Sunday, February 10, 2019

मेरे पास बाबूजी की सीख है

मेरा ये दृढ़ विश्वास है कि मेरे बाबूजी स्व.श्यामाकांत तिवारी समाजवादी विचारधारा के बेहद करीब थे। 1989-90 में जब देश मंडल और कमंडल आंदोलनों के जरिए जातीय और सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में था मैं देखता था कि मेरे घर तमाम जाति-धर्म के लोग आते थे और मेरे बाबूजी उनके साथ अलग-अलग गांवों में जाकर एकता-अखंडता की कवायद में जुटे रहते थे। हलांकि तब मेरी उम्र 8-9 साल की थी और मेरे लिए तब समाजवाद या फिर दक्षिणपंथ को समझना बेहद मुश्किल था। लेकिन 1992 में जब बाबरी कांड हुआ या फिर 90 के दशक में बिहार में जब नरसंहारों का सिलसिला शुरू हुआ तब बाबूजी की बढ़ी गतिविधियों के बीच उनसे और उनके सहयोगी-मित्रों से वामपंथ, दक्षिणपंथ और समाजवाद पर थोड़ी समझ विकसित होने लगी। बाबूजी अक्सर डॉक्टर राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और आचार्य नरेंद्र देव के विचारों की चर्चा करते रहते थे। वो चंद्रशेखर और जॉर्ज फर्नांडिस के करीबी थे, उनके ज्यादातर कार्यक्रमों में शामिल होते थे। उन्हीं की वजह से बेहद कम उम्र में मैं चंद्रशेखर और जॉर्ज फर्नांडिस से मिल सका था। 


जब में नौवीं में था तब मैने जयप्रकाश नारायण की लिखी मेरी विचार यात्रा पढ़ी। ये किताब दो भागों में है। तब शायद मैं उसे ठीक से समझ नहीं पाया था इसलिए बारहवीं की परीक्षा खत्म होने के बाद मैंने वो दोनों किताबें दोबारा पढ़ीं। जेपी की लिखी ये किताबें समाजवादी विचारधारा की एक पूरी यात्रा हैं। हलांकि बाद के दिनों में जब आपातकाल की परिस्थितियों को समझने के लिए पढ़ना शुरू किया तो जेपी के प्रति आस्था का भाव खत्म सा होता गया। बावजूद इसके मैं मानता हूं कि समाजवादी सोच के जरिए ही भारतीय समाज को बनाए-बचाए रखा जा सकता है।
समाजवाद को परिभाषित करना मेरे लिए मुश्किल काम है। फिर भी मैं इतना तो मानता ही हूं कि ये सिद्धांत और आंदोलन, दोनों ही है और यह विभिन्न ऐतिहासिक और स्थानीय परिस्थितियों में विभिन्न रूप धारण करता है। मूलत: यह वह आंदोलन है जो उत्पादन के मुख्य साधनों के सामाजीकरण पर आधारित वर्गविहीन समाज स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है और जो मजदूर वर्ग को इसका मुख्य आधार बनाता है, क्योंकि वह इस वर्ग को शोषित वर्ग मानता है जिसका ऐतिहासिक कार्य वर्गव्यवस्था का अंत करना है।
अब भारत के परिपेक्ष्य में इस विचारधारा की एक मूल बात पर आइए। सामाजीकरण पर आधारित वर्गविहीन समाज स्थापित करना प्राचीन भारतीय दर्शन है। दुर्भाग्य से अपने देश में समाजवादी आंदोलनों से खड़े हुए नेताओं ने ही वर्ग और वर्ण व्यवस्था को मजबूती देने का काम किया और जातीय विद्वेश को खाद-पानी उपलब्ध करवाया।
समाजवादी विचारक तो व्यक्तिवाद और प्रतिस्पर्द्धा की जगह आपसी सहयोग पर आधारित समाज की कल्पना करते थे। उन्हें विश्वास था कि मानवीय स्वभाव और समाज का विज्ञान गढ़ कर सामाजिक ताने-बाने को बेहतर रूप दिया जा सकता है। परंतु भारत में समाजवाद सत्ता हासिल करने का जरिया बना और इसके लिए जाति आधारित राजनीतिक व्यवस्था खड़ी की गई। इस राजनीतिक व्यवस्था की काट के तौर पर जो राजनीति सामने आई वो सांप्रदायिक है। दक्षिणपंथी विचारधारा ने जातिवादी संकट से जूझने के लिए ज्यादा खतरनाक तरीके अपनाए और सांप्रदायिक सोच को हिंसक तरीके से समाज के बीच स्थापित किया। दुष्परिणाम ये हुआ कि आज जब हमें मानवीय विकास के अलग-अलग आयामों पर विमर्श करना चाहिए तब हम हिंदू-मुस्लिम और दलित-ठाकुर वाले उस विमर्श में उलझे हैं जो विमर्श हजारों साल पहले दकियानूस समाज को गढ़ रहे थे। मनवीय जीवन के सुधार की तमाम बहसें खत्म कर दी गई हैं, तमाम संभावनाओं को धकेल कर समाज को हजारों साल पीछे धकेला जा रहा है और दुर्भाग्य ये कि दक्षिमपंथियों के साथ-साथ इस काम में कथित समाजवादी भी लगे हुए हैं। इस दौर में मुझे अपने बाबूजी अच्छे लगते हैं। वो इस दुनिया में भले नहीं हैं लेकिन जाने से पहले उन्होंने मुझे ये तो बता ही दिया कि जाति-धर्म की सोच से ज्यादा बड़ी है समानता की सोच, ज्यादा अच्छा है एक-दूसरे को गले लगाना।

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि ये बजट देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने ये बात यूं ही नहीं कही है। वर्ल्ड बैंक के अ...