तालिबान भी पाकिस्तान की ज़मीन से ही खाद-पानी पाता है। 90 दशक में उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान खड़ा हुआ। सबसे पहले इस संगठन ने धार्मिक आयोजनों के जरिए लोगों के दिमाग में जहर भरना शुरू किया। संगठन ने सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को संगठन में जगह दी है। 1990 के आसपास जब अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना वापस जाने लगी तब इस संगठन ने अफगानिस्तान में अपनी जड़ें जमानी शुरू की।1994 में अफगानिस्तान में ये संगठन पूरी तरह से  काबिज हो चुका था। इस आतंकी संगठन ने बामियान में शांति का संदेश देने वाले बुद्ध की मूर्तियों को बमों से उड़ाया। बाद के दिनों मे अमेरिकी फौज ने जब इसे अफगानिस्तान से खदेड़ा तो पाकिस्तान ने इस संगठन को पनाह दी। आज भी इस आतंकी संगठन के पास 60 हजार से ज्यादा ट्रेंन्ड आतंकवादी हैं। पाकिस्तान के पेशावर में इस आतंकी संगठन का मुख्यालय है।
   इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक दुनिया अल्लाह ने बनाई है। और अल्लाह की बनाई इस दुनिया को उजाड़ने की कोशिश करने वालों में हाफिज सईद का नाम भी प्रमुखता से शामिल है। हाफिज सईद लश्कर-ए-तैयबा का चीफ है। 1990 में इस आतंकवादी गिरोह का गठन हुआ था। इस संगठन ने 2001 में भारतीय संसद पर हमला किया था। इस हमले के ठीक बाद 2006 में मुंबई में सीरियल बम धमाके में भी इसी संगठन की भूमिका था। 2008 में मुंबई में हुए हमलों में भी यही संगठन शामिल था। हाफिज सईद ने जमात-उद-दावा नाम का एक दूसरा आतंकी संगठन भी खड़ा कर रखा है। पाकिस्तान को छोड़ कर दुनिया के ज्यादातर देश हाफिज सईद को आतंकवादी घोषित कर चुके हैं।
   दुनिया के बड़े आतंकी समूहों में तहरीक-ए-तालिबान का नाम भी शामिल है। तहरीक-ए-तालिबान की स्थापना आतंकवादी बैतुल्लाह मसूद ने 2007 में की। तब इस संगठन में छोटे-बड़े 15 आतंकवादी गुट शामिल हुए थे। माना जाता है कि अभी इसमें 30 हजार ऐसे ट्रैंड आतंकी हैं जिन्हें पाकिस्तानी फौज की मदद से तैयार किया गया है। मौलाना फैजलुल्लाह फिलहाल इस आतंकी नेटवर्क का नेतृत्व कर रहा है।

 इसके अलावा पाक सेना की मदद से हक्कानी नेटवर्क और अल कायदा जैसे आतंकी संगठन भी पाकिस्तान की सरज़मीं पर खाद-पानी पाकर ऐंठ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि दुनिया इस सच को नहीं जानती। पूरी दुनिया को पता है कि दुनिया के सबसे ज्यादा खुंखार आतंकी और उनके संगठन पाकिस्तान में पनाह पाकर दुनिया भर में तबाही मचा रहे हैं। बावजूद इसके पाकिस्तान के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है। 

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि ये बजट देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने ये बात यूं ही नहीं कही है। वर्ल्ड बैंक के अ...