Saturday, November 18, 2017

फिल्म पद्मावती को देखिए वरना अतिवादी संगठनों की ताकत बढ़ती जाएगी

सेंसर बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन ने पद्मावती फिल्म को फिलहाल लौटा दिया है। बताया जा रहा है कि निर्माताओं को फिल्म लौटाने की वजह टेक्निकल बताई गई है। ये बात भी साफ नहीं है कि सेंसर बोर्ड ने टेक्निकल वजहें क्या बताईं हैं। लेकिन, हाल के दिनों में फिल्म को लेकर जिस किस्म का बखेड़ा किया गया वो संस्थागत मूल्यों के लिए किसी ख़तरे से कम नहीं है। पद्मावती एक फिल्म है, ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। ये सब जानते हैं कि अकबर को जानने-समझने के लिए इतिहास पढ़ना होता है न कि लोग मुग़ले आज़म फिल्म के जरिए अकबर का मूल्यांकन करते हैं।
जाहिर है फिल्म सिर्फ फिल्म है और इतिहास पूरा इतिहास है। इससे पहले फिल्म रामलीला को लेकर भी करणी सेना इसी किस्म के बवाल खड़े कर चुकी है। इन घटनाओं के बाद ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या भारत में सेंसर बोर्ड से पहले निजी सेनाओं से फिल्मों के सर्टिफिकेट लेने होंगे क्या ? अगर निजी सेनाएं संस्थागत काम करने लगेंगी तो फिर बाकी संस्थाओं की ज़रूरत ही क्यों ? इसी के साथ ये सवाल भी उठाए जाने चाहिए कि क्या जाति आधारित संगठनों की पसंद से फिल्में बनाई जाएं? क्या जाति आधारित संगठनों से पूछ कर अब इतिहास बदले जाएं ? करणी सेना ने जिस तरह का माहौल गढ़ा है उससे यही लगता है कि भारत में महज एक जाति ही बहादुर थी और बाकी तमाम जातियों का इतिहास कायरता से अटा पड़ा है। भारत को अरब के हमलों से लंबे अर्से तक बचाए रखने वाला गुर्जर प्रतिहार वंश कायर था क्या ? गुलाम वंश के इतिहास को भी कायरता के पन्नों में समेट दिया जाए क्या ? सिर्फ राजपूत-क्षत्रीय शासक ही बहादुर थे ते क्या सिख धर्मगुरु गुरु गोविंद सिंह बहादुर नहीं थे ? नागवंशियों की शौर्यगाथाओं को देश भुला दे क्या ? करणी सेना के जरिए खड़ा किए गए विवाद को जिस तरह से कई नेताओं, यहां तक की सांसदों का समर्थन मिला वो हैरान करने वाला है। करणी सेना से पूछा जाना चाहिए कि अगर राजपूत-क्षत्रीय ही बहादुर थे तो फिर महर्षि परशुराम क्या थे ? शास्त्रों के मुताबिक महर्षि परशुराम ने 21 बार क्षत्रीयों को युद्ध में मात दी थी। महाभारत, रामायण, भागवत पुराण और कल्कि पुराण को झुठला कर करणी सेना को सच का प्रतीक मान लिया जाए क्या ? क्या नहीं पूछा जाना चाहिए कि जब आप इतने बहादुर ही थे तो फिर सात समंदर से पार आए मुग़लों ने पूरे देश पर कब्जा कैसे कर लिया? एक अफगान सैनिक शेर शाह सूरी ने पूरे देश पर कब्जा कर लिया तब आपकी बहादुरी कहां थी ? क्या ये नहीं पूछा जाना चाहिए कि तब आपकी बहादुर कहां थी जब बिजनेस करने आई ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश को गुलाम बना लिया ? ये तमाम सवाल उठने लगेंगे। देश में किसी को भी क्षत्रीय समुदाय की बहादुरी पर शक नहीं है। महाराणा प्रताप से लेकर वीर कुंअर सिंह के किस्से आज भी सुनाए-दोहराए जाते हैं। लेकिन ये भी सच है कि किसी भी जाति-सामुदाय के तमाम लोगों ने इतिहास नहीं रचा है। क्षत्रीय-राजपूत में भी कुछ गिने-चुने नाम ही इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं जिन्होंने अपने शौर्य से इतिहास में जगह बनाई है। इसी जाति से जुड़ी बाकी की बड़ी आबादी तब भी सामान्य जिंदगी ही जी रही थी। हमें ये याद रखना होगा कि हमारे इतिहास ने जातियों की शौर्यगाथाएं नहीं रची हैं। 1769 में अविभाजित बंगाल में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर चुआड़ आंदोलन खड़ा करने वाले रघुनाथ महतो आदिवासी थे। इतना ही नहीं इस आंदोलन में शामिल तमाम लोग आदिवासी ही थे। तो क्या इस आंदोलन के नायक बहादुर नहीं थे ? जाहिर है चुआड़ आंदोलनकारियों का इतिहास भी शौर्य की गाथा ही है। 1855 में अंग्रेजों के खिलाफ हुल आंदोलन खड़ा करने वाले दो भाई सिद्धो और कान्हो भी आदिवासी ही थे। 1894 में अंग्रेजों के खिलाफ उलगुलान आंदोलन करने वाले भी आदिवासी ही थे। उलगुलान के महानायक बिरसा मुंडा को आदिवासी समाज में भगवान का दर्जा हासिल है।
दरअसल सच ये है कि जाति के खांचे में बंटे भारतीय समाज में तमाम जातियों का इतिहास गौरव गाथाओं से अटा पड़ा है। ब्राह्मण चाणक्य से दलित बाबा साहब अंबेडकर तक का इतिहास विद्वता से भरा पड़ा है। जाहिर है न तो शौर्य किसी एक जाति का गुलाम रहा है और ना ही विद्वता किसी एक जाति का चाकर रही है।
और ये भी सच है कि न तो उलगुलान एक आंदोलन फिल्म देखने भर से हम बिरसा मुंडा का इतिहास जान पाएंगे और ना ही पद्मावती फिल्म देख कर कोई पद्मावती का इतिहास जान पाएगा। करणी सेना को चाहिए कि वो लोगों को पद्मावती का इतिहास पढ़ने के लिए प्रेरित करे। किसी फिल्म का विरोध करने से कोई समुदाय इतिहास का जानकार नहीं हो जाएगा। हमें इस खतरे को समझना होगा कि अगर इस किस्म की निजी सेनाएं सिर उठाने लगेंगी और सिस्टम उनके सामने झुकता जाएगा तो फिर संस्थाओं का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। ऐसे में ये ज़रूरी है कि जब पूरा देश पद्मावती फिल्म पर उठे विवाद को देख रहा है तो सेंसर बोर्ड की तरफ से भी देश को ये बताया जाना चाहिए कि उसने फिल्म को किस वजह से लौटाया। इस फिल्म को लेकर सेंसर बोर्ड की तरफ से स्थिति स्पष्ट नहीं किए जाने पर लोगों के मन में संदेह पैदा होंगे ही। इससे संस्था का भरोसा खतरे में पड़ेगा। बेहतर होगा फिल्म को कला के नजरिए से देखा जाए किसी विचाराधारा या फिर जातीय अस्मिता के खांचे में डाले बगैर।

