Saturday, January 27, 2018

कासगंज हिंसा: तू इधर-उधर की बात न कर, बस ये बता कि काफिला क्यों लुटा ?

उत्तर प्रदेश के कासगंज में 26 जनवरी को एक युवक की हत्या हो गई। ये हत्या सांप्रदायिक झड़प में हुई। हत्या के बाद झड़प सांप्रदायिक दंगे में तब्दील हो गई और पूरा शहर कर्फ्यू के सन्नाटे में घिर गया। 27 जनवरी को शहर सुलगने लगा। झड़प और आगजनी की घटनाओं ने कर्फ्यू के सन्नाटे को कहर के कोहराम में तब्दील कर दिया। और यहीं से सवाल खड़ा हुआ कि ये हादसा हुआ ही क्यों ?
इस हादसे के कई पहलुओं की पड़ताल ज़रूरी है। पड़ताल होगी भी। फिलहाल जो बात सामने आ रही है वो ये है कि कासगंज में 26 जनवरी की सुबह कुछ युवकों ने मोटर साइकिलों पर सवार होकर तिरंगा यात्रा निकाली। इस यात्रा की सूचना स्थानीय प्रशासन और पुलिस को नहीं दी गई थी। पहली चूक यहां सामने आती है।

Copyright Holder: ASIT NATH TIWARI
कथित तिंरगा यात्रा जब शहर के बड्डू नगर इलाक़े से गुज़र रही थी तब यात्रा में शामिल युवकों की किसी बात पर मुस्लिम समुदाय के कुछ युवकों से झड़प हो गई. पहले हाथापाई हुई फिर भीषण हिंसा हो गई। ये इलाका सांप्रदायिक नजरिए से बेहद संवेदनशील है। 1993 में इसी इलाके से भड़के दंगे ने राज्य के कई जिलों को अपनी चपेट में ले लिया था। इस इलाके में झड़प इस घटना में दूसरी प्रमुख चूक रही।
झड़प और हिंसा के बाद एक मस्जिद के नजदीक से गोलियां चलने लगीं। इसी गोलीबारी में शहर के नरदई गेट निवासी चंदन गुप्ता की मौत हो गई। फायरिंग के बाद खुद को घिरा देख कथित तिरंगा यात्रा निकालने वाले युवक वहां से जान बचा कर भागे। मामूली झड़प के बाद गोली का चलना इस घटना की तीसरी चूक थी।
इस घटना के बाद पूरे शहर में तनाव बढ़ गया। जब भीड़ ने कोतवाली का घेराव कर लिया तब पुलिस की नींद खुली। 27 जनवरी को पुलिस ये मानकर बैठ गई कि महकमे के बड़े अधिकारी शहर में मौजूद हैं लिहाजा कोई बड़ी घटना नहीं होगी। ये इस घटना की चौथी चूक रही। 27 जनवरी की सुबह से ही शहर में हिंसक घटनाएं होने लगीं। कई दुकानों समेत तीन बसों को भीड़ ने फूंक दिया।
अब इस घटना के बाद कई सवाल खड़े हो रहे हैं। पहला सवाल ये कि बिना स्थानीय पुलिस को सूचना दिए यात्रा क्यों निकाली गई ? दूसरा सवाल ये कि यात्रा को एक मस्जिद के नजदीक रोक कर वहां धर्म विशेष के खिलाफ नारे क्यों लगाए गए ? तीसरा सवाल ये कि जब यात्रा सड़कों से होते हुए संवेदनशील इलाके की तरफ बढ़ी तो पुलिस ने सुरक्षा के इंतजाम क्यों नहीं किए ? चौथा सवाल ये कि जब युवकों में किसी बात पर झड़प हो गई तो फिर गोलियां क्यों चलाई गईं ? पांचवा सवाल ये कि मस्जिद के आसपास उस दिन इतने हथियार क्यों इकट्ठा किए थे ? छठा सवाल ये कि मस्जिद के आसापस से गोलियां चलाने वाले कौन लोग थे ? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये कि इन तमाम मसलों पर नजर बनाए रखने के लिए जिस पुलिस तंत्र पर खरबों रुपये खर्च किए जाते हैं वो तंत्र कहां था ?
जब घटना हो गई, एक युवक की जान चली गई, दुकानें, बसें फूंक दी गईं और शहर के आपसी रिश्ते सुलग उठे तब पुलिस कमिश्नर सुभाष चंद्र शर्मा ये कह रहे हैं कि पुलिस ने लापरवाही बरती।
बात बड़ी सीधी है और वो भी सरकार से कि तू इधर-उधर की बात न कर बस ये बता कि काफिला क्यों लुटा ?

