Tuesday, October 31, 2017

एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं सरदार पटेल और पंडित नेहरू

सरदार वल्लभ भाई पटेल और पंडित जवाहर लाल नेहरू के संबंधों को लेकर जैसी भ्रम की स्थिति पिछले पांच सालों में पैदा की गई है वैसी स्थिति पहले कभी नहीं थी। हलांकि पटेल और नेहरू के संबंधों को लेकर भ्रम पैदा करने की कोशिशें तकरीबन 50 सालों से हो रही है लेकिन पिछले पांच सालों में इस मसले में जितनी आक्रामकता देखी गई वो हैरान करने वाली है। एक माहौल गढ़ा गया है जिसमें ये साबित किया जा रहा है कि नेहरू ने सरदार पटेल को हाशिए पर धकेला या फिर पं. नेहरू ने सरदार पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। पंडित नेहरू और सरदार पटेल के संबंधों को समझने के लिए डॉ राम मनोहर लोहिया और भगत सिंह को पढ़ना बेहद ज़रूरी है। कांग्रेस में नेहरू से असहमत लोगों की कमी नहीं थी। डॉ राजेंद्र प्रसाद. संपूर्णानंद और पुरुषोत्तम दास टंडन नेहरू से ज्यादातर मौकों पर असहमत ही रहे। बावजूद इसके इन नेताओं ने कभी सार्वजनिक तौर पर नेहरू की नीतियों की आलोचना नहीं की। बाद के दिनों में नेहरू के बेहद करीबी डॉ राम मनोहर लोहिया नेहरू के धुर आलोचक हो गए। खुद लोहिया इस बात को स्वीकर करते हैं कि पंडित नेहरू की आलोचना सरदार पटेल को बर्दाश्त नहीं थी और इसी वजह से सरदार पटेल लोहिया से नाराज रहने लगे थे। लोहिया आगे लिखते हैं कि आज़ादी के बाद पंडित नेहरू के ज्यादातर सख्त फैसलों को सरदार पटेल ने बेहद सख्ती से देश पर लागू करवाया। पंडित नेहरू और सरदार पटेल के संबंधों को समझने के लिए नेहरू और सुभाष चंद्र बोष के पत्राचार को भी पढ़ा जाना चाहिए। एक-दूसरे को लिखी गई दोनों की चिट्ठियों में सरदार पटेल का जिस तरह से जिक्र आया है उससे यही लगता है कि दोनों सरदार पटेल को खास तवज्जो देते थे और दोनों की निगाहों में सरदार पटेल देश के आंतरिक मसलों के समझने वाले तब के सबसे बेहतर नेताओं में शुमार थे। इतना ही नहीं भगत सिंह की एक चिट्ठी के जवाब में पंडित नेहरू ने खुद लिखा था भगत सिंह को सरदार पटेल से मिलना चाहिए और सरदार पटेल से राष्ट्रीय आंदोलन की समझ हासिल करनी चाहिए। भगत सिंह ने खुद लिखा है कि सुभाष चंद्र बोष जुनूनी राष्ट्रवादी, सरदार पटेल समझदार राष्ट्रवादी और पंडित नेहरू अंतरराष्ट्रीय स्तर के भारतीय नेता हैं। आचार्य कृपलानी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि नेहरू के बिना सरदार पटले अधूरे होते और सरदार पटेल के बिना नेहरू अधूरे होते। आजादी के बाद संविधान निर्माण की प्रक्रिया शुरू होते ही सरदार पटेल और अंबेडकर के बीच गहरे मतभेद हो गए। सरदार पटेल किसी भी हालत में आदिवासियों को समान अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। इससे पहले पाकिस्तान बनने के बाद भारत में मुसलमानों को समान अधिकार देने का भी सरदार पटेल ने सीधा विरोध किया था। लेकिन नेहरू की एक अपील ने सरदार पटेल के विरोध को ठंडा कर दिया और बाद में सरदार पटेल ने ही दोनों मसलों पर अपनी सहमति दी। अपनी मौत से कुछ दिनों पहले ही कांग्रेस की बैठक से बाहर निकलते हुए सरदार पटेल ने कहा था कि गांधी की हत्या के बाद देश के लिए नेहरू की ज़रूरत और ज्यादा बढ़ गई है। आगे उन्होंने कहा कि देश को सांप्रदायिक हिंदूवादियों से बड़ा ख़तरा है। इस उदगार के कुछ दिनों बाद ही उनकी मौत हो गई। आज ये देख कर हैरानी हो रही है कि सांप्रदायिक हिंदूवादी लोग ही सरदार पटेल की विरासत पर दावा ठोक रहे हैं और वही लोग नेहरू-पटेल के संबंधों को लेकर भ्रम स्थापित कर रहे हैं।


