Friday, January 29, 2021

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि ये बजट देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने ये बात यूं ही नहीं कही है। वर्ल्ड बैंक के अनुमानों के मुताबिक इस वित्तीय वर्ष में देश की अर्थव्यवस्था माइनस 9.6 से नीचे रह सकती है। मूडीज के अनुमानों के मुताबिक तो इस वित्तीय वर्ष में देश की अर्थव्यवस्था माइनस 10.6 फीसदी से नीचे रह सकती है। 2020 के पहली तिमाही में ग्रोथ रेट माइनस के गर्त में डूबकर माइनस 23.9 फीसदी पर पहुंचा और दूसरी तिमाही में फिर माइनस 7.5 की गिरावट ने अर्थव्यवस्था को उस अंधेरी सुरंग में पहुंचा दिया जिसमें रौशनी के लिए कोई छेद ही नहीं है। देश का अगला बजट इसी सुरंग में तैयार होना है इसीलिए प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि ये बेहद अहम होगा। 

    राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी NSO ने 2020-21 के लिए जो एडवांस एस्टिमेट जारी किया है उसके मुताबिक देश के सभी सेक्टर की ग्रोथ रिपोर्ट निगेटिव में पहुंच गई है। सिर्फ कृषि ऐसा सेक्टर रहा जिसने अपने दम पर देश की अर्थव्यवस्था को कंगाल होने से बचा लिया। आगे भी किसानी ही देश के बचाती दिख रही है। 

   NSO का एडवांस एस्टिमेट बता रहा है कि नए वित्तीय वर्ष में मैनुफैक्चिरिंग सेक्टर भारी गिरावट के संकट से जूझेगा। मैनुफैक्चरिंग सेक्टर का आकार कम से कम 9.4 फीसदी घटेगा। कंस्ट्रक्शन सेक्टर में तो भारी तबाही का अनुमान है। कंस्ट्रक्शन सेक्टर का आकार छोटा होगा और कम से कम 12.6 फीसदी छोटा होगा। ट्रेड, होटल, कम्यूनिकोश्न और ट्रांसपोर्ट सेक्टर अब तक के सबसे बुरे दौर में पहुंच सकते हैं। इनमें 21 फीसदी के डाउन साइजिंग का अनुमान है। 

    देश की आर्थिक गतविधियां इतनी सुस्त इससे पहले कभी नहीं रहीं जितनी सुस्त होने का अनुमान लगाया जा रहा है। नए वित्तीय वर्ष में ग्रौस एडेड वैल्यू (GVA) में ऐतिहासित गिरावट का अनुमान है। NSO का अनुमान है कि GVA में 7.2 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। GVA से ही ये पता चलता है कि किसी सेक्टर की आर्थिक गतिविधियों से GDP को क्या मिला।  

   अर्थव्यवस्था के गर्त में पहुंचने का ठीकरा जो लोग कोरोना पर फोड़ रहे हैं उन लोगों ने या तो NSO, वर्ल्ड बैंक, मुडीज और SBI की वो रिपोर्ट्स नहीं पढ़ी है जो देश की वास्तविक अर्थिक स्थिति पर आधारित हैं या फिर जानबूझकर किसी वजह से झूठ बोल रहे हैं। इसमें कोरोना महामारी की भूमिका है तो जरूर लेकिन बहुत बड़ी नहीं है।  

       देश की अर्थव्यवस्था को सबसे बड़ा झटका मोदी सरकार की नोटबंदी से लगा। 8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की। इसके पांच महीने बाद मार्च 2017 आते-आते देश के मैनुफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन, होटल, ट्रेड और ट्रांसपोर्ट सेक्टर में भारी गिरावट सामने आई। तब से अब तक ये सेक्टर गिरावट का दंश झेल रहे हैं। बड़े पैमाने पर छोटे-मोटे कारोबार भी ध्वस्त हुए। सरकार ने इनको बचाने की न तो कोई नीति बनाई और ना ही राहत के उपायों पर चर्चा की। 

