2014 के लोकसभा चुनाव प्रचारों के दौरान तब के बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान अपनी हर रैली में ये बाताया कि बचपन में गरीबी की वजह से उन्होंने गुजरात के वडनगर रेलवे स्टेशन पर चाय बेची थी। मोदी के चाय बेचने की बात ने भारत के भावुक लोगों के दिल और दिमाग दोनों को झकझोर दिया। भारत की बड़ी आबादी को मोदी भावुक करने में सफल रहे। चाय बेचने वाले इस किस्से ने देश के सबसे बड़े तबके मिडिल क्लास के सामने संघर्षों से तप कर निकले एक राजनेता को पेश किया। मंचों पर भावुक होकर चाय बेचने के किस्से सुनाने वाले नरेंद्र मोदी की आंखों में गरीबों को अपना दर्द दिखा। भारतीय मीडिया जो अक्सर तथ्यों की पड़ताल किए बगैर भावनाओं के ज्वार में बह जाता है उसने भी मोदी के चाय बेचने के किस्से को खूब भुनाया। टीवी पर कई किस्म के कार्यक्रम चलने लगे। स्क्रिप्ट राइटर से लेकर वीओ आर्टिस्ट तक, वीडियो एडिटर से लेकर एंकर तक संघर्षों के वाचक-प्रदर्शक बन गए। भावनाओं की बाढ़ में बहुत कुछ बह गया। 2014 में देश में ‘चाय वाला’ देश का प्रधानमंत्री बना तो आखिरी कतार में खड़े लोगों की आंखें चमक उठीं। लेकिन 2017 में आखिरी कतार तो भूल जाइए खुद चाय बेचने वाले भी खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं।
    अब उस खतरे को भी नजदीक से देख लीजिए। देश चलाने की जवाबदेही सरकारों की होती है लेकिन, देश कौन चलाएगा ये देश की जनता को तय करना होता है। देश कौन चलाएगा ये हंसी-मजाक और भावनाओं का विषय नहीं होना चाहिए। इस बड़ी जिम्मेदारी को बहुत ही जिम्मेदारी के साथ निभाना देश की जनता की जिम्मेदारी होनी चाहिए। कोई आपको भावनाओं के ज्वार में झोक दे तो आप देश को भाटा के थपेड़ों में मत धकेल दीजिए।
20 अगस्त 2014 को भारतीय रेलवे ने साफ कर दिया कि नरेंद्र मोदी के चाय बेचने की कोई जानकारी रेलवे को नहीं है। एक आरटीआई के जवाब में रेल मंत्रालय ने साफ किया कि मोदी के चाय बेचने संबंधी कोई दस्तावेज रिकॉर्ड में उपलब्ध नहीं हैं। गौरतलब है कि रेलवे में किसी भी तरह की वेंडरिंग के लिए वैध दस्तावेज उपलब्ध कराए जाते हैं। चाय बेचने वाले से लेकर कुली तक सिर्फ अधिकृत व्यक्ति ही रेलवे में काम कर सकते हैं। बिना संबंधित अनुमति के रेलवे में सामान बेचना अपराध की श्रेणी में आता है।
मतलब या तो तब चुनावों में फायदा उठाने के लिए नरेंद्र मोदी गढ़ी हुई कहानी सुना रहे थे या फिर बचपन में नरेंद्र मोदी ग़ैरक़ानूनी काम में लिप्त थे।
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खैर तब जो भी हुआ उसे भूलकर आगे बढ़ने का वक्त है। भारत में बढ़ती बेरोजगारी दुनिया को हैरान करने लगी है। बेरोजगार युवा खुदकुशी जैसे खतरनाक कदम उठा रहे हैं। लाखों लोगों के छोटे-मोटे कारोबार तबाह हुए हैं। CMIE और बांबे स्टॉक एक्सचेंज ने मिलकर सितंबर 2017 से लेकर दिसंबर 2017 के बीच साढ़े चार लाख लोगों के बीच सर्वे किया। ये रिपोर्ट बताती है कि रोजगार कम हो गया है। रोज काम नहीं मिल रहा है। जहां कभी महीने की पगार पर नौकरी थी वहां नौकरियां कम हो गईं हैं और लोग निकाले गए हैं। गार्ड, ड्राइवर, स्वीपर जैसी नौकरियों के भी लाले पड़ गए हैं। खुद केंद्र सरकार के अलग-अलग विभागों में खाली पड़े पदों पर नियुक्तियां नहीं हो रही हैं। हद तो ये खाली पड़े पद ही खत्म किए जा रहे हैं।
भ्रष्टाचार के मामले में भी देश की हालत पहले ज्यादा बदतर हुई है। हाल ही में ट्रांसपरेंसी इंटरनैशनल ने अपनी सर्वे रिपोर्ट में बताया है कि एशिया के देशों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार भारत में है। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दो सालों में भ्रष्ट देशों सूची में भारत पहले नंबर पर पहुंच गया है।
इतना ही नहीं, हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय संस्था ह्यूमन राइट वॉच ने वर्ल्ड रिपोर्ट 2018 जारी की है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के समर्थक हमलावर हो गए हैं और हिंसक समाज की रचना कर रहे हैं। रिपोर्ट में सरकार की कमजोरी का भी जिक्र किया गया है। बताया गया है कि नरेंद्र मोदी सरकार देश में अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमलों को रोकने में बुरी तरह से नाकाम रही है। रिपोर्ट की शुरुआत में ही बताया गया है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों, कमजोर तबकों, सरकार की आलोचना करने वालों और बीजेपी से असहमति रखने वालों को जमकर निशाना बनाया जा रहा है। रिपोर्ट बता रही है कि सरकार समर्थित समूह ही हमले कर रहे हैं और सरकार निष्पक्ष जांच करवाने में विफल साबित हो रही है। मतलब सरकार हमलावरों को बचा रही है। जबकि बीजेपी के ही कुछ नेता लगातार हिंसक समूहों को भड़काते रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में मनावाधिकारों का उल्लंघन बेहद आसानी से होने लगा है।
   ये कुछ उदाहरण भर हैं जिससे मौजूदा दौर का सच देखा-परखा जा सकता है। खुद के और आने वाली नस्लों के भविष्य को चाय-पकौड़ों की आंच पर मत सेंकिए। ये बेहद गैरज़रूरी बहस खड़ी की जा रही है। पकौड़ों का इतिहास कोई चार साल पुराना नहीं है और ना ही पिछले चार सालों से भारत में पकौड़े बेचे जा रहे हैं। अफगानों के समय से भारत में पकौड़े खाए और बेचे जा रहे हैं। और तभी से ये पसंदीदा खाद्य और इसे बेचना सम्मानित धंधा रहा है। इसलिए आप इस साजिश को समझिए। आपने सरकार को पकौड़े के लिए नहीं चुना था। आपने सरकार को भ्रष्टाचार,रोजगार, विकास जैसे मुद्दों पर चुना था। इसलिए बहस को रोजगार, भ्रष्टाचार, विकास और इस जैसे तमाम मसलों पर ही केंद्रित रखिए। आपको जो लोग पकौड़े में रोजगार की बड़ी संभावना दिखा रहे हैं उनके बच्चे पकौड़े नहीं बेचा करते। उनके बच्चों के सामने कारोबार का ‘जय शाह’ फॉर्मूला होता है।