Tuesday, December 26, 2017

लालू-जगन्नाथ के बहाने एक बार फिर आग लगाने की साजिश

जलता समाज टूटते देश की गवाही है। चारा घोटाले के दूसरे मुकदमे में भी राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को सज़ा होने के बाद बिहारी समाज में आग लगाने की ख़तरनारक कोशिशें तेज हो गई हैं। राजनैतिक बयानों और सोशल मीडिया के जरिए एक बार बिहार में अगड़ा-पिछड़ा संघर्ष का माहौल गढ़ा जा रहा है। लालू प्रसाद को दोषी पाए जाने और डॉ जगन्नाथ मिश्र को बरी किए जाने के अदालती आदेश को जातीय खांचे में धकेलने की होड़ सी मच गई है। जबकि सच्चाई ये है कि कोर्ट ने जयनारायण निषाद को भी बरी किया है जो पिछड़ा वर्ग से आते हैं और लालू प्रसाद के साथ कई सवर्णों को दोषी करार दिया है। बावजूद इसके इस मामले को सिर्फ लालू-जगन्नाथ से जोड़ कर आगे किया जा रहा है।
राजनीति की ये कुटिल चाल राजनेता कम चल रहे हैं कुटिल इंटलेक्चुअल तबका ज्यादा चल रहा है। सोशल मीडिया पर ऐक्टिव ये तबका बिहार में जातीय संघर्ष के लिए बेचैन दिख रहा है। ये तबका ये नहीं लिख रहा कि कोर्ट ने जयनरायण निषाद समेत पिछड़े वर्ग के कई आरोपियों बरी किया है। ये तबका सिर्फ ये बताने-जताने में लगा है कि लालू प्रसाद पिछड़ी जाति से हैं इसलिए उनको दोषी करार दिया गया और जगन्नाथ मिश्र सवर्ण हैं इसलिए वो बरी कर दिए गए। जबकि सच ये है कि लालू प्रसाद समेत जिन 16 लोगों को दोषी पाया गया है उनमें आधे से ज्यादा अगड़ी जाति से हैं।
क्यों जात-पात की आग लगाने की बेचैनी है?
70 के दशक में बिहार में जातीवादी राजनीति ने जातीय संघर्ष की बुनियाद रखी। 80 के दशक में ये संघर्ष विस्तार पाने लगा और नब्बे के दशक ने इसका सबसे खतरनाक रूप देखा। इस राजनीति का सबसे बड़ा फायदा उनको मिला जिन्होंने कभी राजनीति की ही नहीं। सीधे जात के नाम पर वोट मांगा और सत्ता हथिया ली। दूसरा लाभ उस तबके को मिला जो समाज में जातिवाद की जड़ें गहरी करने का काम करता रहा और सत्ता से उसकी मोटी कीमत वसूलता रहा। तीसरा फायदा ये हुआ कि जाति की राजनीति करने वालों को समाज-राज्य के प्रति जिम्मेदार होने की जहमत नहीं उठानी पड़ी। ना तो बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल, सड़क जैसे मसलों में उलझना पड़ा। वो बस ये बता कर चुनाव जीतते रहे कि वो अमुक जाति के बड़े नेता हैं और जाति के लोगों को तो अपनी जाति के नेता को ही वोट करना चाहिए।
 ख़तरा क्यों है ?
बिहार में नीतीश के शासन काल की तमाम कमियां गिनाई जा सकती हैं लेकिन, इस बात की तारीफ ज़रूर होनी चाहिए कि नीतीश ने बिहार में वर्ग संघर्ष पर काबू पाया। बिहार में जातीय संघर्षों का इतिहास बेहद रक्तरंजित रहा है। फिर वही माहौल गढ़ा गया तो हालात बेकाबू हो जाएंगे।
1977 में बिहार की राजधानी पटना जिले के बेलछी गांव में पिछड़ी जाति के दबंगों ने 14 दलितों को जिंदा जला दिया था।
1996 में भोजपुर के बथानी टोला में दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जाति के 22 लोगों की हत्या की गई।
1997: 30 नवंबर की रात को लक्ष्मणपुर बाथे में 58 दलितों की हत्या की गई।
1999: 25 जनवरी की रात को जहानाबाद के शंकर बिगहा में 22 दलितों की हत्या की गई।
1999 में ही 18 मार्च को जहानाबाद के सेनारी में 34 भूमिहारों की हत्या की गई।
इसके बीद फिर 16 जून 2000 की रात मियांपुर नरसंहार सामने आया। 35 लोगों की हत्या की गई।
बिहार को जातीय संघर्ष की आग में झोंकने की कोशिश करने वाले इतिहास के खूनी पन्नों से वाकिफ हैं। लेकिन ये वही लोग हैं जो बेगुनाहों के कत्ल से सत्ता सीढ़ियां चढ़ते रहे हैं। खून का स्वाद चख चुके ये लोग नरभक्षी हो चुके हैं और इनकी सत्ता की भूख एक बार फिर बिहार को नरसंहारों वाले दौर में पहुंचा सकती है। ये बिहारी समाज को तय करना है कि उसे अमन-चैन चाहिए या फिर सेनारी-मियांपुर ?