   इसके बाद देश की अर्थव्यवस्था को दूसरा बड़ा झटक लगा है बैंकों की बर्बादी से। पिछले 6 सालों में बैकों के 46 लाख करोड़ रुपये डूब गए। इसी दौरान 875 हजार करोड़ रुपये का लोन राइट ऑफ हुआ। सितंबर 2019 में जब महाराष्ट्र के PMC बैंक के सामने बैक के खाताधारी रो-बिलख रहे थे तभी ये साफ हो गया था कि बैंकों की बर्बादी का दौर शुरू हो गया है। नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था में पैदा हुई सुस्ती की मार बैंकों पर ऐसी पड़ी कि बैंकिंग का आधार ही कमजोर हो गया। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की एनुअल स्टैटिकल रिपोर्ट बताती है कि मोदी सरकार में 175% की दर से NPA बढ़ा है। यही रिपोर्ट ये भी बताती है कि मोदी सरकार में NPA बढ़कर 9 लाख करोड़ तक पहुंच गया है। सरकार ने अनिल अंबानी को राहत देने के लिए जो लोन माफ किया वो भी आपका पैसा था। नीरव मोदी और माल्या जैसे लोग भी आपके पैसे हड़प कर दूसरे देशों में मौज कर रहे हैं। RBI या सरकारें बैकों को जो रकम देती हैं वो पैसा आपका होता है।  

    रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष का भी बड़ा हिस्सा सरकार पहले ही ले चुकी है। केंद्र सरकार के ऊपर अभी राज्यों की भी बड़ी देनदारी है। जीएसटी में जो राज्यों का हिस्सा है वो भी राज्यों को देना है। कोरोना के नाम पर रोका गया सरकारी कर्मचारियों के डीए का भुगतान भी सरकार को करना है। अलग-अलग सेक्टर में कोराना के नाम पर सैलरी में हुई कटौती के बाद बाजार में आई सुस्ती को भी खत्म करना है और असंगठित क्षेत्र जो कि लगभग कंगाल हो चुका है को भी नए सिरे से खड़ा करना है। 

  जाहिर है कि ये बजट देश के लिए बुत ही महत्वपूर्ण है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी सरकार ने अपनी पिछली गलतियों से सीख ली होगी और बजट के संतुलन पर जोर दिया होगा। उम्मीद है कि इस बजट में मनी डंपिंग की जगह फ्लो ऑफ वेल्थ दिखेगा। पूरा देश ये देख चुका है कि पैसों के प्रवाह को रोकना घातक साबित हुआ है।

Friday, January 15, 2021

अपनी वजहों से बिहार में कमजोर हुई कांग्रेस

देश की सबसे पुरानी सियासी पार्टी कांग्रेस अब बिहार में बैशाखी को अपना सच मान चुकी है। 1985 में बिहार में प्रचंड बहुमत वाली सरकार बनाने वाली कांग्रेस 1990 में जिस लालू प्रसाद के हाथों निपटा दी गई वही लालू प्रसाद कांग्रेस के लिए अब सहारा भी हैं और आसरा भी। पार्टी के नेताओं का आत्मविश्वास इतना कमजोर हो चुका है कि अब वो बिना सहारे चलने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहे हैं। हाल ही में पटना पहुंचे कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी भक्त चरण दास ने ये ऐलानिया तौर पर कहा था कि 15 जनवरी को कृषी बिल के विरोध में कांग्रेस राजभवन करेगी और उस मार्च में सभी 19 विधायक, बिहार के सभी कांग्रेसी सांसद, पूर्व विधायक, पूर्व सांसद और बड़े नेता हर हाल में शामिल होने चाहिए। बावजूद इसके बीते शुक्रवार को कांग्रेस के राजभवन मार्च में पार्टी जितनी कमजोर दिखी उतनी इससे पहले कभी नहीं दिखी थी। प्रदेश प्रभारी के निर्देश के बावजूद 19 विधायकों में से सिर्फ 3 विधायक राजभवन मार्च में शामिल हुए। ना तो कोई सांसद पहुंचा और ना ही पूर्व विधायक। पार्टी के मौजूदा 16 विधायकों में से ज्यादातर पटना में ही मौजूद थे लेकिन पार्टी के मार्च में नहीं पहुंचे। आलम ये कि पार्टी के विधायक दल के नेता अजित शर्मा भी इस मार्च से दूर रहे। राजभवन मार्च से पहले पार्टी के प्रदेश मुख्यालय सदाकत आश्रम में जुटे कांग्रेसी कई खेमों में बंटे दिखे।