क्या सावरकर से भी जुड़े थे गांधी हत्या के तार ?

महात्मा गांधी की मौत बहुत तेजी नजदीक आ रही थी। दिसंबर 1947 की शुरुआत में ही हथियारों के तस्कर मदनलाल पहवा ने होटल संचालक विष्णु करकरे के साथ नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे को कई हथियार दिखा दिए थे। ये तमाम हथियार विष्णु करकरे के होटल के मैनेजर के कमरे में छुपाकर रखे गए थे। लेकिन इस योजना को जनवरी 1948 में तगड़ा झटका लगा। हत्या के एक मामले में पुलिस ने विष्णु करकरे को गिरफ्तार करने के लिए एक होटल में छापा मार दिया। इस दौरान पुलिस को वो तमाम हथियार मिल गए। करकरे और पहवा फरार हो गए।
13 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की तबीयत बेहद खराब हो गई। वो पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये की मदद देने की जिद पर अड़ गए। विभाजन के समय हुए वादे को वो बार-बार याद दिलाने लगे। गांधी अनशन करने लगे। डॉक्टरों ने बताया लगातार अनशन की वजह से पहले से ही उनका गुर्दा खराब है और हृदय पर बुरा असर पड़ने लगा है। डॉक्टरों की बात को गांधी जी ने मानने से इनकार दिया। गांधी कमजोर हो चुके थे। वो एक खाट पर निढाल होकर लेटे हुए थे। 14 जनवरी को दिल्ली के तमाम मंदिरों और मस्जिदों के लाउडस्पीकर पर गांधी के सेहतमंद होने की कामना सुनाई देने लगी। इसी किस्म की आवाजें पाकिस्तान में भी सुनी जाने लगीं। जगह-जगह प्रार्थना सभाएं होने लगीं। मंदिर और मस्जिद की तरफ से राहत शिविरों में मदद पहुंचाई जाने लगी। सबसे गांधी की सेहत के लिए दुआ करने की अपील की जाने लगी।
        दिल्ली से सात सौ मील दूर हिंदू राष्ट्र के दफ्तर में जैसे ही गांधी के अनशन की खबर पहुंची नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे एक-दूसरे को देखने लगे। दोनों के चेहरे पर तनाव था। गोडसे ने ऐलानिया तौर पर कहा कि हमें गांधी को मार देना चाहिए। गोडसे के इतना कहते ही उसके सहयोगी मदनलाल पहवा और विष्णु करकरे भी वहां पहुंच गए। गोडसे ने अपनी बात इन दोनों को भी बताई।
हिंदू राष्ट्र के दफ्तर से निकलकर वो चारों मुंबई में उस आदमी के पास पहुंचे जो साधु और फकीर के भेष में हथियार बेचा करता था। दिगंबर बडगे ने फर्श पर हथियार फैला दिए। हथियारों को देखने के बाद तय हुआ कि सभी 14 जनवरी को बंबई के दादर में हिंदू महासभा दफ्तर में मिलेंगे।
इधर दिल्ली के बिड़ला हाउस के लॉन में महात्मा गांधी को धूप में लेटाया गया था। वो खुद चल नहीं पा रहे थे। पोती मनु गांधी उनसे अनशन तोड़ने की भावुक अपील कर रहीं थीं। दादा-पोती एक-दूसरे को गीता और रामायण के उदाहरण दे रहे थे। चारपाई के चारों तरफ हिंदू, मुस्लिम और सिख समुदाय की बड़ी भीड़ जमा थी। सारे लोग बापू से अनशन तोड़ने की अपील कर रहे थे।
उधर 14 जनवरी 1948 को बंबई के सावरकर सदन में सदी के सबसे बड़े घटना की तैयारी पर मंथन चल रहा था। हथियारों का तस्कर बडके गवैया के रूप में बगल में तबला दबाए सावरकर सदन में बैठा था। दिंगबर बडगे को वहीं बैठने का इशारा कर नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे बडगे वाला तबला लेकर सावरकर के कमरे में पहुंचे। इस तबले में बम और पिस्तौल रखे गए थे।
15 जनवरी को पूरे देश में ये बात फैल गई कि बापू की तबीयत बेहद खराब है। ये गुरुवार का दिन था। देश भर में यज्ञ-हवन और दुआओं का दौर शुरू हो गया। उसी दिन सबेरे तकरीबन साढ़े सात बजे नारायण आप्टे बंबई के एयर इंडिया के दफ्तर पहुंचा और बंबई से दिल्ली जाने वाली फ्लाइट की दो टिकट बुक करवाई। ये टिकट डीएन कर्माकर और एस मराठे के नाम से बुक करवाए गए थे और यात्रा की तारीख थी 17 जनवरी।
