Monday, December 25, 2017

विकास पगलाया तो आपकी ज़मीन हड़प ली जाएगी !

झारखंड के जंगलों में कोयल कूकती भर नहीं है अपनी कलकल धाराओं के साथ बहती भी है। कोयल जब बहती है तो रांची के पठारों से लेकर हजारीबाग की जमीन को सींचती सोन तक किसानों और आदिवासियों को जीवन देती जाती है। इसी उत्तरी कोयल से जुड़ी है कुटकू परियोजना। इसे उत्तरी कोयल जलाशय परियोजना कहते हैं। 1970 में कुटकू मंडल परियोजना की परिकल्पना सामने आई थी। 1990 में इसके लिए ज़मीन अधिग्रहण की शुरुआत कर दी गई। लेकिन इससे प्रभावित किसानों-आदिवासियों के  पुनर्वास की समस्या विकराल होती दिखी तो तब सरकार ने परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसके बाद सीधे अगस्त 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने इस परियोजना को पूरी करने के लिए 1622.27 करोड़ रुपये की मंजूरी दे दी।
    सरकार ने मंजूरी से पहले इस योजना के इतिहास को कितना जाना-समझा ये सरकार जाने। लेकिन इस परियोजना की शुरुआत जान-माल के बड़े नुकसान से हुई थी। परियोजना की वजह से 1997 में पलामू टाइगर रिज़र्व क्षेत्र में भीषण बाढ़ आई थी। इस बाढ़ में पलामू और डालटेनगंज के जंगलों में रहने वाले जानवरों की बड़ी तादाद में मौत हुई ही इसी के साथ 19 आदमी भी बह गए जिनके शव तक नहीं मिले। नतीजा ये हुआ कि घटना से गुस्साए ग्रामीणों ने बांध के इंजीनियर बैजनाथ मिश्रा पर हमला कर दिया। इस हमले में बैजनाथ मिश्र की मौत हो गई।

    इस घटना के बाद परियोजना से प्रभावित होने वाले गांव के लोग परियोजना के खिलाफ हो गए। 1980 के बाद तो ग्रामीणों का गुस्सा इस कदर भड़का कि कुटकू परियोजना से जुड़े अधिकारी दफ्तर छोड़ कर भाग गए। 1994 आते-आते वहां परियोजना का कोई नामलेवा नहीं बचा।
   अब, जबकि परियोजना को नए सिरे से जिंदा करने करने की कोशिशें हो रहीं हैं एक बार फिर 15 गांवों के लोगों की नींद उचट गई है। ये वो गांव हैं जो परियोजना की वजह से डूब क्षेत्र में आ गए हैं। पुनर्वास की नीति से झारखंड परिचित है। लोगों को कई जगहों पर बसाया जाता है। नई जगह पर वहां के पुराने समाज से समायोजन में मुश्किलें आती हैं। इलाके के पुराने लोग इन्हें अपना नहीं मानते। लिहाजा दूसरी जगह पर बसे लोग कमजोर होते जाते हैं और पीढ़ियों से उस जगह पर बसे लोगों के शोषण का शिकार होते हैं।

बांध के खिलाफ क्यों भड़क सकता है गुस्सा ?
दरअसल झारखंड के इस इलाके में ग़ैरमजरुआ जमीन पर खेती होती है। आदि काल से आदिवासी जंगलों में रहते आए हैं । पहले आदिवासियों को ये मालूम तक नहीं था कि ज़मीन की रजिस्ट्री की कोई व्यवस्था है। ऐसे में जंगल में रहने वाले यो लोग जंगल को ही अपनी दुनिया समझते रहे और जंगल में ही खेती-बाड़ी करते रहे। वैसी ज़मीन जो किसी नाम रजिस्ट्री नहीं है उसे ही गैरमजरुआ ज़मीन कहते हैं। जब यहां को लोगों को यहां से विस्थापित किया जाएगा तो फिर उन्हें दूसरी जगह गैरमजरुआ ज़मीन नहीं मिलेगी। जाहिर है खेती करने वाली ये आबादी मजदूर बना दी जाएगी। परियोजना के विरोध की दूसरी वजह परियोजना से होने वाला फायदा भी है। इस परियोजना से पलामू को विस्थापन और बाढ़ के अलावा कुछ नहीं मिलना है। परियोजना का पानी बिहार के औरंगाबाद को मिलेगा और परियोजना से तबाही झारखंड के पलामू में मचेगी। जाहिर है ये सच अब सबके सामने आ चुका है और परियोजना के खिलाफ पलामू में गोलबंदी होने लगी है। इस परियोजना से पलामू टाइगर रिजर्व बुरी तरहसे प्रभावित हो सकता है। बरसात  दिनों में जंगलों में पानी भरेगा तो जंगली जानवर जान बचाने के सिए आसापास की इंसानी बस्तियों का रुख करेंगे। ऐसे में जानवरों और इंसानों के बीच संघर्ष बढ़ेगा और बड़ी तादाद में जानवार मारे जाएंगे।
  
परियोजना के विरोध की वजहों में एक बड़ी वजह ये है कि आम धारणा बन गई है कि सरकार तमाम सरकारी ज़मीन बड़े उद्योगपतियों को देने का काम रही है। हाल ही छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट में संशोधन का विरोध देखा जा चुका है। आलम ये हुआ कि आदिवासियों का गुस्सा देख कर राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने रघुवर दास सरकार के उस संशोधन विधेयक को वापस कर दिया।

   झारखंड में ज़मीन अधिग्रहण त्रासदी की अतंहीन कहानी है। हाल ही में एनटीपीसी के खिलाफ वहां बड़ा आंदोलन हो चुका है। किसानों का आरोप है कि सरकार किसानों से बातचीत किए बगैर जबरिया ज़मीन अधिग्रहित कर रही है और निजी हाथों को सौंप रही है।
   सालों पहले जिनको विस्थापित किया गया अभी तक उन लोगों को पुनर्वासित नहीं किया जा सका है। हेवी इंजीनयरिंग कॉर्पोरेशन की वजह से विस्थापित आज भी पुनर्वास की लड़ाई लड़ रहे हैं। झारखंड का शायद ही कोई ऐसा जिला हो जहां बड़े पैमाने पर विस्थापन नहीं हुआ हो। हर बार किसानों को ही विकास की कीमत चुकानी पड़ी है। अपना सबकुछ गंवा चुकी 2 करोड़ 93 लाख लोगों की ये भीड़ अब मजदूर बन चुकी है और आज भी पुनर्वास की लड़ाई लड़ रही है। अब एक बार फिर कुटकू परियोजना के लिए किसानों को उनकी ज़मीन से बेदखल करने की योजना बन चुकी है।

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