Wednesday, May 23, 2018

तब तो फिरंगी थे अब कौन हैं ?.

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  पत्रकारिता: कल आज और कल  विषय पर लिखते समय बेहद सतर्कता की ज़रूरत है। महात्मा गांधी के चम्पारण पहुंचने से पहले की एक घटना का जिक्र मैं ज़रूरी समझता हूं। शेख गुलाब, प्रजापति मिश्र और राजकुमार शुक्ल ने काफी शोध के बाद चंपारण के किसानों की दुर्दशा पर बड़ी रिपोर्ट तैयार की। रिपोर्ट तैयार होने के बाद प्रजापति मिश्र उसे लेकर पटना पहुंचे। उम्मीद थी कि पटना से छपने वाले अखबार या फिर कलकत्ता और दिल्ली से छपने वाले अखबारों में वो रिपोर्ट छपेगी।
           प्रजापति मिश्र पूरी रिपोर्ट लेकर तब के कई संपादकों और संवाददाताओं से मिले लेकिन, किसी ने वो रिपोर्ट छापने की हिम्मत नहीं दिखाई। सबको डर था कि रिपोर्ट छपने से अंग्रेज अधिकारी नाराज हो जाएंगे। बाद में वही रिपोर्ट लेकर प्रजापति मिश्र कानपुर पहुंचे और वहां गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले। गणेश शंकर विद्यार्थी तब प्रताप अखबार निकाल रहे थे। विद्यार्थी जी ने वो पूरी रिपोर्ट कई किस्तों में छापी। ये प्रकरण यहां इसलिए याद कर रहा हूं ताकि पत्रकारिता के मूल चरित्र को ठीक से समझा जा सके। 1917 में भी सरकार की नीतियों के खिलाफ खबर छापने की हिम्मत संपादक नहीं जुटा पाते थे।
        2017 में एक बार फिर ऐसे ही हालात दिख रहे हैं। तब पत्रकारिता के चरित्र को बदलने के लिए महात्मा गांधी और गणेश शंकर विद्यार्थी थे, आज वैसा कोई नहीं है, सिर्फ हम और आप हैं। महात्मा गांधी ने अखबार निकाल कर राष्ट्रीय आंदोलन में पत्रकारिता को नई दिशा दी और देखते-देखते 1920 के बाद अखबार में सरकार की ग़लत नीतियों वाली ख़बरें छपने लगीं।
  आज़ादी के बाद मीडिया का स्वरूप तेजी से बदला। आज़ाद देश में मीडिया ने भी आज़ाद मीडिया को परिभाषित किया। अमेरिका के साथ सेना के लिए हुए जीप सौदे के परतें तब की मीडिया ने उघेड़ कर रख दीं। पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को सौदे की जांच करवानी पड़ी।
      इंदिरा गांधी ने 1974 में जब मीडिया पर शिकंजा कसने की कोशिश की तो सरकारी मीडिया को छोड़कर ज्यादातर स्वतंत्र मीडिया ने इंदिरा गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। कई संपादक तो 1974 के आंदोलन की धुरी बने।
        आज हालात ऐसे नहीं हैं। आज का मीडिया मुनाफे का बड़ा बाजार है। आज का मीडिया सत्ता से शक्ति पाना चाहता है। आज का मीडिया खुद सत्ता चाहता है। आज के मीडिया मालिक सरकार से वो सबकुछ हासिल कर लेना चाहते हैं जो वो बाजार से हासिल नहीं कर सकते।
   आज के संपादक कल किस रूप में याद किए जाएंगे? वो फलां, जो फलां सरकार में बड़ी पहुंच रखते थे, जिन्होंने फलां की सरकार के वक्त काफी माल बनाया। कैसे याद किए जाएंगे आज के संपादक ? माना कि आज के तमाम संपादक सत्ता और पूंजीवाद की गोद में नहीं बैठे हैं लेकिन, ये भी मान लीजिए कि सत्ता और पूंजीवाद की गोद से बाहर के पांच संपादकों के नाम आप नहीं बता पाइएगा। मीडिया संस्थानों को सिर्फ अपने मुनाफे की फिक्र है। मालिक के मुनाफे के अंकगणित पर संपादक का मुनाफा टिका है। और इसी मुनाफे के अंकगणित ने संपादकों को बीच बाजार में ला खड़ा किया है। संपादक को बेहतर रिपोर्ट की जरूरत नहीं रह गई है, उसे बस अपने पत्रकारों से कमाई चाहिए।
  हमें एक और बात पर गौर करना होगा। क्या पत्रकार डाकिया है ? जैसे किसी ने कोई बात कही और हमने वही बात दर्शकों, पाठकों तक उसी रूप में पहुंचा दी। ये काम तो डाकिया का है। तो फिर हम किसी सूचना को कैसे लोगों तक पहुंचाएं? क्या अपने हिसाब से हम खबरों को लोगों तक पहुंचाएं ? तो फिर हम सबका जो अलग-अलग हिसाब होगा उसका हिसाब कौन रखेगा ? फिर जो हमारा अपना-अपना हिसाब होगा वो पत्रकारिता के मानकों पर खरा उतरेगा ही इसकी क्या गांरटी है ? पूंजीवाद की गुलामी ज्यादातर संपादकों ने स्वीकार कर ली है और जाति-संप्रदाय का जहर ज्यादातर पत्रकारों ने घोलना शुरू कर दिया है इस बात से किसी को इनकार है क्या ?
 कई सवाल हैं और इन्हीं सवालों में हम पत्रकारों के लिए एक महत्वपूर्ण सवाल ये है कि क्या अब हम सत्ता प्रतिष्ठानों से तमाम ज़रूरी सवाल पूछ रहे हैं। 22 जुलाई 2016 को चेन्नई से उड़ान भरने वाला भारतीय वायु सेना का विमान एन-32 सेना के 29 अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ लापता हो गया। आज तक उस विमान का सुराग नहीं लगाया जा सका है। क्या अब भी ये उम्मीद की जाए कि वायु सेना का हमारे वो 29 जाबांज आज भी सुरक्षित होंगे ? क्या मौजूदा सरकार की जगह कोई दूसरी सरकार होती तो इस मसले पर मीडिया की ऐसी चुप्पी होती ?
     दूसरे लोग चुप हैं तो हम क्यों चुप हैं ? ऐसे कई सवाल हैं, ऐसे कई मसले हैं जो मौजूदा दौर के मीडिया से जवाब मांग रहे हैं। भले ही ये पूरी तरह से सच न हो लेकिन सच के बेहद करीब है कि हम एक बार फिर 1917 वाले दौर में पहुंच गए हैं जब निलहों के अत्याचार की कहानी छापने की हिम्मत बस किसी गणेश शंकर विद्यार्थी में थी.

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

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