इधर दिल्ली में दोपहर बाद पूरी सरकार गांधी की चारपाई के चारों तरफ बैठी थी। जवाहर लाल नेहरु और सरदार वल्लभ भाई पटेल की आंखों में आंसू थे। बापू ने दोनों से पूछा कि अगर भारत अपना पहला अंतर्राष्ट्रीय समझौता ही तोड़ देगा तो फिर कल दुनिया कैसे उस पर विश्वास करेगी ? दरअसल बापू उस समझौते की याद दिला रहे थे जिसके तहत पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने थे। बापू ने सरदार पटेल से पूछा कि पाकिस्तान में गए और उस भू-भाग पर पहले से बसे लोग क्या वो लोग नहीं हैं जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ी ? क्या बिना उन लोगों के सहयोग के ही देश आजाद हो गया ? बापू के इस सवाल के बाद नेहरु और सरदार पटेल फफक पड़े। नाराजगी और गुस्से की बर्फ पिघल पड़ी। बिड़ला हाउस के उसी लॉन से सरकार ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने का ऐलान कर दिया।
उसी दिन बंबई में नारायण आप्टे ने बडगे से मुलाकात कर बताया कि सावरकर ने गांधी, नेहरु और सुराहवर्दी को खत्म करने का आदेश दिया है। आप्टे ने बडगे को भी दिल्ली जाने को तैयार कर लिया।
बडगे ने जो हथियार दिए थे उसे मदनलाल ने अपने बिस्तरों वाली पोटली में छुपाकर रख लिया। तय हुआ कि मदनलाल और करकरे फ्रंटियर मेल से दिल्ली के लिए रवाना होंगे। बडके और नाथूराम गोडसे का भाई गोपाल गोडसे अलग-अलग गाड़ियों से दिल्ली जाएंगे। नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे हवाई जहाज से दिल्ली पहुंचेंगे। मतलब बंबई से बापू की मौत दिल्ली के लिए उड़ान भरने वाली थी।
इधर दिल्ली-बंबई समेत तमाम शहरों से बिड़ला हाउस में तार आने लगे। तमाम तार में लोगों ने बापू के स्वास्थ्य की कामना की थी। 16 जनवरी को दिल्ली-बंबई समेत कई शहरों की तमाम दुकानें बंद रहीं। जगह-जगह बापू के स्वास्थ्य लाभ की खातिर हवन-पूजन होने लगे।
17 जनवरी को तय कार्यक्रम के मुताबिक गोपाल गोडसे ट्रेन में सवार हो गया। गोपाल गोडसे ने भी अपने सामान में एक पिस्तौल छुपा रखा था ताकि जरूरत पड़ने पर इस्तेमाल में आ सके।
इधर बिड़ला हाउस में गांधी की सेहत में हल्की सुधार के बाद भले ही तमाम चेहरों पर थोड़ी खुशी दिख रही थी लेकिन नेहरु और पटेल अलग-अलग दिशाओं में रोते देखे गए। दोनों गांधी की बिगड़ी तबीयत के लिए खुद को जिम्मेदार मानने लगे थे। बिड़ला हाउस में भीड़ बढ़ती जा रही थी और इसी भीड़ में मदनलाल पहवा और करकरे भी मौजूद थे।
शाम को कांग्रेस दफ्तर में डॉ राजेंद्र प्रसाद के साथ नेताओं की मीटिंग चल रही थी। तभी फोन पर जानकारी मिली कि गांधी की तबीयत बहुत खराब हो गई है। अगले दिन 18 जनवरी को गांधी घंटे-दो घंटे पर बेहोश होने लगे। 11 बजे तक राजेंद्र प्रसाद, नेहरु, पटेल समेत तमाम बड़े नेता बिड़ला हाउस पहुंच चुके थे। राजेंद्र प्रसाद ने बापू से कहा कि उनकी तमाम शर्तें देश ने मान ली है। दस्तखत करने वालों में हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता भी शामिल हैं। सबने मिलकर आपसे अनशन तोड़ने की अपील की है। गांधी ने कहा सरकरा बैठे लोगों ने सरकार का मतलब दिल्ली समझि लिया है, सरकार का मतलब सारा देश समझिए।
दोपहर 2 बजे तक सारी दिल्ली को खबर लग गई कि गांधी ने अनशन खत्म कर दिया है। बीबीसी ने भी गांधी का अनशन खत्म वाली खबर देश-दुनिया को दे दी। भारत और पाकिस्तान में जश्न का माहौल था। और दिल्ली में गांधी की हत्या के लिए पांच लोग पहुंच चुके थे।

