Friday, November 15, 2019

कामरेड के हाथ में भगवा झंडा


तो मुख्तसर बात ये कि चिनगारी जी चिंतित हैं। चिनगारी जी जब चिंतित होते हैं तब अपने मुंह में चिनगारी सुलगा लेते हैं। मतलब वो सिगरेट पीते नहीं हैं फूंकते हैं। तो चिनगारी जी चिंतित हैं और सिगरेट फूंक रहे हैं। चिनगारी जी बिना फिल्टर वाली सिगरेट पीते हैं। वजह एक कि वो सस्ती होती है और वजह दो कि बीड़ी की गंध उन्हें पसंद नहीं।
   बेतिया के मीना बाजार में कम्यूनिस्ट पार्टी के दफ्तर के सामने लहराते लाल झंडे को देखकर चिनगारी जी का दिल बैठा जाता है। लाल झंडा चिनगारी को कब पसंद आने लगा उनको नहीं पता लेकिन लाल झंडा उनकी ज़िंदगी का हिस्सा है। लाल को बिछाया, लाल को ओढ़ा और लाल के साथ ही पलते-बढ़ते चिनगारी जी कब 50 साल पार गए पता ही नहीं चला। आज उसी लाल झंडे की लालिमा मद्धिम पड़ गई है। उदास रंग, उदास ढंग, बेरंग।
      चिनगारी जी ने वो दिन भी देखे हैं जब गांव-गांव लाल परचमम लहराया करता था। चनपटिया और सुगौली सीट पर तो कम्यूनिस्ट पार्टी के सामने लोग चुनाव लड़ने से भी डरते थे। 1977 का समाजवादी तूफान रहा हो या फिर 1992 की सांप्रदायिक आग, पार्टी के झंडे का चटख लाल रंग कायम रहा था। लेकिन आज! आज चिनगारी जी चिंतित हैं। झंडे का रंग उड़ चुका है। गांव-गांव झंडा उठाकर चलने वाला काडर आज भी है, आज भी उसके हाथ में झंडा है लेकिन, झंडे का रंग बदल गया है। आज भी वो मजदूर है लेकिन अब वो मजदूरों के हक की बात नहीं करता। आज भी वो किसान है लेकिन अब वो किसानों की समस्याओं की बात नहीं करता। अब वो दूसरी बात करता है। अब वो संघर्ष की बात नहीं करता, अब वो क्रांति को फिजूल की बात कहने लगा है। अब वो नफरत की बात करने लगा है। अब वो हिंसा की बात करने लगा है। अब वो दंगे-फसाद की बात करने लगा है। चिनगारी जी ने 30 सालों में धीरे-धीरे लाल रंग को रंग खोते हुए देखा है।

        चिनगारी जी चिनगारी क्यों हैं इसके पीछे एक छोटी सी घटना है। दरअसल मीना बाजार में कम्यूनिस्ट पार्टी का जो तीन मंजिला दफ्तर है पहले वो फूस की मामूली झोपड़ी में हुआ करता था। चिनगारी जी तब छोटे थे। उसी दफ्तर में खाना बन रहा था, चिनगारी जी खेल रहे थे। खेलते-खलते चिनगारी जी ने चूल्हे की चिनगारी लकड़ी से उछाल दी और झोपड़ी में आग गई। कहते हैं उसी घटना के बाद उनका नाम चिनगारी पड़ गया। खैर उसके बाद रिक्शा-तांगा, ठेला चलाने वाले मजदूरों के सहयोग से एक-एक ईंट जोड़ी गई तब जाकर ये दफ्तर बन पाया था।

