Thursday, December 7, 2017

25 साल बाद भी राम आसरे ही क्यों है बीजेपी ?

25 साल बाद भी राम आसरे ही है बीजेपी। तो क्या सचमुच विकास लापता है? अयोध्या विवादित ढांचे पर भड़के उन्माद ने 6 दिसंबर 1992 को उसकी बलि ले ली और देश सांप्रदायिक उन्माद के उस खतरनाक दौर में प्रवेश कर गया जो दौर 25 साल बाद भी खत्म नहीं हो सका। लेकिन, ये घटना भर थी। इस खतरनाक दौर के बीज तो दो साल पहले ही विश्व हिन्दू परिषद ने बो दिए गए थे। 90 के दशक में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने मंडल आंदोलन की आग में सुलग रहे देश को कमंडल की उन्मादी सियासत की तरफ मोड़ दिया। आगे-आगे बीजेपी, पीछे वीएचपी और संघ। इस कमंडल आंदोलन ने बीजेपी को सत्ता की दहलीज तक पहुंचा दिया। पार्टी ने सत्ता का स्वाद तो चख लिया लेकिन राम मंदिर का नारा वक्त के साथ ठंडा पड़ता गया।
वीएचपी के राममंदिर आंदोलन में बीजेपी खुलकर कूद पड़ी और उसको इसका फायदा भी मिला। 1984 में जो बीजेपी लोकसभा में महज 2 सांसदों वाली पार्टी थी 1991 में वही पार्टी 120 सीट जीतकर देश में कांग्रेस का विकल्प बन गई। 1992 के बाद राम मंदिर आंदोलन की वजह से हुए वोटों का ध्रुवीकरण ने 1996 के आमचुनाव में बीजेपी को 161 सीटों तक पहुंचा कर तब की देश की सबसे बड़ी पार्टी बना दिया। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी ने सरकार बन गई, हालांकि 13 दिन बाद बहुमत साबित न कर पाने की वजह से अटल सरकार गिर गई।
1998 में एक बार फिर बीजेपी सत्ता की दहलीज पर पहुंची। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 182 सीट वाले एनडीए गठबंधन की सरकार बन गई। ये सरकार 13 महीने तक सत्ता में रही। तब भी राजनीति के जानकारों ने यही बताया कि बीजेपी को वीएचपी के राम मंदिर आंदोलन का फायदा मिला है।
देश की राजनीति में एक और बड़ी घटना 1984 में हुई। अक्टूबर 1984 में वीएचपी ने अयोध्या में रामजन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन किया।और फिर 8 अक्टूबर 1984 को अयोध्या से लखनऊ की 130 किलोमीटर की यात्रा शुरू हई। इसके ठीक दो साल बाद 1986 में वीएचपी ने मंदिर आंदोलन को देशव्यापी बनाना शुरू किया। देशभर में भारी सांप्रदायिक तनाव के बीच 1989 में वीएचपी ने विवादित जगह के नजदीक ही राम मंदिर की नींव रख दी। बीजेपी बस इसी मौके की ताक में थी। आनन-फानन में बीजेपी ने रांम मंदिर आंदोलन का राजनीतिकरण कर दिया। अब वीएचपी पीछे खिसकने लगी और बीजेपी इस आंदोलन का अगुआ बनकर सामने खड़ी हो गई।
1989 में ही एक और बड़ी घटना हुई। जून 1989 में बीजेपी ने पालमपुर में बाजाप्ता प्रस्ताव पारित कर खुद को राम मंदिर आंदोलन का अगुआ घोषित कर लिया। और इसी बाच तब की केंद्र की कांग्रेस सरकार से एक बड़ी सियासी चूक हो गई। तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1989 के आम चुनाव से ठीक पहले वीएचपी को मंदिर के लिए अयोध्या में 9 नवंबर को शिलान्यास की इजाजत दे दी। इसे वीएचपी और बीजेपी की बड़ी जीत के तौर पर देखा गया और फिर देश ने सांप्रदायिक दंगों का सबसे खौफनाक मंजर देखा।महज दो दिनों, 22 से 24 नवंबर 1989 के बीच देश के हिंदी पट्टी में हुए दंगों में 800 से ज्यादा लोगों की जान चली गई। और देश में हुए आम चुनाव में बीजेपी को 88 सीटें मिल गईं। बीजेपी के समर्थन से वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। और इस तरह राम मंदिर आंदोलन की कमान पूरी तरह से बीजेपी के हाथ आ गई।
केंद्र में बीजेपी के समर्थन वाली सरकार बनते ही सितंबर 1990 में बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने मंदिर आंदोलन के समर्थन में रथयात्रा शुरू की। इसी के साथ इसी साल वीएचपी और साथी संगठनों ने अयोध्या में शिला पूजन, राम ज्योति यात्रा जैसे कार्यक्रमों के जरिए माहौल को गरम कर दिया।
राम मंदिर आदोलन की आग के बीच वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कर अचानक बीजेपी को सकते में डाल दिया। नतीजा ये हुआ कि बीजेपी ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। कांग्रेस ने झट से चंद्रशेखर को समर्थन दिया और केंद्र में चंद्रशेखर के नेतृत्व में सरकार बन गई। इसके बाद चंद्रशेखर ने बातचीत से मसला सुलझाने की कोशिशें शुरू कीं लेकिन, वीएचपी के अड़ियल रवैये से बात नहीं बन पाई।
फिर तो 1992 में वो घटना ही गई जिसने दुनिया भर में भारत की छवि को दागदार कर दिया। अयोध्या का विवादित ढांचा गिरा दिया गया। और फिर इसके बाद बीजेपी वो ताकत बनकर उभरी जो ताकत देश की राजनीति को अपने इशारों पर नचाने लगी।
2014 के लोकसभा से चुनाव से पहले बीजेपी, आरएसएस और वीएचपी के वो कुनबे फिर बेहद सक्रिय हुए जो राम मंदिर अलाप के एक्सपर्ट माने जाते हैं। 2014 में बीजेपी प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में आई। 2017 में यूपी विधानसभा चुनावों से पहले बाजाप्ता राम मंदिर बनाने की तारीखों का ऐलान किया जाने लगा और 2019 के लिए माहौल गढ़ा जाना लगा है। गुजरात चुनाव में अब विकास लापता है और राम मंदिर के आसरे चुनावी माहौल गढ़ा जा रहा है। 90 के दशक की इन तमाम घटनाओं का असर 25 साल बाद आज भी देश की राजनीति पर साफ देखा जा रहा है।
सच ये है कि पिछले 25 सालों में कमंडल की राजनीति ने देश की पूरी राजनीतिक परंपरा को उलट कर रख दिया। सत्ता के तमाम समीकरण अब सांप्रदायिक एजेंडे तय करने लगे हैं। सदन में बदन पर भगवा लहराने लगा है।

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