विधायिका ने अपनी गरिमा खुद गिराई है। यूं बात-बात में विधायिका के दायरे में न्यायपालिका के डंडे का चलना उचित नहीं है। ये बेहद कमजोर विधायिका की निशानी है। लेकिन विधायिका को इसके लिए संविधान के दायरे में आना होगा। अलग-अलग राज्यों में राज्यपालों ने अक्सर विधायिका का सम्मान आहत किया है। 1990 के बाद ज्यादातर राजभवनों ने संविधान और संसदीय मर्यादा को छलनी किया है। आपको जब खुद अपने सम्मान का ख्याल नहीं होगा तो फिर दूसरे तो आपका मजाक उड़ाएंगे ही। आप खुद को जब पंचायत में लेकर चले जाएंगे तो सभा आपके दोषों के ढूंढेगी ही। देश और संविधान से अलग जब आप किसी नेता या गिरोह में आस्था रखने लगेंगे तो आदालत के डंडे आपकी पीठ पर पड़ेंगे ही। सभ्य समाज में दरवाजे पर पुलिस आने को भी अपमानजनक माना जाता है। तो फिर सभ्य राजनीति में राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक करार देना भी अपमानजनक माना जाना चाहिए। इसलिए ज़रूरी है कि राज्यपाल ऐसे फैसले ना लें जो असंवैधानिक हों और भरी पंचायत में उनके फैसले को बदलना पड़े। इसलिए ज़रूरी है कि राज्यपाल संविधान में आस्था रखते हुए काम करें न कि व्यक्ति विशेष में। इसलिए ज़रूरी है कि राज्यपाल का चयन करते वक्त लाज-शर्म का ख्याल रखा जाए। एक वक्त था जब देश के लोग राष्ट्रपति और राज्यपाल को लोकतांत्रिक गरिमा का प्रतीक समझते थे। यकीन मानिए, आज के ज्यादातर लोग इन दोनों पदों पर बैठे लोगों को रबर स्टांप मानने लगे हैं। कुछ लोग तो अब इन दोनों पदों को ही ग़ैरज़रूरी बताने लगे हैं। इसलिए ज़रूरी है कि ...सियासत में इतनी अदा रहे, आंखों में पानी रहे..लहजे में हया रहे।
Friday, May 18, 2018
Wednesday, May 16, 2018
बहुमत का छल
नदी धनौती मछरी
रेवा, खा ल ई बैकुंठ के मेवा। देशभटक पांड़े के मन में ठीक वैसी ही उथल-पुथल मची
है जैसी उथल-पुथल लंगड़ मल्लाह के कठरा में रेवा मछली करती है। धनौती से निकली रेवा
जब लंगड़ के छोटे से कठरा में आती है तो छटपटाने लगती है। अंदर ही अंदर छटपटा रहे
हैं देशभटक पांड़े। जब से कर्नाटक चुनाव का रिजल्ट आया है इनका माइंड सुन्न हो गया
है। कौन करम बाकी रह गया था चुनाव में। हद से ज्यादा नीचे गिरे, झूठ-फरेब सब किया।
बाकी रिजल्ट हो गया ले लोट्टा। बहुमत और जनमत का हिसाब लगाते-लगाते देशभटक पांड़े
का कपार दुखने लगा है। घर से निकल कर बरवा घाट पहुंचे। देशभटक पांड़े को धनौती की
दुर्दशा भी नहीं देखी जा रही। सूखी नदी में धूल उड़ रही है। कहां कभी सालों भर
कल-कल करती नदी बहती रहती थी। और कहां आज इसमें धूल उड़ रही है। अब तो मुश्किल से
तीन महीने ही पानी रहता है नदी में। बरसात के दिनों में पानी भरता है और बरसात
खत्म होने के साथ नदी सूख जाती है। कभी बैकुंठ का मेवा मिलता था इस नदी में और अब
तो पोठिया-टेंगरा भी नसीब नहीं। जो कभी मछली बेचा करते थे वो अब मजदूर हो गए और
कुछ ताड़ी बेचने लगे।
देशभटक पांड़े का मन एक बार फिर कर्नाटक पहुंच
गया। सबेरे जब शाखा में गए थे तब भी मन वहीं रमा था। समझ में ये बात नहीं आ रही है
कि बहुमत का मतलब क्या है। अब कर्नाटक का ही हिसाब लगाइए। भाजपा को मिले हैं 36
फीसदी वोट जबकि कांग्रेस को 38 फीसदी। कायदे से तो बहुमत कांग्रेस के साथ है। तो
जनमत कांग्रेस के साथ और जीत भाजपा की। तो मतलब ये कि जनतंत्र का ये ढांचा अब तक
लोगों को भ्रमित करता रहा है। ये बहुमत नहीं बहुसीट का ढांचा है। जिसके पास सीट
ज्यादा जीत उसी की।
देशभटक पांड़े को इस बात का संतोष है कि जीत भाजपा
की हुई है। लेकिन बहुमत और जनमत वाला गणित उनको परेशान कर रहा है। उनको भुटिया
पंडित जी वाली ललकार भी याद आ रही है। तिवारी टोला में एक बार भुटिया पंडित जी ने
ताल ठोक कर कहा था कि देश में सिर्फ और सिर्फ अल्पमत की सरकारें बनती रहीं हैं और
जनता को धोखा देने के लिए उसे ही बहुमत बताया जाता रहा है। बीसीयों के सामने
भुटिया पंडित जी तब ये बात साबित कर दिखाई थी और तब देशभटक पांड़े को चुप रह जाना
पड़ा था। शाखा की तमाम ट्रेनिंग धरी की धरी रह गई थी। भ्रम, अफवाह और झूठ पर टिके
रहने वाले सारे दांव उस दिन फेल हो गए थे। भुटिया पंडित जी ने जब कहा कि अच्छा
बताओ पांड़े पांच लोगों ने अगर चुनाव लड़ा और सौ लोगों ने वोट किया तो फिर बहुमत
का अंक कितना होगा। देशभटक पांड़े ने तपाक से कहा था कम से कम इक्यावन। एक पल को
लगा कि देशभटक पांड़े ने भुटिया पंडित जी को हरा दिया लेकिन, अगले ही पल पासा पलट
गया। भुटिया पंडित जी ने कहा कि पांड़े बाबा इसे अक्ल से समझो। मान लो पांच लोगों
ने चुनाव लड़ा और चुनाव में सौ लोगों ने वोट डाला। जीतने वाले को मिले 24 वोट,
दूसरे नंबर पर रहे 23 वोट पाने वाले और इसी तरह बाकी तीन को मिले 20, 18 और 15
वोट। अब 23, 20,18 और 15 को जोड़ोगे तो होते हैं 76 वोट। मतलब 76 लोग तो उस आदमी
के खिलाफ थे। अब सोचो जिसके पक्ष में मात्र 24 लोग हों और खिलाफ 76 लोग वो भला
बहुमत वाला कैसे हो सकता है।
देशभटक पांड़े को अपने संघी तर्क पर बड़ा
भरोसा रहता था। लेकिन, उस दिन उन (कु)तर्कशक्ति ने जवाब दे दिया था। आज एक बार फिर
वही स्थिति है।
दूर कहीं सूरज धनौती की गोद में समाता जा रहा
है। धनौती सूख गई है। रेवा के सपने चकनाचूर हो चुके हैं। लंगड़ मल्लाह अब बेहद
कमजोर हो गया है। बरवा घाट पर अब कोई नहीं आता। शाम होते ही यहां मरघट छा जाता है।
देशभटक पांड़े सोच रहे हैं क्या यही भारत का लोकतंत्र है।
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