 कृषी कानूनों और बढ़ती महंगाई के विरोध के नाम पर सड़क पर उतरने के लिए कांग्रेस ने कोई जमीनी तैयारी नहीं की। ना तो इसके लिए कांग्रेस ने किसानों के बीच कोई कार्यक्रम चलाया और ना ही आम आदमी के बीच। बस कुर्सी पर बैठे-बैठे प्रेस रिलीज जारी होते रहे। पार्टी के प्रदेश स्तर के ज्यादातर नेताओं ने इस मार्च से खुद को दूर रखा। एक समय था जब कांग्रेस के प्रदेश स्तर के कार्यक्रमों में हर जिले से बड़ी संख्या में लोग पहुंचते थे और हजारों लोग सड़कों पर दिखते थे। अब आलम ये है कि कांग्रेस तकरीबन डेढ़ सौ लोगों के साथ सड़क पर उतरी। न तो जिलों से कार्यकर्ता आए और ना ही नेता।

स्थाई खेमेबाजों में बदला खेमा

कयास लगाए जा रहे हैं कि तारिक अनवर कांग्रेस के अगले प्रदेश अध्यक्ष हो सकते हैं । बिहार प्रदेश कांग्रेस के कुछ नेता स्थाई तौर पर शक्ति के साथ खड़े रहते हैं। ये लोग जो कल तक प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा के साथ चिपके रहते थे अब अचानक तारिक अनवर से चिपकने की कोशिशें करते दिख रहे हैं। शुक्रवार को कांग्रेस के राजभवन मार्च के दौरान तारिक अनवर के घेरे रही ये टोली सबको साफ दिख रही थी।

डरे नेताओं ने कमजोर की पार्टी

1990 तक बिहार की सबसे ताकतवर पार्टी रही कांग्रेस कमजोर क्यों हुई। जानकार बता रहे हैं कि इसकी वजहें कांग्रेस की भीतर मौजूद हैं। जगन्नाथ मिश्रा के कार्यकाल तक पार्टी हर जगह चुन-चुन कर नए लोगों को जोड़ती रही। नए नेतृत्व को मौका मिलता रहा। पार्टी के नेता अपने-अपने क्षेत्र के जुझारू लोगों पर निगाह रखते थे और मौका मिलते ही उन्हें पार्टी से जोड़ते थे। 1990 के बाद ये परिपाटी खत्म होती दिखी। पार्टी के पदों पर बैठे नेताओं को ऊर्जावान और जुझारू नेताओं से खतरा दिखने लगा। ऐसे नेता सिर्फ अपने चाटूकरों को पार्टी में महत्व देते दिखते हैं। सच ये है कि ऊर्जावान और जुझारू लोग अगर कांग्रेस में शामिल होना चाहें भी तो इतने व्यवधान पैदा किए जाते हैं कि वो लोग दूसरी पार्टियों में चले जाते हैं। इतना ही नहीं लंबे अर्से से पार्टी ने जिला स्तर पर खुद को मजबूत करने की कोई ठोस पहल भी नहीं की। कई जिलों में तो पार्टी की जिला इकाई ही नहीं है। यहां तक कि पार्टी के अलग-अलग प्रकोष्ठों की कई वर्षों से कोई बैठक नहीं हुई है।   

Wednesday, October 7, 2020

कुंठा के मारों को उल्लू बनाते रहे हैं मोदी

  पत्रकारिता के एक छात्र ने मजेदार सवाल पूछा है। सवाल है सर, भारत में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या कम नहीं है बावजूद इसके मोदी सबको उल्लू कैसे बना लेता है?’ मेरा स्पष्ट मानना है कि सवालों को न तो टाला जाना चाहिए और ना ही सवाल पूछने वाले को। सवाल तो बस जवाब मांगते हैं। सवालों को टालने और सवालों से भागने वाले अज्ञानी, मूर्ख और धूर्त लोग होते हैं। हां, अगर आपके पास जवाब नहीं है तो आप कह सकते हैं कि मेरे पास इसका जवाब नहीं है।