Thursday, November 16, 2017

‘श्री’मुख से समाधान का संकट: अयोध्या विवाद एक नए मोड़ पर



अयोध्या विवादित ढांचे के मसले को जितनी बार सुलझाने की कोशिशें हुईं उसकी उलझनें उतनी ही बढती गईं। सड़क से लेकर संसद तक, पंचायत से लेकर कोर्ट रूम तक लगातार उलझते इस विवाद को सियासत ने खूब हवा दी और राम के नाम की सियासत ने कइयों का बेड़ा पार लगा दिया। अब जबकि ये तय है कि सुप्रीम कोर्ट से इस मसले पर आखिरी फैसला जल्दी ही आने वाला है जाहिर है कोर्ट के बाहर शुरू की गई किसी भी कवायद को कोई बहुत तवज्जो शायद ही दे। अचानक इस मसले में श्री श्री रविशंकर का नाम मध्यस्थ के तौर पर उभरने के मायने-मतलब भी लोग खंगालने लगे हैं। श्री श्री कभी भी इस मसले से जुड़े नहीं रहे और ना ही वो अयोध्या विवाद को कम करने की किसी कोशिश में कभी शामिल रहे। जाहिर है श्री श्री की मौजूदा कवायदों के मतलब समझने होंगे।  क्या श्री श्री के आसरे कोर्ट से बाहर इस मसले को सुलझाने की ईमानदार कोशिश हो रही है या इस कवायद के पीछे मकसद कुछ और है? क्या पिछले कुछ दिनों से बियाबान में रह रहे श्री श्री को मुख्यधारा में वापस लाने की तैयारी चल रही है ? क्या योग व्यवसायी रामदेव के बरक्स किसी दूसरे बाबा को खड़ा करने की कवायद भर हो रही है या फिर अयोध्या के मसले को कोई नया मोड़ देने की सियासत हो रही है ?
    श्री श्री लगातार संतों-महंतों से मिल रहे हैं। उनकी कई लोगों से मुलाकातों के बाद जो बात सामने आ रही है वो निराशाजनक है। अयोध्या विवाद की जगह एक नया विवाद खड़ा होता दिख रहा है। और वो विवाद है अयोध्या मसले में श्री श्री की भूमिका को लेकर। मंदिर आंदोलन के ज्यादातर नेता श्री श्री के दखल से ही नाखुश हैं। मंदिर आंदोलन से जुड़े नेताओं को लग रहा है कि हाड़-मांस गलाए उन लोगों ने और श्री श्री  क्रेडिट लेने पहुंच गए। राम जन्मभूमि ट्रस्ट के सदस्य रामविलास वेदांती ने तो ये तक कह दिया है कि वो राम मंदिर आंदोलन में 25 बार जेल गए, 35 बार नजरबंद हुए, पुलिस की लाठियां खाईं श्री श्री ने क्या किया। श्री श्री की पहल से महंत नृत्य गोपाल दास भी खफा हैं।
   1984 में शुरू हुए मंदिर आंदोलन से जुड़े संतों ने सिर्फ श्री श्री से किनारा ही नहीं किया है बल्कि श्री श्री की पहल पर नाराजगी भी जता दी है। दिगंबर अखाड़ा के महंत सुरेश दास ने भी श्री श्री के अयोध्या आने पर खुशी नहीं जताई। उन्होंने तो ये तक कह दिया कि कौन रविशंकर, अयोध्या का हल अयोध्यावासी करेंगे।

