Wednesday, October 10, 2012

चक्रव्यूह

                            CHAKRAVYUH
बंदूक उतना बड़ा आतंक नहीं है जितना बड़ा आतंक है गरीबों को गरीब बनाए रखना, उनकी जमीन हड़प लेना, उनके अधिकार छीन लेना... चक्रव्यूह सिनेमा का ये संवाद मौजूदा व्यवस्था से उपजी समाज की तल्ख सच्चाई है.. जल.जंगल और जमीन के संघर्षों की रस्म अदायगी से दूर ये फिल्म मुश्किल में घिरे एक बड़े तबके की आवाज है... प्रकाश झा की खासियत सामाजिक जरूरतों, उसके आंतरिक द्वंद और उसके संघर्ष को साफगोई के साथ पर्दे पर उतारना है... चक्रव्यूह को सिर्फ एक नक्सली समस्या से जोड़ना एक बेहतर पटकथा के साथ नाइंसाफी होगी.. समाज, व्यवस्था और इनके ढांचे में मौजूद जंगल को महसूस करते रहना और उस जंगल के खिलाफ आवाज उठाना दोनों अलग बाते हैं.. सभ्य समाज के दायरे में कब, कहां और कैसा जंगल खड़ा हो जाय कहना मुश्किल है.... और फिर इस जंगल के अपने उसूल होते हैं... एक दांव चलता है तो दूसरा जवाबी पैंतरा... प्रकाश झा ने फिल्म की कहानी के जरिए सबकुछ महसूस करवाया है.. दरअसल प्रकाश झा जंगल और जमीन की उपज हैं... बिहार के प. चम्पारण में जन्मे प्रकाश जी ने गरीबी और गरीबी की वजहों को नजदीक से देखा है... शोषण सहते रहना जिनकी नीयति है उनको भी देखा है, महसूस किया है ... और उनको भी जिनकी पीढ़ियां शोषण के बीच मर-खप गईं... लेकिन उनको भी देखा है जो अपने पूर्वजों से अलग राह पर चले... सामंती गुमान के खिलाफ मुट्ठी तान दी.... और तनी मुट्ठी के साथ नक्सली कहलाने लगे... साहब कोई नहीं चाहता घर-बार, बाल-बच्चे छोड़कर इस जंगल में भटकना, उस जंगल में जहां जिंदगी अरना भैंसे और बाघ की लड़ाई के समान है, जिसमें भैंसे को पता तो है कि मरना उसी को है लेकिन वो बाघ से हर पल लड़ने को तैयार रहता है... जहां मौत का वासुकी फन फैलाए खड़ा फुंफकार रहा है.. जिस जंगल का एक ही नियम है, जिसने छुप कर वार किया वह चालाक निकला.... प्रकाश झा बताते हैं कि दरअसल फिल्म किसी के पक्ष में खड़ी नहीं होती.. बस सबकी बात रख देती है... फिल्म का गाना महंगाई की मार से बेहाल आम आदमी के दर्द को ही नहीं उभारता, इस महंगाई की वजहों की पड़ताल भी करता है.. उस नीतियों को भी उभारता है जो नीतियां सत्ता-सियासत ने अपनी और अपने लोगों की सुविधाओं के लिए गढ़ रखी हैं.. दिन गए, बरस गए, यातना गई नहीं, रोटियां गरीबों की सिसकियां बनी रही.. अगर आज भी यही हाल है तो आजादी के मतलब को फिर से समझने की जरूररत है... रोटी अगर आज भी एक सवाल है तो संसदीय लोकतंत्र के दायरे में विकास और उस विकास के खांचे में किसके लिए जगह है ये भी समझने की जरूररत है... चक्रव्यूह सिर्फ एक सिनेमा नहीं है.. कई रंगों के कोलाज के साथ ये भारत की सबसे बड़ी सच्चाई की चलती-फिरती तस्वीर भी है...

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि ये बजट देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने ये बात यूं ही नहीं कही है। वर्ल्ड बैंक के अ...