    पत्रकारिता के छात्रों को सवाल पूछने की आदत डालनी चाहिए। एक अच्छा सवाल कई घंटों के कुकुरभौं से बेहतर होता है। गीदड़ों की तरह उछलना, गली के कुत्तों की तरह भौंकना और पागलपन के दौरे का शिकार होना पत्रकारिता नहीं है। पत्रकारिता सवाल पूछने का पेशा है। सवाल सदाचारिता से निकलते हैं, धतकर्मों से नहीं। बीमार दिमाग़ अंधश्रद्धा का गुलाम होता है और स्वस्थ दिमाग विमर्श करता है, सवाल करता है। स्वस्थ वातावरण के लिए सवालों का उठना और उन सवालों के जवाबों का आना जरूरी होता है।

 तो छात्र का सवाल है कि भारत में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या कम नहीं है बावजूद इसके मोदी सबको उल्लू कैसे बना लेता है?

मेरा जवाब बड़ा स्पष्ट था। मैंने कहा भारत में पालन-पोषण का माहौल ही विकृत है। हमारा परिवार, हमारे रिश्तेदार और हमारा समाज हमें विकृतियों के साथ गढ़ता है। मसलन एक हिंदु परिवार में बच्चे को बताया जाता है कि मुसलमान ख़राब होते हैं। ठीक ऐसे ही एक मुस्लिम परिवार में बताया जाता है कि हिंदु ख़राब होते हैं। मुस्लिम बच्चों को बताया जाता है कि हिंदु उनके दुश्मन होते हैं और इस्लाम को इनकी वजह से बड़ी कुर्बानियां देनी पड़ी हैं। बड़ी संख्या में मुसलमानों को अपनी जान गंवानी पड़ी है।

   ठीक इसी तरह हिंदु परिवारों में बताया जाता है कि मुसलमान आक्रांता हैं। मुसलमानों ने हिंदुओं पर हमले किए, लाखों हिंदुओं को मारा, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी, जबरन धर्म परिवर्तन करवाया। मुसलमान निष्ठुर होते हैं। ये किसी का भी सिर कलम कर लेते हैं। वगैरह-वगैरह। हिंदु धर्म को मुसलमानो से खतरा है।

  एक-दूसरे के रीति-रिवाजों को लेकर भी नफरत का वातावरण तैयार है और हमारी नस्लें उसी वातावण का शिकार हैं। यही बच्चे बड़े होते हैं। यही बच्चे पढ़-लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, वकील, पत्रकार, बैंकर, दुकानदार, कलाकार समेत और भी बहुत कुछ बनते हैं।  

  बचपन से जो बताया गया है वो आपके अचेतन में बना रहता है। यही अचेतन मन आपके चेतन मन को रह-रह कर सतर्क करता है। मुसलमानों को हिंदुओं से और हिंदुओं को मुसलमानों से।

    अचेतन मन में बैठी तमाम बातें अवचेतन में जाकर कुंठा पैदा करती हैं। मोदी ने उसी कुंठा को बड़े पैमाने पर उभारा। राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का उभार दंगों की देन है। गुजरात दंगों के बाद मोदी हिंदुत्व की राजनीति का बड़ा चेहरा बने। इन दंगों में बड़ी संख्या में मुसलमानों का कत्ल हुआ, उनकी बहू-बेटियों का बलात्कार हुआ। बहुसंख्यक हिंदुओं की अवचेन मन की कुंठाएं थोड़ी शांत हुईं। अब अवचेन की इन्हीं कुठाओं को ठंडा होने का रास्ता मिल गया। कुंठित मन ने ये मान लिया कि कुंठा को थोड़ी-बहुत राहत मोदी से ही मिल सकती है। इन्हीं कुंठाओं ने नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय राजनीति में आमंत्रित किया और उनका स्वागत किया। यही कुंठा उनके नोटबंदी जैसे राष्ट्रघाती फैसले को राष्ट्रवादी साबित करने के लिए चीख-चिल्लाहटों में निकलती है। यही कुंठा पैदल चल रहे और भूख-प्यास से मर रहे मजदूरों का मजाक उड़वाती है। यही कुंठा भारतीय जमीन पर चीन के कब्जे को चीख-चीख कर झुठलाती है। यही कुंठा देश की तबाही और बर्बादी को भी विकास के तौर पर देखने की विवशता पैदा करती है। इसलिए, नरेंद्र मोदी बहुत ही आसानी से पढ़े-लिखे तबके को उल्लू बना लेते हैं।

