Monday, June 25, 2018

आपातकाल के लिए 'संपूर्ण भ्रांति' वाले जेपी जिम्मेदार नहीं थे क्या ?

25 जून को जब पूरे देश में आपाताकाल की बरसी मनाई जा रही थी और आपातकाल को याद करते हुए तरह-तरह के लेख पोस्ट हो रहे थे तो मैं गौर से बहुत कुछ देख-पढ़ रहा था। ज्यादातर लेख मुझे परंपरावादी लगे। कार्यक्रमों में व्यक्त किए जा रहे उद्गार भी परंपरावादी ही लगे। मेरे पिताजी ने जयप्रकाश नारायण और डॉ लोहिया के साथ थोड़े-बहुत दिनों तक कुछ काम किए थे और जेपी के आह्वान पर संपूर्ण क्रांति में हिस्सा भी लिया था। बचपन से जेपी की महानता के क़िस्से सुनता आया हूं। जब नौंवी क्लास में था तो पहली बार जेपी की किताब मेरी विचार यात्रा पढ़ी थी। बाद में वो किताब फिर पढ़ी। जेपी के क़िस्से सुनते-पढ़ते कई वैसे लोगों से मुलाकातें हुईं जो लोग संपूर्ण क्रांति के क्रांतिकारी रहे और जेलें भोगीं। लेकिन तमाम लोगों के विचारों-लेखों के बावजूद मेरा एक सवाल अनुत्तरित रह गया। वो सवाल है कि संपूर्ण क्रांति से देश को मिला क्या ? 
जेपी ने अपनी क्रांति को सात रंगों से रंगा था। राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक क्रांति। राजनैतिक क्रांति ऐसी हुई कि एक चुनी हुई बहुमत वाली सरकार के खिलाफ देश में अराजकता पैदा की गई। 1977 के चुनाव में कांग्रेस चुनाव हारी, खुद इंदिरा गांधी चुनाव हारीं। क्रांति से पैदा हुए जेपी के चेलों की क्रांतिकारी सरकार बनी। ये ऐसी क्रांतिकारी सरकार थी जिसमें स्वार्थों का जबरदस्त टकराव हुआ और ढाई साल में ही ये क्रांतिकारी सरकार भरभरा कर गिर गई। आलम ये हुआ कि इस आंदोलन से निकले किसी नेता की दूसरे नेता से नहीं बनी और सबने अपने-अपने इलाके में अपनी-अपनी पार्टी बनाई और बाद में उसी कांग्रेसवाद के साथ खड़े हुए जिस कांग्रेसवाद के खिलाफ संपूर्ण क्रांति की थी। 
इस क्रांति ने सिवाय सत्ता परिवर्तन के कुछ नहीं किया। मतलब जो काम आम आदमी बिना किसी शोर-शराबे के महज वोट के जरिए कर देता है वही काम ढाई सालों के घोर अराजक माहौल के जरिए किया गया। खुद जॉर्ज फर्नांडिस ने स्वीकार किया कि उन्हें खुद नहीं मालूम के आंदोलन के दौरान उन्होंने कितनी रेलगाड़ियां बेपटरी करवाईं। 
ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिलता जिसके आधार पर आप ये कह सकें कि जेपी आंदोलन के जरिए राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक क्रांति हुई हो। हुआ ये कि बाद में जेपी आंदोलन से ही निकले कई लोगों ने इसे संपूर्ण क्रांति की जगह संपूर्ण भ्रांति कहना शुरू कर दिया। 
भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हुए आंदोलन से लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता निकले। एक घोटाले के दोषी हैं और फिलहाल सज़ायाफ्ता हैं। दूसरे पर आय से अधिक संपत्ति का मामला लंबित है। जेपी के चेलों ने जातिवादी राजनीति का जो जंगल खड़ा किया उससे निकलने का रास्ता अब किसी को नहीं दिख रहा है। जेपी के आंदोलन से निकले अंटल बिहारी बाजपेयी ने अयोध्या में विवादित ढांचा गिराने से पहले कहा था कि ज़मीन को समतल करना होगा। इसी संपूर्ण क्रांति के एक और क्रांतिक्रारी लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर रथ यात्रा निकाली। देश को सांप्रदायिक दंगों की आग में झोंकने वाले भी जेपी आंदोलन से ही निकले। 
खैर ये विषय बहुत बड़ा है और इसपर बहुत कुछ कहने-लिखने को है। फिलहाल आपातकाल की चर्चा तक ही इसे सीमित रखें तो, पहली नज़र में आपातकाल के लिए भी जयप्रकाश नारायण जिम्मेदार नज़र आते हैं। जेपी की मंशा भले ही बेहद साफ रही हो लेकिन, बेहद ईमानदार और भोले जेपी से ऐसी भूल हो गई जिसने लोकतंत्र के इतिहास को कलंकित कर दिया। 
25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी ने लाखों की भीड़ से आह्वान कर दिया कि वो प्रधानमंत्री आवास को घेर ले। जेपी यहीं नहीं रुके। इसके बाद उन्होंने बड़ी चूक कर दी। जेपी ने भारतीय सेना से बग़ावत की अपील कर दी। ये आत्मघाती क़दम था। जेपी ने सेना से कहा कि वो सरकारी आदेशों को न माने। जेपी ने सेना से सरकार गिराने में मदद का आह्वान कर दिया। प्रधानमंत्री को खुफिया इनपुट मिला और देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई। 
कल्पना कीजिए अगर सेना ने बगावत कर दी होती, प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति गिरफ्तार कर लिए जाते, सुप्रीम कोर्ट पर ताले लटका दिए जाते और लाखों आम लोगों के समर्थन से कोई सैन्य अधिकारी, सैन्य तानाशाही की स्थापना कर देता तो इस देश का क्या हुआ होता। सेना सिर्फ सरकार का आदेश मानना छोड़ दे तो फिर उस देश की रक्षा संभव नहीं है। 1971 में पाकिस्तान की सेना का समर्पण करवा कर पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांटने वाली इंदिरा के सामने बदले की भावना से बौखलाया पाकिस्तान तन कर खड़ा था। और हार के ठीक चार साल बाद जब पाकिस्तान ये देखता कि भारतीय सेना ने अपनी ही सरकार के खिलाफ बग़ावत कर दी है तो क्या वो ऐसा मौका जाने देता ? 
हैरानी है कि जेपी और आपातकाल पर लिखने वाले इस महत्वपूर्ण मसले को छूते तक नहीं हैं। इस घटना का जिक्र तक नहीं करते। जबकि ये ऐसी घटना थी जिसके बाद आपातकाल के अलावा तब की सरकार के पास शायद ही कोई दूसरा रास्ता बचा हो। या तो देश को सैन्य तानाशाही के हवाले करना, या फिर चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार के रहते चुनाव में जाना। इंदिरा गांधी के पास यही दो रास्ते बचे थे। इंदिरा ने आपातकाल थोपा नहीं था। इंदिरा गांधी को आपातकाल के लिए मजबूर किया गया था। हमें जेपी की नीयत पर शक नहीं करना चाहिए लेकिन जेपी की ये भूल हमें स्वीकारनी होगी।

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