      वो पूरा दौर देखा था चिनगारी जी ने। कैसे सकलदेव बाबू, भोला मियां जैसे लोग रोज़ चंदे का डब्बा लेकर घूमते थे और फिर चवन्नी-अठन्नी इकट्ठा कर शाम को पहुंचते थे। सकलदेव बाबू अपना सारा काम खुद करते थे। कपड़े धोना, बर्तन धोना, अपना खाना बनाना वगैरह। एक ही कमरे में रहना-खाना, पढ़ना-लिखना, लोगों से मिलना-जुलना और फिर पार्टी का दफ्तर चलाना। देर रात तक पढ़ते थे सकलदेव बाबू। किताब को पढ़ते-पढ़ते डायरी में कुछ लिखते रहते थे वो। चिनगारी जी को यही बात आज तक समझ में नहीं आई कि जो बात किताब में लिखी दी गई है वही बात फिर डायरी में क्यों लिखते थे कामरेड सेकरेटरी सकलदेव बाबू। लेकिन समझें कैसे, पढ़ाई की होती तो शायद समझ पाते। कामरेड सेकरेटरी ने बहुत कोशिश की थी चिनगारी जी को पढ़ाने की। लेकिन चिनगारी जी ने ना पढ़ने की जो जी-तोड़ कोशिश की उसके सामने कामरेड सेकरेटरी की कोशिशें छोटी पड़ गईं।
    चिनगारी जी ने जब से दुनिया देखी है तब से मीना बाजार का या दफ्तर देखा है, तब से ही लाल झंडा देख रहे हैं। सकलदेव बाबू ने हर बार समझाया कि किरांती मत बोला करो क्रांति बोलो लेकिन, चिनगारी जी किरांती से मोहब्बत करते थे। गरीबों, मजदूरों, मजलूमों, किसानों, छात्रों की किरांती। उनको पूरा विश्वास है कि किरांती से ही एक दिन पूंजीवाद का नाश होगा और रोटी-रोजगार के लिए भटकती भीड़ को उसका हिस्सा मिलेगा। लेकिन किरांती करेगा कौन?  जो किंराती की ज़मीन तैयार कर रहे थे वो सब तो चले गए और जो तैयार ज़मीन पर बोई फसल काटने वाले हैं उनसे किरांती होगी नहीं। वो मजदूरों की हालत पर भाषण तो घंटों दे सकते हैं लेकिन ना तो वो मजदूरों का मर्म जानते हैं और ना ही मजदूर उनके भाषणों का मतलब समझ पाते हैं। वो किसानों की बदहाली के लिए व्यव्स्था की नीतियों को तो खूब कोस सकते हैं लेकिन ना तो वो किसानों का दर्द महसूस कर सकते हैं और ना ही किसान उनकी दलीलों को समझ पाते हैं। गरीबों पर दिया गया उनका भाषण गरीबों तक पहुंचता नहीं और अगर पहुंच गया तो बुर्जुआ और सर्वहारा जैसे शब्दों का मतलब गरीब समझ ही नहीं पाते। और अव्वल तो ये कि चिनगारी जी भी खुद ये नहीं समझ पा रहे हैं कि ये कौन से कम्यूनिस्ट हैं और किस कैपिटलिस्ट का विरोध कर रहे हैं। आज वाले डिस्टिक सेकरेटरी तो रिक्शा-तांगा वालों से बात तक नहीं करते। किसान-गाड़ीवान से मिलते तक नहीं ये कामरेड। सकलदेव बाबू को किसान, गाड़ीवान, कोचवान, पल्लेदार सब पहचानते थे। सबके थे सकलदेव बाबू। इनको तो गांव से आया पार्टी का कोई काडर भी ना पहचाने। सकलदेव बाबू खेत-खलिहान की बोली बोलते थे और ये एसी वाली ठंडी सांस लेते हैं। किरांती की आग को एसी की ठंडी हवा ने ही तो बुझाई है। 
      चिनगारी जी ने फिर मुंह में चिनगारी फूंकी, लाल झंडे की तरफ देखा और सेकरेटरी साहब के कमरे में दाखिल हुए। दीवार पर टंगे बोर्ड पर चस्पा पुराने अखबार की कटिंग भी बदरंग होते जा रहे हैं। 1934 के भूकंप पीड़ितों की तीमारदारी करते कम्यूनिस्ट कामरेडों की तस्वीरें अब रंग खो चुकी हैं। 1974 के बाढ़ पीड़ितों को रसद पहुंचाते कामरेडों की तस्वीरें अब मिट जाना चाहती हैं। 1974 की तस्वीर, 1974 की बाढ़ और 1974 में आए चिनगारी जी। उसी बाढ़ में पता नहीं कहां किसी कामरेड को मिल गए थे ढाई-तीन साल के चिनगारी जी। अखबार में इश्तेहार छपे, लाउड स्पीकर पर ऐलान हुआ, जिला प्रशासन ने सरकारी भवनों पर पोस्टर लगवाए लेकिन चिनगारी जी को लेने कोई नहीं आया। तब से इसी लाल झंडे के नीचे, फूस वाले दफ्तर में पले-बढ़े चिनगारी जी। चिनगारी जी की आंखों से आंसू झर रहे हैं। आंखों के सामने एक धुंधली सी तस्वीर तैर रही है। तस्वीर! कामरेड के हाथ में दंगाई झंडा लहरा रहा है।

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