  मेरे इस जवाब से छात्र संतुष्ट दिखा तो मुझे शंका हुई। मैंने उसे सुझाव दिया कि इस जवाब का अपने विवेक से आकलन करे और फिर इनमें से सवालों को जन्म दे। स्वस्थ विमर्श के लिए सवालों और जवाबों का होना बहुत जरूरी है। 


Tuesday, August 11, 2020

राहत इंदौरी मतलब भारत की मिट्टी पर जम्हूरियत के रंग

 मशहूर गीतकार और मकबूल शायर राहत इंदौरी के निधन की खबर से उनके चाहने वालों को गहरा सदमा लगा है...भारत के अलावा दुनिया के उन सभी देशों में जहां उर्दू और हिंदी बोली-समझी जाती है, राहत इंदौरी समान रूप से लोकप्रिय थे...कोरोना संक्रमित होने के बाद इंदौरी साहब को दिल का दौरा पड़ा और वो हम सबको छोड़कर चले गए...इस मशहूर शाहकार को उसके लिखे गीतों और उसी की शायरी से श्रद्धा-सुमन अर्पित 

   क्या पेंटर, चले गए न...एक घबराई हुई शाम को जिगर ने झटका दिया और तुमने अलविदा कह दिया.. ना पेंटर..अभी जाने का नई...तुम्हीं ने बोला था न..अभी जाने का नई.. ये तो धोखा है पेंटर...हमने तो ये सोचा ही नहीं था कि हथेली पर जान लेकर चलते-चलते हमें सफर में छोड़ जाओगे ( हमारी तरह हथेली पर जान थोड़ी है...शायरी)  रंग अधूरे छूट गए पेंटर..तस्वीर पूरी बनी ही नहीं और तुमने तूलिका छोड़ दी.. कैसे छोड़ दी तूलिका तुमने पेंटर...याद है जब पेट ने ललकारा था, भूख ने तड़पाया था तब तूलिका पकड़ी थी तुमने..इंदौर की दुकानों पर आज भी तुम्हारे बनाए साइन बोर्ड इतराते हैं पेंटर...इन्हें भी छोड़कर चले गए तुम...अपनी पहचान को इंदौर की पेशानी पर छोड़कर इंदौर की मिट्टी में जाकर लेट गए तुम (मैं जब मर जाऊं, मेरी पहचान...शायरी) बहुत कुछ लिखना बाकी रह गया...जैसे कॉलेज में ऊर्दू पढ़ाने की कहानी...पेंटर का सर बनने की कहानी...तूने तो एक झटके में किस्सा तमाम कर दिया ( खुद भी पागल हो गए तुमको भी पागल कर दिया ) किस्से न बड़े प्यारे होते हैं..जैसे किसी शायर की ग़ज़ल, किसी सुखनवर की संगत..जैसे गुलाब को गुमान नहीं होता है अपनी खुशबू का..और ना ही इतराती है कोयल अपनी आवाज पर...वैसे ही सर, आपको पता ही नहीं था कि आप क्या चीज हैं हिंदुस्तान के लिए (तुम सा कोई प्यारा, कोई मासूम नहीं है) कितनी मासूमियत से हमें तन्हा कर गए सर..जब सज-धज कर तैयार हुई मुशायरे की महफिल..जब बजनी थीं तालियां...ठीक उसी वक्त बहारों को ग़म में बदल दिया सर आपने ( हम अपने ग़म को सजाकर बहार कर लेंगे) चुपके-चपके गए हो सर..ये चीटिंग है सर...सबेरे ही ट्वीट किया और शाम को चोरी से निकल गए (चोरी-चोरी नजरें मिलीं)... जानते हो सर...जब आप गए न...तब श्याम रंग गहरा हो रहा था...भारत श्याम की बर्थ नाइट सेलिब्रेट करने की तैयारियों में था...(बुमरो-बुमरो, श्याम रंग बुमरो).....हमें पता है सर....डॉक्टरों ने बहुत कोशिशें की होंगी आपकी धड़कनों को प्यार की झप्पी देने की...बहुत कोशिशें की होंगी...( एम बोले तो मास्टर में मास्टर) डॉक्टरों ने रोका होगा सर...ज़रूर रोका होगा आपके दिल को बंद होने से...(दिल को हजार बार रोका रोका रोका) लेकिन जाने वो कैसा चोर था...राहत को चुरा गया  (जाने वो कैसा चोर था दुपट्टा चुरा गया...). नहीं पेंटर, नहीं सर...हमें छोड़कर भला कैसे जा सकते हैं राहत इंदौरी... हिंदुस्तान की माटी पर अपनी तूलिका से जम्हूरियत और कौमी एकता के रंग भरने वाला शायर भला हमसे जुदा कैसे हो सकता है... इसी मिट्टी में शामिल है, इसी मिट्टी में रहेगा...राहत न मरा है अभी...राहत न मरेगा...सलाम राहत साहब..सलाम... (उसे कहो मैं मरा नहीं हूं) ...