Wednesday, January 24, 2018

गांधी हत्या पर विशेष: गोडसे तो मोहरा भर था

                      पहली कड़ी
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की योजना को अमल लाने की बेचैनी 1947 के नवंबर महीने की पहली तारीख को जिस पूरे गिरोह को तनावग्रस्त कर रही थी उसे मुंबई के सावरकर भवन में रहने वाले अपने वैचारिक गुरु के प्रति अपनी आस्था प्रमाणित करनी थी। ये गिरोह जिसने 15 अगस्त को तिरंगा झंडे का विरोध करते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के झंडे को सलामी दी थी 1 फरवरी को मुंबई में अपने नए खुल रहे अखबार के दफ्तर के उदघाटन के लिए जमा हुआ था। हिंदू राष्ट्र अखबार का नया दफ्तर खुलने वाला था और पूणा के दो ब्राह्मण अखबार से आगे की बात सोचने में मशगूल थे। नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे में गहरी मित्रता जरूर थी लेकिन दोनों के स्वभाव में बड़ा फर्क था। दोनों कट्टर हिंदूवाद के समर्थक थे, दोनों विनायक दामोदर राव सावरकर के प्रिय शिष्य थे। लेकिन दोनों में जो फर्क था वो बेहद हैरान करने वाला था। नारायण आप्टे ऐश-ओ-आराम की जिंदगी जीना पसंद करता था। वो रोज शराब पीता था और अपने घर में रहने के बजाय होटल के कमरों में ठहरता था। उसने अपनी पत्नी को अपने हाल पर छोड़ दिया था और अलग-अलग महिलाओं से संबंध बनाता रहता था। वो उन्हीं होटलों में ठहरता था जहां उसके लिए लड़कियों का इंतजाम हो जाए। नाथूराम गोडसे इससे अलग था। गोडसे मांस-मदिरा से बहुत दूर था और ब्रह्मचर्य के नियमों का कठोरता से पालन करता था। लेकिन दोनों की सोच में एक मामले में जबर्दस्त समानता थी। दोनों महात्मा गांधी को जाति के आधार पर अपना नेता नहीं मानते थे। नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे की जाति व्यवस्था पर दृढ़ आस्था थी। दोनों को मानना था कि महात्मा गांधी वैश्य हैं और एक वैश्य का नेतृत्व हिंदुओं के लिए अपमानजनक है। दोनों का मानना था कि विनय दामोदर सावरकर ब्राह्मण हैं और भगवान ने उन्हें हिंदुओं का नेतृत्व करने के लिए ही ब्राह्मण कुल में पैदा किया है। ये दोनों सावरकर समेत खुद को उच्च कुल का चितपावन ब्राह्मण मानते थे।
