महान क्रांतिकारी भगत सिंह और उनके साथियों ने ब्रिटिश सरकार से कहा कि उनके साथ राजनीतिक बंदी जैसा ही व्यवहार किया जाए और फांसी देने की जगह गोलियों से भून दिया जाए. जबकि हिंदू राष्ट्रवादी सावरकर ने अपील की कि उन्हें छोड़ दिया जाए तो आजीवन क्रांति से किनारा कर लेंगे.
1911 में जब सावरकर को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए अंडमान के कुख्यात सेल्युलर जेल में भेजा गया था, तब सावरकर ने अपनी 50 वर्षों की सज़ा शुरू होने के कुछ महीनों के भीतर ही अंग्रेज़ों के सामने उन्हें जल्दी रिहा करने की याचिका लगायी थी. एक बार फिर 1913 में और 1921 में मुख्यभूमि में स्थानांतरित किये जाने और 1924 में अंततः क़ैदमुक्त किये जाने तक उन्होंने अंग्रेज़ों के सामने ऐसी अर्जी लगायी. उनकी याचिकाओं की मुख्य पंक्ति थी: मुझे छोड़ दें तो मैं भारत की आज़ादी की लड़ाई को छोड़ दूंगा और उपनिवेशवादी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा.
23 मार्च, 1931 को शहीद भगत सिंह और उनके दो बेहद क़रीबी साथी शहीद राजगुरु और शहीद सुखदेव को ब्रिटिश उपनिवेशवादी सरकार ने फांसी पर लटका दिया था. अपनी शहादत के वक़्त भगत सिंह महज 23 वर्ष के थे. इस तथ्य के बावजूद कि भगत सिंह के सामने उनकी पूरी ज़िंदगी पड़ी हुई थी, उन्होंने अंग्रेज़ों के सामने क्षमा-याचना करने से इनकार कर दिया, जैसा कि उनके कुछ शुभ-चिंतक और उनके परिवार के सदस्य चाहते थे. अपनी आख़िरी याचिका और वसीयतनामे में उन्होंने यह मांग की थी कि अंग्रेज़ उन पर लगाए गये इस आरोप से न मुकरें कि उन्होंने उपनिवेशवादी शासन के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ा. उनकी एक और मांग थी कि उन्हें फायरिंग स्क्वाड द्वारा सज़ा-ए-मौत दी जाए, फांसी के द्वारा नहीं. यह दस्तावेज़ भारत के बारे में उनके सपने को भी उजागर करता है, जिसमें मेहनतकश जनता अंग्रेज़ों के ही नहीं, भारतीय ‘परजीवियों’ के अत्याचारों से भी आज़ाद हो.
1911 में जब सावरकर को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए अंडमान के कुख्यात सेल्युलर जेल में भेजा गया था, तब सावरकर ने अपनी 50 वर्षों की सज़ा शुरू होने के कुछ महीनों के भीतर ही अंग्रेज़ों के सामने उन्हें जल्दी रिहा करने की याचिका लगायी थी. एक बार फिर 1913 में और 1921 में मुख्यभूमि में स्थानांतरित किये जाने और 1924 में अंततः क़ैदमुक्त किये जाने तक उन्होंने अंग्रेज़ों के सामने ऐसी अर्जी लगायी. उनकी याचिकाओं की मुख्य पंक्ति थी: मुझे छोड़ दें तो मैं भारत की आज़ादी की लड़ाई को छोड़ दूंगा और उपनिवेशवादी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा.
23 मार्च, 1931 को शहीद भगत सिंह और उनके दो बेहद क़रीबी साथी शहीद राजगुरु और शहीद सुखदेव को ब्रिटिश उपनिवेशवादी सरकार ने फांसी पर लटका दिया था. अपनी शहादत के वक़्त भगत सिंह महज 23 वर्ष के थे. इस तथ्य के बावजूद कि भगत सिंह के सामने उनकी पूरी ज़िंदगी पड़ी हुई थी, उन्होंने अंग्रेज़ों के सामने क्षमा-याचना करने से इनकार कर दिया, जैसा कि उनके कुछ शुभ-चिंतक और उनके परिवार के सदस्य चाहते थे. अपनी आख़िरी याचिका और वसीयतनामे में उन्होंने यह मांग की थी कि अंग्रेज़ उन पर लगाए गये इस आरोप से न मुकरें कि उन्होंने उपनिवेशवादी शासन के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ा. उनकी एक और मांग थी कि उन्हें फायरिंग स्क्वाड द्वारा सज़ा-ए-मौत दी जाए, फांसी के द्वारा नहीं. यह दस्तावेज़ भारत के बारे में उनके सपने को भी उजागर करता है, जिसमें मेहनतकश जनता अंग्रेज़ों के ही नहीं, भारतीय ‘परजीवियों’ के अत्याचारों से भी आज़ाद हो.