श्री श्री लगातार संतों-महंतों से
मिल रहे हैं। उनकी कई लोगों से मुलाकातों के बाद जो बात सामने आ रही है वो
निराशाजनक है। अयोध्या विवाद की जगह एक नया विवाद खड़ा होता दिख रहा है। और वो
विवाद है अयोध्या मसले में श्री श्री की भूमिका को लेकर। मंदिर आंदोलन के ज्यादातर
नेता श्री श्री के दखल से ही नाखुश हैं। मंदिर आंदोलन से जुड़े नेताओं को लग रहा
है कि हाड़-मांस गलाए उन लोगों ने और श्री श्री क्रेडिट लेने पहुंच गए। राम जन्मभूमि ट्रस्ट के
सदस्य रामविलास वेदांती ने तो ये तक कह दिया है कि वो राम मंदिर आंदोलन में 25 बार
जेल गए, 35 बार नजरबंद हुए, पुलिस की लाठियां खाईं श्री श्री ने क्या किया। श्री
श्री की पहल से महंत नृत्य गोपाल दास भी खफा हैं।
1984 में शुरू हुए मंदिर आंदोलन से
जुड़े संतों ने सिर्फ श्री श्री से किनारा ही नहीं किया है बल्कि श्री श्री की पहल
पर नाराजगी भी जता दी है। दिगंबर अखाड़ा के महंत सुरेश दास ने भी श्री श्री के
अयोध्या आने पर खुशी नहीं जताई। उन्होंने तो ये तक कह दिया कि कौन रविशंकर,
अयोध्या का हल अयोध्यावासी करेंगे।
श्री श्री के सामने चुनौतियां बनकर
खड़े लोगों में सिर्फ संत-महात्मा ही नहीं हैं। श्री श्री के सामने बीजेपी सांसद
और राम मंदिर आंदोलन के नेता विनय कटियार भी चुनौती बनकर खड़े हैं। अयोध्या विनय
कटियार के संसदीय क्षेत्र फैज़ाबाद में ही है। विनय कटियार की नाराजगी का अंदाजा
इसी से लगाया जा सकता है कि मंगलवार को उनके संसदीय क्षेत्र के अयोध्या में
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कार्यक्रम था और वो कार्यक्रम में शामिल तक नहीं
हुए। इतना ही नहीं उन्होंने तो बाजाप्ता ये तक कह दिया है कि श्री श्री की सारी
कसरत बेकार है।
श्री श्री रविशंकर की पहल के बाद
जिन लोगों में उम्मीद जगी थी उनमें से ज्यादातर लोगों का मानना है कि श्री श्री की
पहचान एक ऐसे संत के रूप में है जिसने कभी सांप्रदायिक उन्माद की बात नहीं की। श्री
श्री की इस छवि से इतर ये जान लेना भी ज़रूरी है कि अबतक तकरीबन 10 बार इस मसले को
अलग-अलग तरीके से सुलझाने की कोशिशें हो चुकी हैं और सारी कोशिशें बेकार साबित हुई
हैं। 1859 में पहली कोशिश अंग्रेजी हुकूमत ने की लेकिन वो कोशिश बहुत सफल नहीं
रही। अंग्रेजों ने तब विवादित स्थल को दो हिस्सों में बांट कर एक हिस्से में पूजा
और दूसरे हिस्से में नमाज की व्यवस्था दी थी। दूसरी कोशिश 1990 में तब के
प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने की लेकिन विश्व हिंदू परिषद के नेताओं से उनकी बात नहीं
बनी और मामला जस का तस रह गया। 16 दिसंबर 1992 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी
नरसिम्हा राव ने लिब्राहन आयोग का गठन किया। 2009 में आयोग ने रिपोर्ट सौंप दी,
लेकिन उस रिपोर्ट को कभी भी देश के सामने नहीं रखा गया और नरसिम्हा राव की कोशिशें
भी बेकार गईं। प्रधानमंत्री रहते हुए अटल बिहारी बाजपेयी ने 2002 में बाजाप्ता पीएमओ
में अयोध्या सेल का गठन ही कर दिया था, लेकिन इस सेल ने कुछ खास किया ही नहीं।
इसके बाद बड़ी पहल इलाहाबाद हाई कोर्ट ने की। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 26 जुलाई 2010
को सभी पक्षों से अपील की कि वो आपसी सहमति से कोई रास्ता निकालें और कोर्ट को
बताएं। कोर्ट की ये पहल भी बेनतीजा रही। इस मामले में महत्वपूर्ण मोड़ 2015 में आया।
तब 24 फरवरी को बाबरी मस्जिद के पक्षकार हाशिम अंसारी अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष
महंत ज्ञानदास से मिलने पहुंचे थे। दोनों की मुलाकातों में सुलह का फॉर्मूला भी
सामने आया था, लेकिन तब एक बार फिर विवाद के पक्षधरों ने ये बात आगे नहीं बढ़ने दी
थी। इसके ठीक बाद 10 अप्रैल 2015 को हिंदू महासभा के स्वामी चक्रपाणि और मुस्लिम
पक्षकार हाशिम अंसारी के बीच मीटिंग हुई, लेकिन ये भी बेनतीजा रही। बाद में अखाड़ा
परिषद के महंत ने हाशिम अंसारी से मुलकात की और सुलह की पेशकश की। ये पेशकश आगे
बढ़ती इससे पहले हाशिम अंसारी की मौत हो गई। हाशिम अंसारी की मौत पर अखाड़ा परिषद
के संतों को रोते हुए सबने देखा। इस मामले में इस साल की कबसे बड़ी पहल सुप्रीम
कोर्ट ने की। बीते 21 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने फिर सभी पक्षों को सुझाव दिया कि
वो कोर्ट के बाहर सुलह का कोई रास्ता तलाशें। कोर्ट ने कहा कि सभी पक्ष मिलकर
समाधान तक पहुंच सकते हैं।
अब तक की तमाम कोशिशों के नतीजे ये
बताते हैं कि कोर्ट के बाहर रास्ता तलाशना मुश्किल ही नहीं असंभव सा है। बावजूद
इसके अगर ये पहल साफ नीयत से की गई है तो इसका स्वागत होना चाहिए और अगर इस
पहल के पीछे कोई छुपा एजेंडा है तो ये
धार्मिक भावनाओं के साथ-साथ राम भक्तों के साथ धोखा है।
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