   1 फरवरी को हिंदू राष्ट्र अखबार की शुरुआत करने वाले ये दोनों युवा परेशान थे। हालांकि अखबार में दोनों की भूमिकाएं बेहद स्पष्ट थीं। आप्टे तेजी से सौदे पटाने की कला का माहिर था और गोडसे जले-भुने लेख लिखने वाला संपादक।
   अखबार की शुरुआत के साथ ही दोनों में निराशा की पहली खबर पानीपत से आई। नवंबर के आखिरी हफ्ते में शहर में रह रहे शरणार्थी हिंदू और स्थानीय हिंदुओं ने मुस्लिम बस्तियों को घेर लिया। पानीपत रेलवे स्टेशन के तब के स्टेशन मास्टर देवीदत ने स्टेशन पर शरण लिए मुसलमानों को एक सुरक्षित कमरे में जगह दे दी तो भीड़ ने उनपर हमला कर दिया।  इस भीड़ में हिंदू और सिख शामिल थे। इस घटना के डेढ़ घंटे बाद ट्रेन के साधारण डब्बे से एक बेहद बूढ़ा शख्स स्टेशन पर उतरा। उस बूढ़े शख्स को देखते ही स्टेशन पर चहलकदमी बढ़ गई। हर आदमी बापू की एक झलक पाने को बेताब हो गया। बापू की एक अपील पर भीड़ ने स्टेशन मास्टर को रिहा कर दिया। कमरे में बंद मुसलमान बाहर आ गए और जो लोग कृपाण लेकर उनपर हमले के लिए बेताब थे वही लोग उन्हें गले लगाने लगे। पानीपत में गांधी ने एक छोटी सी सभा की और शहर का माहौल बदल गया। राहत शिविर में रह रहे सिखो के लिए मुसलमानों की बस्तियों से कपड़े और राशन भिजवाए गए। इस खबर ने अखबार के दफ्तर में बैठे नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को घोर निराशा में धकेल दिया। बापू पानीपत की लड़ाई तो जीत गए लेकिन जिंदगी की लड़ाई हार गए।
   शाम होते ही नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे अपने पुराने मित्र दिगंबर बडके से मिलने उसके घर पहुंच गए। बडके इस दिन साधु के वेश में था। वो रोज अपना वेश बदलता रहता था। बडके की पूना में किताबों की दुकान थी और किताबों की आड़ में वो हथियार बेचा करता था। इसी के साथ वो होटल के कमरों में लड़कियों की सप्लाई भी किया करता था। नारायण आप्टे से उसकी मित्रता होटल में लड़कियां सप्लाई करने के दौरान ही हुई थी। बडके से मिलकर उसने कहा कि वो कुछ करने वाला है और इसके लिए उसे हथियारों की ज़रूरत है। मतलब नवंबर 1947 में ही महात्मा गांधी की हत्या का फैसला हो गया था।

Sunday, January 21, 2018

AAP प्रकरण: क्यों न हो आयोग और मीडिया पर संदेह ?