Monday, August 3, 2020

सुशांत की मौत के बाद फर्जी प्राइड का खेल

मराठा और मराठा प्राइड की राजनीति से प्रभावित मुंबई वालों ने बिहारियों को बराबरी का दर्जा दिया ही कब है जो अब दे देंगे! साल दर साल बिहारियों को मारने-पीटने वाले मराठा मानुष भला ये कैसे बर्दाश्त कर लें कि एक बिहारी की संदिग्ध मौत मामले में किसी विषकन्या से पूछताछ हो जाए। बिहार और यूपी वालों को दो कौड़ी का मामूली मजदूर मानने वाली ये मराठा सोच नई तो नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ये बात नहीं जानते हैं। नीतीश कुमार जिस बाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री थे उसी बाजपेयी सरकार को बर्बर ठाकरे का समर्थन हासिल था और उसी बर्बर ठाकरे के लोग मुंबई में बिहारियों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटते थे। तब नीतीश कुमार को एक बार भी बिहारियों का ख्याल नहीं आता था और एक बार भी वो बर्बर ठाकरे के सामने सिर उठाकर बोलते नहीं देखे गए। नीतीश कुमार 2005 से बिहार का मुख्यमंत्री हैं। उनके कार्यकाल में बीसियों बार मुंबई में बिहारियों पर हमले हुए हैं। बिहारियों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया है। रेलवे की परीक्षा देने गए छात्रों की पीट-पीट कर हत्या की गई है। इनमें से कितने मामलों की जांच के लिए नीतीश की सरकार ने बिहार पुलिस को मुंबई भेजा है? सच ये है कि दोनों तरफ से झूठी शान का प्रदर्शन हो रहा है। सुशांत की संदिग्ध मौत को नीतीश कुमार बिहारी प्राइड से जोड़ने में सफल होते दिख रहे हैं। ये सारे प्रयास सियासी मतलब साधने के लिए हो रहे हैं। 
 ये बात हुई नीतीश कुमार की और अब बात उद्धव ठाकरे की। बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे भी उसी बर्बर मराठा प्राइड की राजनीति करते हैं जिसकी शुरुआत उनके पिता बर्बर ठाकरे ने की थी। इस राजनीति का मकसद मराठों का भला न तो तब था और ना ही अब है। इस राजनाति का मकसद तब भी दूसरों से नफरत करना था और आज भी वही है। नफरत की इस आग में आदमी अपनी कमियों को भूल जाता है। मतलब, मराठा ये भूल गए हैं कि उनकी बुनियादी ज़रूरतों के लिए सरकार की एक जिम्मेदारी बनती है। वो बस बिहारियों से नफरत करने को मराठा अस्मिता मान बैठे हैं।
     जब तक सुशांत सिंह राजपूत हीरो थे तब तक मराठा प्राइड वाली इस सियासी सोच को उनसे दिक्कत नहीं थी लेकिन, जैसे ही सुशांत के बिहारी होने का सच सामने आया है मराठों की नफरती सोच सामने आ गई। बर्बर ठाकरे की सियासी विरासत संभालने वालों को ये बात खलने लगी कि बिहारी की मौत की जांच बिहार पुलिस करे। फिर वही बर्बर खेल शुरू हो गया है। अपने पिता की दो कौड़ी वाली बर्बर प्राइड पॉलिटिक्स को उद्धव ठाकरे फिर आगे सरकाते दिख रहे हैं। मुझे संदेह है कि उद्धव ठाकरे और उनकी बर्बर पार्टी के लोग एक बार फिर मुंबई में बिहारियों के खिलाफ हिंसा का माहौल खड़ा करेंगे और बिहार पुलिस और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराएंगे। 
    इसलिए, बेहतर होगा कि समय रहते महाराष्ट्र के मराठा प्राइड की इस सोच को सकारात्मक दिशा दी जाए। मराठा युवकों को ये बताया जाए कि बर्बर ठाकरे ने अपने सियासी फायदे के लिए मराठा प्राइड का जो आवरण तैयार किया, दरअसल वो प्राइड नहीं बल्कि मराठों को लठैत बनाकर सत्ता को बर्बर परिवार का चाकर बनाए रखने की साजिश है। वक्त रहते ये काम नहीं किया गया तो फिर एक दिन बर्बर ठाकरे के वंशज मराठा प्राइड के नाम पर अलगाववादी सोच को खाद-पानी देने लग जाएंगे। इसलिए ज़रूरी है कि फर्जी प्राइड वाली पॉलिटिक्स, चाहे बिहारी प्राइड के नाम पर चल रहा फर्जीवाड़ा हो, चाहे लंबे अर्से से चला आ रहा मराठा प्राइड वाला फर्जीवाड़ा हो, दोनों की पोल खोली जाए और बर्बर ठाकरे के वंशजों को अलगाववादी ताकत बनने से रोका जाए।