Sunday, October 29, 2017

गुजरात चुनाव: भाजपा नर्वस तो कांग्रेस के पास बिना तीर का तरकश

गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले बदलती हवा ने कांग्रेस को थोड़ी राहत ज़रूर दी है। लंबे अर्से के बाद सूबे में कांग्रेस उत्साहित दिख रही है। कांग्रेस को गुजरात में थोड़ी उम्मीद नज़र आने लगी है। लेकिन क्या चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए अच्छे होंगे? ये सवाल किसी कांग्रेस नेता से भी पूछ दीजिए तो वो भरोसे से शायद ही हां कह पाए। पिछले दो दशकों में कांग्रेस ने गुजरात में ज़मीनी स्तर पर कोई बड़ा या सामूहिक आंदोलन खड़ा नहीं किया है। सदन में विपक्ष के तेवर दिखाने वाली कांग्रेस वो मुद्दे भी जनता के बीच लेकर नहीं पहुंची जिन मुद्दों को विधानसभा में उसने ज़ोर-शोर से उठाया। राज्य में दलितों पर अत्याचार की घटनाएं होती रहीं और कांग्रेस उन घटनाओं के खिलाफ दलितों को गोलबंद करने में लगातार विफल होती रही। यही वजह रही कि जिग्नेश मेवाणी जैसा युवा ज़मीन पर एक मजबूत विपक्ष के तौर पर उभरा। जिग्नेश के पास कोई संगठन नहीं था और ना ही आंदोलनों को कोई अनुभव। बावजूद इसके वो उस समाज की आवाज बनकर सामने आए जिसको इस वक्त लड़ने वाले किसी नेता की ज़रूरत थी। ये लड़ाई ज़मीन पर अगर कांग्रेस ने लड़ी होती तो फिर किसी जिग्नेश का उभार शायद इतना आसान नहीं होता जितनी आसानी से जिग्नेश का उभार हुआ। इतना ही नहीं पाटीदार आंदोलन को सियासी ताकत देने में भी कांग्रेस पिछड़ गई। बिना किसी सियासी अनुभव के हार्दिक पटेल जैसे साधारण युवा ने सरकार के खिलाफ जितना बड़ा आंदोलन  खड़ा कर दिया वो हैरान करने वाला है। लंबे राजनैतिक तजुर्बे वाली कांग्रेस ने हार्दिक से कुछ सीखने की ज़रूरत भी नहीं समझी। कांग्रेस के लिए बचे मौके को अल्पेश ठाकुर ने झपट लिया और विपक्ष की भूमिका हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश की पिछलग्गू भर होकर रह गई। कांग्रेस की सांगठनिक कमजोरी भी कांग्रेस को पीछे धकेल रही है। पार्टी के पास कोई ऐसा बड़ा चेहरा नहीं है जिसके नाम पर वो वोट मांग सके। पार्टी के पास स्टार प्रचारक के रूप में राहुल गांधी तो हैं लेकिव क्या राहुल गुजरात की राजनीति तक सीमित होंगे ? जाहिर है नहीं। तो फिर किस नेता पर भरोसा कर जनता कांग्रेस को वोट करे। दलित, मुस्लिम और पिछड़ों के नेता अगर कांग्रेस में हैं तो वो बीजेपी में भी हैं। इसलिए फिलहाल भले ही कांग्रेस बढ़त बनाती दिख रही है लेकिन सत्ता अभी भी उसके लिए दूर की कौड़ी है।