  श्री श्री के सामने चुनौतियां बनकर खड़े लोगों में सिर्फ संत-महात्मा ही नहीं हैं। श्री श्री के सामने बीजेपी सांसद और राम मंदिर आंदोलन के नेता विनय कटियार भी चुनौती बनकर खड़े हैं। अयोध्या विनय कटियार के संसदीय क्षेत्र फैज़ाबाद में ही है। विनय कटियार की नाराजगी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मंगलवार को उनके संसदीय क्षेत्र के अयोध्या में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कार्यक्रम था और वो कार्यक्रम में शामिल तक नहीं हुए। इतना ही नहीं उन्होंने तो बाजाप्ता ये तक कह दिया है कि श्री श्री की सारी कसरत बेकार है।
   श्री श्री रविशंकर की पहल के बाद जिन लोगों में उम्मीद जगी थी उनमें से ज्यादातर लोगों का मानना है कि श्री श्री की पहचान एक ऐसे संत के रूप में है जिसने कभी सांप्रदायिक उन्माद की बात नहीं की। श्री श्री की इस छवि से इतर ये जान लेना भी ज़रूरी है कि अबतक तकरीबन 10 बार इस मसले को अलग-अलग तरीके से सुलझाने की कोशिशें हो चुकी हैं और सारी कोशिशें बेकार साबित हुई हैं। 1859 में पहली कोशिश अंग्रेजी हुकूमत ने की लेकिन वो कोशिश बहुत सफल नहीं रही। अंग्रेजों ने तब विवादित स्थल को दो हिस्सों में बांट कर एक हिस्से में पूजा और दूसरे हिस्से में नमाज की व्यवस्था दी थी। दूसरी कोशिश 1990 में तब के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने की लेकिन विश्व हिंदू परिषद के नेताओं से उनकी बात नहीं बनी और मामला जस का तस रह गया। 16 दिसंबर 1992 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने लिब्राहन आयोग का गठन किया। 2009 में आयोग ने रिपोर्ट सौंप दी, लेकिन उस रिपोर्ट को कभी भी देश के सामने नहीं रखा गया और नरसिम्हा राव की कोशिशें भी बेकार गईं। प्रधानमंत्री रहते हुए अटल बिहारी बाजपेयी ने 2002 में बाजाप्ता पीएमओ में अयोध्या सेल का गठन ही कर दिया था, लेकिन इस सेल ने कुछ खास किया ही नहीं। इसके बाद बड़ी पहल इलाहाबाद हाई कोर्ट ने की। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 26 जुलाई 2010 को सभी पक्षों से अपील की कि वो आपसी सहमति से कोई रास्ता निकालें और कोर्ट को बताएं। कोर्ट की ये पहल भी बेनतीजा रही। इस मामले में महत्वपूर्ण मोड़ 2015 में आया। तब 24 फरवरी को बाबरी मस्जिद के पक्षकार हाशिम अंसारी अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास से मिलने पहुंचे थे। दोनों की मुलाकातों में सुलह का फॉर्मूला भी सामने आया था, लेकिन तब एक बार फिर विवाद के पक्षधरों ने ये बात आगे नहीं बढ़ने दी थी। इसके ठीक बाद 10 अप्रैल 2015 को हिंदू महासभा के स्वामी चक्रपाणि और मुस्लिम पक्षकार हाशिम अंसारी के बीच मीटिंग हुई, लेकिन ये भी बेनतीजा रही। बाद में अखाड़ा परिषद के महंत ने हाशिम अंसारी से मुलकात की और सुलह की पेशकश की। ये पेशकश आगे बढ़ती इससे पहले हाशिम अंसारी की मौत हो गई। हाशिम अंसारी की मौत पर अखाड़ा परिषद के संतों को रोते हुए सबने देखा। इस मामले में इस साल की कबसे बड़ी पहल सुप्रीम कोर्ट ने की। बीते 21 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने फिर सभी पक्षों को सुझाव दिया कि वो कोर्ट के बाहर सुलह का कोई रास्ता तलाशें। कोर्ट ने कहा कि सभी पक्ष मिलकर समाधान तक पहुंच सकते हैं।

   अब तक की तमाम कोशिशों के नतीजे ये बताते हैं कि कोर्ट के बाहर रास्ता तलाशना मुश्किल ही नहीं असंभव सा है। बावजूद इसके अगर ये पहल साफ नीयत से की गई है तो इसका स्वागत होना चाहिए और अगर इस पहल  के पीछे कोई छुपा एजेंडा है तो ये धार्मिक भावनाओं के साथ-साथ राम भक्तों के साथ धोखा है। 

Wednesday, November 15, 2017

बाबा जी: उस छोर से बुलावा था मिट्टी के गर्भ का

कह गए वो अबकी बार लौटा तो लिपटी परछाइयां होंगी।
ओस से नहाई रात में किसी नीली सतह पर चाह का आकाश लिए खो गए

