देश की सबसे पुरानी सियासी पार्टी कांग्रेस अब बिहार में बैशाखी को अपना सच मान चुकी है। 1985 में बिहार में प्रचंड बहुमत वाली सरकार बनाने वाली कांग्रेस 1990 में जिस लालू प्रसाद के हाथों निपटा दी गई वही लालू प्रसाद कांग्रेस के लिए अब सहारा भी हैं और आसरा भी। पार्टी के नेताओं का आत्मविश्वास इतना कमजोर हो चुका है कि अब वो बिना सहारे चलने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे हैं। हाल ही में पटना पहुंचे कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी भक्त चरण दास ने ये ऐलानिया तौर पर कहा था कि 15 जनवरी को कृषी बिल के विरोध में कांग्रेस राजभवन करेगी और उस मार्च में सभी 19 विधायक, बिहार के सभी कांग्रेसी सांसद, पूर्व विधायक, पूर्व सांसद और बड़े नेता हर हाल में शामिल होने चाहिए। बावजूद इसके बीते शुक्रवार को कांग्रेस के राजभवन मार्च में पार्टी जितनी कमजोर दिखी उतनी इससे पहले कभी नहीं दिखी थी। प्रदेश प्रभारी के निर्देश के बावजूद 19 विधायकों में से सिर्फ 3 विधायक राजभवन मार्च में शामिल हुए। ना तो कोई सांसद पहुंचा और ना ही पूर्व विधायक। पार्टी के मौजूदा 16 विधायकों में से ज्यादातर पटना में ही मौजूद थे लेकिन पार्टी के मार्च में नहीं पहुंचे। आलम ये कि पार्टी के विधायक दल के नेता अजित शर्मा भी इस मार्च से दूर रहे। राजभवन मार्च से पहले पार्टी के प्रदेश मुख्यालय सदाकत आश्रम में जुटे कांग्रेसी कई खेमों में बंटे दिखे।
कृषी कानूनों और बढ़ती महंगाई के विरोध के नाम
पर सड़क पर उतरने के लिए कांग्रेस ने कोई जमीनी तैयारी नहीं की। ना तो इसके लिए
कांग्रेस ने किसानों के बीच कोई कार्यक्रम चलाया और ना ही आम आदमी के बीच। बस
कुर्सी पर बैठे-बैठे प्रेस रिलीज जारी होते रहे। पार्टी के प्रदेश स्तर के ज्यादातर
नेताओं ने इस मार्च से खुद को दूर रखा। एक समय था जब कांग्रेस के प्रदेश स्तर के
कार्यक्रमों में हर जिले से बड़ी संख्या में लोग पहुंचते थे और हजारों लोग सड़कों
पर दिखते थे। अब आलम ये है कि कांग्रेस तकरीबन डेढ़ सौ लोगों के साथ सड़क पर उतरी।
न तो जिलों से कार्यकर्ता आए और ना ही नेता।
स्थाई खेमेबाजों में
बदला खेमा
कयास लगाए जा रहे
हैं कि तारिक अनवर कांग्रेस के अगले प्रदेश अध्यक्ष हो सकते हैं । बिहार प्रदेश कांग्रेस
के कुछ नेता स्थाई तौर पर शक्ति के साथ खड़े रहते हैं। ये लोग जो कल तक प्रदेश
अध्यक्ष मदन मोहन झा के साथ चिपके रहते थे अब अचानक तारिक अनवर से चिपकने की
कोशिशें करते दिख रहे हैं। शुक्रवार को कांग्रेस के राजभवन मार्च के दौरान तारिक
अनवर के घेरे रही ये टोली सबको साफ दिख रही थी।
डरे नेताओं ने कमजोर
की पार्टी
1990 तक बिहार की
सबसे ताकतवर पार्टी रही कांग्रेस कमजोर क्यों हुई। जानकार बता रहे हैं कि इसकी
वजहें कांग्रेस की भीतर मौजूद हैं। जगन्नाथ मिश्रा के कार्यकाल तक पार्टी हर जगह
चुन-चुन कर नए लोगों को जोड़ती रही। नए नेतृत्व को मौका मिलता रहा। पार्टी के नेता
अपने-अपने क्षेत्र के जुझारू लोगों पर निगाह रखते थे और मौका मिलते ही उन्हें
पार्टी से जोड़ते थे। 1990 के बाद ये परिपाटी खत्म होती दिखी। पार्टी के पदों पर
बैठे नेताओं को ऊर्जावान और जुझारू नेताओं से खतरा दिखने लगा। ऐसे नेता सिर्फ अपने
चाटूकरों को पार्टी में महत्व देते दिखते हैं। सच ये है कि ऊर्जावान और जुझारू लोग
अगर कांग्रेस में शामिल होना चाहें भी तो इतने व्यवधान पैदा किए जाते हैं कि वो
लोग दूसरी पार्टियों में चले जाते हैं। इतना ही नहीं लंबे अर्से से पार्टी ने जिला
स्तर पर खुद को मजबूत करने की कोई ठोस पहल भी नहीं की। कई जिलों में तो पार्टी की
जिला इकाई ही नहीं है। यहां तक कि पार्टी के अलग-अलग प्रकोष्ठों की कई वर्षों से
कोई बैठक नहीं हुई है।