Monday, January 13, 2020

सब धन लुटा के अब जन लुटाने में लग गए

जब तक संभव होता है शहनाई की धुन सिसकियों की आवाज छुपा लेती है लेकिन, सिसकियां जब चीखों में तब्दील हो जाती हैं तो फिर उसे छुपा-दबा लेना संभव नहीं होता। देश की अर्थव्यवस्था और बढ़ती बेरोजगारी का सच जब तक संभव था संस्थाओं ने छुपाने की पूरी कोशिश की लेकिन, जब अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी की सिसकियां चीखने लगीं तो फिर सच्चाई को छुपाए रखना संभव नहीं हो सका और संस्थाओं को मानना पड़ा कि अब सबकुछ तबाह और बर्बाद हो चुका है। जिस बात को कई अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी तीन साल पहले से कह रहीं हैं अब उस बात को धीमी आवाज में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के शीर्ष अधिकारी, सांख्यिकी विभाग के शीर्ष अधिकारी और नीति आयोग के शीर्ष अधिकारी भी कहने लगे हैं। अब सब ये मानने लगे हैं कि अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता है और देश रोजगार देने में अब उतना सक्षम नहीं रहा जितना साल 2011-12 तक था।
   इकोरैप की हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2018-19 में बिहार और उत्तर प्रदेश के प्रवासी मजदूरों ने अपने घरों में औसत के मुकाबले तीस फीसदी कम पैसे भेजे हैं। रिपोर्ट का विस्तृत अध्ययन करने पर पता चलता है कि बिहार और यूपी से दूसरे राज्यों में काम की तलाश में गए इन कामगारों को पहले मुकाबले कम दिन काम मिला। इतना ही नहीं पीछले पांच-छे वर्षों से इनकी मजदूरी में कोई इजाफा नहीं हुआ। किराए के मकानों में रहने वालों इन मजदूरों के मकान का किराया हर साल बढ़ा, खाने-पीने के खर्चे बढ़ती महंगाई की वजह से लगातार बढ़े लेकिन कमाई बढ़ने के बजाए घटती गई।
  इस रिपोर्ट में एक और बेहद महत्व की बात सामने आई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि चालू वित्त वर्ष में नए रोजगार की संभावना बहुत कम रहेगी। ईपीएफओ के आंकड़ों से अनुमान लगाया गया है कि इस वित्त वर्ष में पंद्रह हजार रुपये तक की तनख्वाह वाली नौकरियों में भारी गिरावट हो सकती है। अनुमान है कि इस वर्ष ऐसी 16 लाख नौकरियां कम हो जाएंगी। ये सिर्फ मासिक पंद्रह हजार वेतन वाली नौकरियां हैं। इससे ऊपर के वेतन वाली नौकरियों को जोड़ दिया जाए तो फिर ये आंकड़ा एक करोड़ के आस-पास पहुंच सकता है। क्योंकि ईपीएफओ के इस आंकड़े में केंद्र और राज्य सरकारों की नौकरियों के साथ-साथ अपना रोजगार करने वालों के आंकड़े शामिल नहीं हैं।