मैं था, न था, तुम नहीं-तुम नहीं उपक्रम और व्यतिक्रम का अनभूला दर्द देकर
थोड़े से शब्दों में, टपकती बूंदों में, चिटके सपनों में कहीं खो गए

थके पंख जब, सिद्ध वेदना हुई, अतृप्त ज्वार संग चले गए
धुंधले संकेत दिए, गहराइयों की ओर चले, उस छोर से बुलावा था मिट्टी के गर्भ का।

प्रश्न सारे खो गए अक्षर सारे सो गए शून्य और अशून्य में छाया का दाग है
अनथही गहराइयां, सूना कैनवास है, दूरी के पास से चक्रव्यूह रच गए।

कोई दूसरा नहीं,वाजश्रवा के बहाने आत्मजयी की आवाजें उजास में कहीं खो गईं।
हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,दीवारें सुनती रहीं
शीघ्र थक जाती देह की तृप्ति में,आत्मा व्योम की ओर उठती रही
कविता की ज़रूरत को यकीनों की जल्दबाज़ी से एक यात्रा के दौरान ही अगली यात्रा रच गए

लापता का हुलिया बता, प्यार की भाषाएं गढ़, भूली जिंदगी जीते हुए
सृजन के क्षण को अधूरा छोड़ चले गए

एक अजीब दिन में, सवेरे-सेवेरे, किसी पवित्र इच्छा की घड़ी में चले गए।
इतना कुछ था दुनिया में और जीवन बीत गया।
सूर्य से सूर्य तक प्राण से प्राण तक चुपचाप अर्पित हो गया दिगंत प्रतीक्षाओं तक
परिवार से, स्वीकार से ले ली विदाई फिर एक बार जीने की खातिर अनंत के विस्तार से।