         मज़े की बात ये है कि गुजरात का ये चुनाव भाजपा के लिए भी बहुत आसान नहीं होगा। अब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं हैं और ना ही चुनाव बाद वो गुजरात का मुख्यमंत्री बनेंगे। मुख्यमंत्री विजय रुपानी न तो मोदी जैसे लोकप्रिय हैं और ना ही मोदी जैसे संगठनकर्ता। कई मौकों पर रुपानी की सरकार पर पकड़ भी बेहद ढीली दिखी है। विजय रुपानी से नितिन पटेल गुट के नेताओं की नाराजगी भी छुपी नहीं है। गुजरात दंगों के बाद राज्य में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जो छवि बनी वैसी छवि विजय रुपानी की नहीं बनी। हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकुर जैसे जुझारु युवा भले ही खुलकर कांग्रेस के साथ नहीं हों लेकिन वो खुलकर भाजपा का विरोध ज़रूर कर रहे हैं। ऊना कांड के बाद दलितों की नाराजगी से भी भाजपा को जूझना पड़ रहा है। शिक्षा के मामले में लागातार पिछड़ते जा रहे राज्य के गांवों गरीबी भी बेतहाशा बढ़ी है। बेरोजगारी से परेशान युवा मुख्यमंत्री विजय रुपानी के सरकार चलाने के तरीक़े से बेहद नाराज हैं। भाजपा के लिए सबसे बड़ा संकट व्यवसायी तबके की नाराजगी है। नोटबंदी और जीएसटी से सबसे ज्यादा नुकसान इसी वर्ग का हुआ है। और यही तमाम वजहें हैं कि भाजपा गुजरात में उस गुजरात मॉडल का जिक्र तक नहीं कर रही जिसे प्रचारित कर 2014 में उसने देश का रुख तक बदल डाला था। 20 साल से ज्यादा समय से गुजरात में शासन कर रही भाजपा अब भी वहां कांग्रेस शासनकाल को कोस रही है। पार्टी के पास 22 सालों की उपलब्धि बताने के लिए शायद कुछ है नहीं। लिहाजा भाजपा ने वहां गुजरात मॉडल को पीछे धकेल दिया और गुजराती अस्मिता, गुजरात गौरव को आगे कर दिया है। पार्टी आज भी वहां नेहरू और इंदिरा को कोस रही है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ही मुख्यमंत्रित्व काल की उपलब्धियां नहीं बता पा रहे हैं। अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी का टर्न ओवर विवाद भी भाजपा के कदम रोक रहा है। इस खुलासे के बाद पार्टी भ्रष्टाचार के मसले पर उस तरह हमलावर नहीं दिख रही है जिस तरह 2014 में दिखी थी। तो मतलब साफ है कि पार्टी गुजरात में फिलहाल नर्वस है और गुजराती अस्मिता के साथ कट्टर हिंदुत्व के आसरे चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी में दिख रही है। गुजराती अस्मिता से नरेंद्र मोदी ने खुद को जोड़ लिया है और कट्टर हिंदुत्व को हवा देने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लगातार गुजरात बुलाया जा रहा है।

    तो मतलब साफ है कि अगर कांग्रेस के लिए गुजरात की सत्ता दूर की कौड़ी है तो भाजपा के लिए भी उतनी आसान नहीं है जितनी 2012 में थी।   

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि ये बजट देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने ये बात यूं ही नहीं कही है। वर्ल्ड बैंक के अ...