Monday, December 25, 2017

विकास पगलाया तो आपकी ज़मीन हड़प ली जाएगी !

झारखंड के जंगलों में कोयल कूकती भर नहीं है अपनी कलकल धाराओं के साथ बहती भी है। कोयल जब बहती है तो रांची के पठारों से लेकर हजारीबाग की जमीन को सींचती सोन तक किसानों और आदिवासियों को जीवन देती जाती है। इसी उत्तरी कोयल से जुड़ी है कुटकू परियोजना। इसे उत्तरी कोयल जलाशय परियोजना कहते हैं। 1970 में कुटकू मंडल परियोजना की परिकल्पना सामने आई थी। 1990 में इसके लिए ज़मीन अधिग्रहण की शुरुआत कर दी गई। लेकिन इससे प्रभावित किसानों-आदिवासियों के  पुनर्वास की समस्या विकराल होती दिखी तो तब सरकार ने परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसके बाद सीधे अगस्त 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने इस परियोजना को पूरी करने के लिए 1622.27 करोड़ रुपये की मंजूरी दे दी।
    सरकार ने मंजूरी से पहले इस योजना के इतिहास को कितना जाना-समझा ये सरकार जाने। लेकिन इस परियोजना की शुरुआत जान-माल के बड़े नुकसान से हुई थी। परियोजना की वजह से 1997 में पलामू टाइगर रिज़र्व क्षेत्र में भीषण बाढ़ आई थी। इस बाढ़ में पलामू और डालटेनगंज के जंगलों में रहने वाले जानवरों की बड़ी तादाद में मौत हुई ही इसी के साथ 19 आदमी भी बह गए जिनके शव तक नहीं मिले। नतीजा ये हुआ कि घटना से गुस्साए ग्रामीणों ने बांध के इंजीनियर बैजनाथ मिश्रा पर हमला कर दिया। इस हमले में बैजनाथ मिश्र की मौत हो गई।

    इस घटना के बाद परियोजना से प्रभावित होने वाले गांव के लोग परियोजना के खिलाफ हो गए। 1980 के बाद तो ग्रामीणों का गुस्सा इस कदर भड़का कि कुटकू परियोजना से जुड़े अधिकारी दफ्तर छोड़ कर भाग गए। 1994 आते-आते वहां परियोजना का कोई नामलेवा नहीं बचा।
   अब, जबकि परियोजना को नए सिरे से जिंदा करने करने की कोशिशें हो रहीं हैं एक बार फिर 15 गांवों के लोगों की नींद उचट गई है। ये वो गांव हैं जो परियोजना की वजह से डूब क्षेत्र में आ गए हैं। पुनर्वास की नीति से झारखंड परिचित है। लोगों को कई जगहों पर बसाया जाता है। नई जगह पर वहां के पुराने समाज से समायोजन में मुश्किलें आती हैं। इलाके के पुराने लोग इन्हें अपना नहीं मानते। लिहाजा दूसरी जगह पर बसे लोग कमजोर होते जाते हैं और पीढ़ियों से उस जगह पर बसे लोगों के शोषण का शिकार होते हैं।