Note: बाबा जी स्व. तारकेश्वर नाथ तिवारी जी के लिए

Tuesday, November 14, 2017

भूख से मौत एक ऐसा अपराध जिसके लिए कोई सज़ा नहीं

अयोध्या में मंदिर से जोड़कर कोई बयान दे देने भर से कई सारे ज़रूरी मसले किनारे लगा दिए जाते हैं। रविवार को उत्तर प्रदेश के देवरिया में भूख से एक ही परिवार के दो बच्चों की मौत की ख़बर वो जगह नहीं बना पाई जो उसे जगह बनानी चाहिए थी। अक्टूबर में झारखंड के सिमडेगा जिले में 11 साल के एक बच्चे की भूख से मौत की खबर के ठीक दो दिनों बाद सूबे में दो और लोगों की भूख से मौत की खबर आई। भूख से मौत की खबर पूरी पड़ताल की दरकार रखती है। हम सिर्फ आंकड़ों के मकड़जाल में उलझ कर रह जा रहे हैं। जो सत्ता में होता है विपक्ष उस पर सवाल खड़े करता है। जबकि सच ये है कि सवाल खड़े करने वाले जब सत्ता में रहे होते हैं तब भी भूख से मौतें हुई रहती हैं। जाहिर है ज़रूरत पूरी पड़ताल की है और सतही बातों से ऊपर उठकर इस मसले की गहराई नापनी होगी।
   ग्लोबल हंगर इडेक्स बताता है कि भारत में तकरीबन 20 करोड़ लोग रोज़ाना भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। इस मामले में नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों की हालत भारत से बेहतर है। तो फिर बहसों की धार इस तरफ क्यों नहीं मोड़ी जाती। ग्लोबल हंगर इडेक्स के मुताबिक भारत में आबादी के छठे हिस्से के पास खाने का गंभीर संकट है। 5 साल से कम उम्र के 31 फीसदी बच्चे अंडरवेट हैं और 2 साल से कम उम्र में ही 58 फीसदी बच्चों की ग्रोथ रुक जाती है। ये रिपोर्ट जिस हल्के तरीके से ली गई वो हैरान करने वाली है। इस रिपोर्ट में साफ जिक्र है कि भारत में कुपोषण और भूख की वजह से रोज़ाना 5 हजार 13 बच्चे मर जाते हैं। मौक के आंकड़े कभी बड़ी बहस का मुद्दा नहीं बनते। दुनियाभर में 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौत में 24 फीसदी बच्चे भारत के होते हैं। दुनिया भर में पैदा होने के कुछ घंटों बाद मरने वाले कुल बच्चों में 30 फीसदी बच्चे भारत के होते हैं। अब आप तय करें कि अबतक आपने जिन मसलों पर सरकारें चुनी हैं वो मसले ज्यादा ज़रूरी थे या फिर भूख का मुद्दा ज्यादा ज़रूरी था।
      यहां ये भी जान लेना ज़रूरी है कि भारत में खाने-पीने के संसाधनों की उपलब्धता कितनी है। दरअसल बढ़ती आबादी के मुकाबले हम उत्पादन बढ़ाने में सफल नहीं रहे हैं। इसके साथ ही भंडारण और परिवहन की भ्रष्ट और अराजक व्यवस्था से हमारे उत्पादन का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है। आंकलन के मुताबिक 40 फीसदी फल और सब्जियां खराब सप्लाई चेन की वजह से बर्बाद हो जाते हैं। यही हाल अनाजों का भी है। सप्लाई चेन में गड़बड़ी की वजह से 20 फीसदी अनाज बर्बाद हो जाता है।   
  ये सब उस देश में होता है जिस देश में 18 लाख से ज्यादा बच्चे अपना पांचवा साल देख तक नहीं पाते हैं। तीसरे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे में भी बताया गया था कि भारत में पचास फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। दुनिया भर में भुखमरी से जूझ रही 92.5 करोड़ आबादी में 45.6 करोड़ लोग तो सिर्फ भारत में हैं। संयुक्त राष्ट्र सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य के सम्मेलन में जो आंकड़े पेश किए गए उससे हमसब का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। 1996 में विश्व खाद्यान्न सम्मेलन में वहां जुटे तमाम देशों के प्रतिनिधियों ने ये प्रण लिया था कि 2015 तक भूखों की संख्या आधी कर लेंगे। लेकिन भारत में भूखों की तादाद बढ़ती गई। खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक भारत में रोज़ाना 24 हजार नए लोग भुखमरी और कुपोषण की भीड़ में शामिल हो रहे हैं।
     भारत में अनाज की उपलब्धता बढ़ाने के साथ उसके सही रख-रखाव पर ध्यान दिए बिना भुखमरी से जूझना संभव नहीं है। 2011-12 में भारत में प्रति व्यक्ति रोज़ाना 230 ग्राम चावल की उपलब्धता थी जो 2016-17 में 225 ग्राम रह गई है। यही हाल गेहूं का भी है। 2011-12 में प्रति जहां प्रति व्यक्ति रोज़ाना 207 ग्राम गेहूं उपलब्ध था वो अब घटकर 201 ग्राम रह गया है। ऐसा इसलिए नहीं है कि अनाज की उत्पादन कम हुआ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आबादी बहुत तेज़ी से बढ़ी है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अनाज भंडारण में कुव्यवस्था के ज़रिए कुछ लोगों की बड़ी भ्रष्ट कमाई होती है।

   तो मतलब साफ है कि भूख से मौत के मसले पर हमारा समाज, हमारी सत्ता व्यवस्था की गंभीरता उतनी नहीं दिखती जितनी राजनीति के ज़रिए खड़े किए गए धार्मिक-सांप्रदायिक मसलों पर दिखती है। भूख से मौत मानवता के खिलाफ एक ऐसा अपराध है जिसके लिए किसी को कोई सज़ा नहीं होती। और हमारी पूरी व्यवस्था इसी का फायदा उठाती रही है। 

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि ये बजट देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने ये बात यूं ही नहीं कही है। वर्ल्ड बैंक के अ...