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की विधानसभा सदस्यता रद्द करने के चुनाव आयोग के फैसले पर बहसें जारी हैं। मामला हाईकोर्ट में है। लेकिन जिस तरह से आयोग का फैसला सामने आया उससे कई किस्म के संदेह पैदा हो रहे हैं। इस मामले में आदालतों के सामने भी कई चुनौतियां हैं।
  दरअसल संविधान में लाभ के पद की कोई व्याख्या नहीं है। व्याख्या तो दूर की बात इसकी कल्पना तक नहीं है। मतलब लाभ का पद संविधान के जरिए परिभाषित नहीं है। कोर्ट के सामने दूसरी बड़ी चुनौति पुराने मामले हैं। ऐसे कई नजीर हैं जिसपर कोर्ट को नजर डालनी पड़ेगी। राजस्थान का कांता कथुरिया प्रकरण सबको याद है। कांता कथुरिया, कांग्रेस के विधायक थे। तब की सरकार ने उन्हें लाभ के पद पर नियुक्त किया। हाईकोर्ट ने कांता कथुरिया की नियुक्ति को अवैध करार दिया। इसके ठीक बाद सरकार ने कानून बनाकर उस पद को ही लाभ के पद से बाहर कर दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट गया और सुप्रीम कोर्ट ने कांता कथुरिया की विधानसभा सदस्यता और जिसे लाभ का पद बताया गया था उस पद पर तैनाती को वैध करार दिया।
    आप विधायकों के मामले में चुनाव आयोग के फैसले पर संदेह की बड़ी वजह 2006 का एक मामला भी है। 2006 में दिल्ली में कांग्रेस की सरकार थी। इस सरकार में शीला दीक्षित मुख्यमंत्री थीं। तब शीला दीक्षित ने 19 विधायकों को संसदीय सचिव का पद दिया था। बीजेपी ने इसे लाभ का पद बताकर चुनौती दी। सरकार ने तत्काल कानून बनाकर 14 पदों को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दिया। ये काम मौजूदा सरकार भी कर चुकी है। मतलब अरविंद केजरीवाल सरकर ने भी कानून के जरिए उन पदों को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दिया है जिनपर पार्टी के उन 20 विधायकों को नियुक्त किया गया है जिनपर हाल ही में चुनाव आयोग का फैसला आया है। तो क्या चुनाव आयोग अलग-अलग पार्टियों के लिए अलग-अलग मानक रखता है ?
    चुनाव आयोग के फैसले पर संदेह की और भी कई वजहें हैं। आप के जिन विधायकों पर आयोग ने कार्रवाई की है उन्हें मार्च 2015 में संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त किया गया। उसी साल छत्तीसगढ़ में भी 11 विधायकों को संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त किया गया। छत्तीसगढ़ के इन 11 विधायकों की संसदीय सचिव पर नियुक्ति को भी कोर्ट ने अवैध ठहराया है, बावजूद इसके चुनाव आयोग ने उनकी विधानसभा सदस्यता को बहाल रखा है।
   हरियाणा में भी मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने पांच विधायकों को लाभ का पद दिया। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने इन नियुक्तियों को अवैध बताया लेकिन, इनकी विधानसभा सदस्यता को चुनाव आयोग ने बरकरार रखा। राजस्थान के भी 10 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया है। मध्य प्रदेश में तो 118 विधायकों को लाभ का पद दिया गया है। दिल्ली के 20 विधायकों के मामले में झटपट कार्रवाई और मध्य प्रदेश के 118 विधायकों के मामले में चुप्पी। तो फिर चुनाव आयोग पर संदेह क्यों नहीं किया जाए ? राजस्थान, हरियाणा और छत्तीसगढ़ के मामलों में चुनाव आयोग के रवैये पर संदेह क्यों नहीं किया जाए ?
   2016 में अरुणाचल प्रदेश की सरकार में तोड़फोड़ कर बीजेपी की सरकार बनाई गई। पेमा खांडू मुख्यमंत्री बने। इसी पेमा खांड़ू ने सितंबर 2016 में 26 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया और फिर मई 2017 में 5 और विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया। इतने छोटे राज्य में 31 संसदीय सचिव बनाए गए ये किसी को क्यों नहीं दिख रहा है ?
   और फिर संदेह सिर्फ चुनाव आयोग पर ही क्यों ? ये तमाम तथ्य जुटाने वाले वरिष्ठ टीवी पत्रकार रवीश कुमार अगर बार-बार मौजूदा टीवी मीडिया पर सवाल उठा रहे हैं तो क्या ग़लत है ? टीवी पर भयंकर होते एंकर आम आदमी पार्टी के मुद्दे पर तो बहुत गरम होते दिख रहे हैं लेकिन, यही एंकर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और राजस्थान के मुद्दे पर एक शब्द भी क्यों नहीं बोल पा रहे  हैं ? 

    जाहिर है संस्थाओं को तबाह किया जा रहा है। इस काम में मदद करने वाले संस्थाओं के प्रमुखों को रिटायरमेंट के बड़े लाभ का पद दिया जा रह है।  

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि ये बजट देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने ये बात यूं ही नहीं कही है। वर्ल्ड बैंक के अ...