बांध के खिलाफ क्यों भड़क सकता है गुस्सा ?
दरअसल झारखंड के इस इलाके में ग़ैरमजरुआ जमीन पर खेती होती है। आदि काल से आदिवासी जंगलों में रहते आए हैं । पहले आदिवासियों को ये मालूम तक नहीं था कि ज़मीन की रजिस्ट्री की कोई व्यवस्था है। ऐसे में जंगल में रहने वाले यो लोग जंगल को ही अपनी दुनिया समझते रहे और जंगल में ही खेती-बाड़ी करते रहे। वैसी ज़मीन जो किसी नाम रजिस्ट्री नहीं है उसे ही गैरमजरुआ ज़मीन कहते हैं। जब यहां को लोगों को यहां से विस्थापित किया जाएगा तो फिर उन्हें दूसरी जगह गैरमजरुआ ज़मीन नहीं मिलेगी। जाहिर है खेती करने वाली ये आबादी मजदूर बना दी जाएगी। परियोजना के विरोध की दूसरी वजह परियोजना से होने वाला फायदा भी है। इस परियोजना से पलामू को विस्थापन और बाढ़ के अलावा कुछ नहीं मिलना है। परियोजना का पानी बिहार के औरंगाबाद को मिलेगा और परियोजना से तबाही झारखंड के पलामू में मचेगी। जाहिर है ये सच अब सबके सामने आ चुका है और परियोजना के खिलाफ पलामू में गोलबंदी होने लगी है। इस परियोजना से पलामू टाइगर रिजर्व बुरी तरहसे प्रभावित हो सकता है। बरसात  दिनों में जंगलों में पानी भरेगा तो जंगली जानवर जान बचाने के सिए आसापास की इंसानी बस्तियों का रुख करेंगे। ऐसे में जानवरों और इंसानों के बीच संघर्ष बढ़ेगा और बड़ी तादाद में जानवार मारे जाएंगे।
  
परियोजना के विरोध की वजहों में एक बड़ी वजह ये है कि आम धारणा बन गई है कि सरकार तमाम सरकारी ज़मीन बड़े उद्योगपतियों को देने का काम रही है। हाल ही छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट में संशोधन का विरोध देखा जा चुका है। आलम ये हुआ कि आदिवासियों का गुस्सा देख कर राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने रघुवर दास सरकार के उस संशोधन विधेयक को वापस कर दिया।

   झारखंड में ज़मीन अधिग्रहण त्रासदी की अतंहीन कहानी है। हाल ही में एनटीपीसी के खिलाफ वहां बड़ा आंदोलन हो चुका है। किसानों का आरोप है कि सरकार किसानों से बातचीत किए बगैर जबरिया ज़मीन अधिग्रहित कर रही है और निजी हाथों को सौंप रही है।
   सालों पहले जिनको विस्थापित किया गया अभी तक उन लोगों को पुनर्वासित नहीं किया जा सका है। हेवी इंजीनयरिंग कॉर्पोरेशन की वजह से विस्थापित आज भी पुनर्वास की लड़ाई लड़ रहे हैं। झारखंड का शायद ही कोई ऐसा जिला हो जहां बड़े पैमाने पर विस्थापन नहीं हुआ हो। हर बार किसानों को ही विकास की कीमत चुकानी पड़ी है। अपना सबकुछ गंवा चुकी 2 करोड़ 93 लाख लोगों की ये भीड़ अब मजदूर बन चुकी है और आज भी पुनर्वास की लड़ाई लड़ रही है। अब एक बार फिर कुटकू परियोजना के लिए किसानों को उनकी ज़मीन से बेदखल करने की योजना बन चुकी है।

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि ये बजट देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने ये बात यूं ही नहीं कही है। वर्ल्ड बैंक के अ...