   केंद्र और राज्य सरकारों की नौकरियों के अवसर तो पहले से ही कम होते जा रहे हैं। एनएसओ का आंकलन बताता है देश की वित्तीय हालत ऐसी नहीं रही कि अब केंद्र सरकार भी पहले की तुलना में नियुक्तियां कर सके। राज्य सरकारों की हालत तो और खस्ता है। दिल्ली को छोड़ दें तो देश के किसी भी राज्य की माली हालत ठीक नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों की ये हालत बताती है कि चालू वित्त वर्ष में सरकारी नौकरियों के अवसरों में भारी कमी देखी जाएगी। ये कमी कम से कम 39 हजार पदों की होगी।
  अब सवाल ये कि रोजगार का यें संकट इतना विकराल हुआ कैसे? जवाब बड़ा सीधा है कि वित्तीय कुब्रंधन की वजह से। मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले के जो दूरगामी नतीजे बताए जा रहे थे वो दूरगामी नतीजे ढाई साल में ही सामने आ गए थे और पता चला कि देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के बाद अब तो नीति आयोग ने भी मान लिया है कि विकास दर पांच फीसदी से भी नीचे रहेगी। मतलब देश के पास धन नहीं है और जब धन ही नहीं है तो फिर खर्च क्या करेंगे। मतलब न तो विकास का काम होगा और ना ही नए रोजगार के अवसर सृजित होंगे।
 इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने अपने खर्चे बहुत बढ़ा लिए। सरकारी खर्चे में हुई बढोत्तरी ने देश के खजाने पर बड़ा असर डाला। देश के कई राज्यों ने भी ऐसा ही किया। आम आदमी की कमाई का बड़ा हिस्सा सरकार चलाने और सरकारी तामझाम में जाता रहा। यूपी सरकार ने तो अपना बहुत बड़ा बजट शहरों के नाम बदलने और ईमारतों के रंग बदलने में खर्च कर डाले। हुआ ये कि सरकारी योजनाओं को चलाने और निर्माण के लिए धन की कमी होती गई। धन की कमी को दूर करने का प्रबंध भी सरकार जब ठीक से नहीं कर पाई तो अप्रत्यक्ष करों में भारी बढ़ोत्तरी की गई। सेस के जरिए लोगों से अतिरिक्त पैसे लिए जाने लगे। सरकार की इस नीति ने महंगाई में आग लगा दी। हालत ये हुई कि आर्थिक विकास के मामले में देश पड़ोसी देश नेपाल और बांग्लादेश से भी पिछड़ गया।
  पहले तो सरकार और सरकारी संस्थाओं ने पाकिस्तान, राष्ट्रवाद, हिंदू-मुस्लिम और ना जाने किन-किन शोरों में इस सच्चाई को छुपाए रखा लेकिन जब विश्व बैंक समेत कई अंतरराष्ट्रीय संस्थान भारत की आर्थिक हालत पर चिंता जताने लगाने और खुद नीति आयोग, भारतीय रिज़र्व बैंक और सांख्यिकी विभाग की हालत चरमराने लगी तो उन्हें खुलकर ये स्वीकार करना पड़ा कि अब देश बर्बादी की कगार पर खड़ा है।
  उम्मीद है कि सरकार अब भी चेतेगी और देश के जीवट नागरियों के हौसले से देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिशों में जुटेगी। मोदी सरकार का अब तक का अनुभव ये बताता है कि सरकार अड़ियल रवैये से चल रही है और ग़लत फैसलों से हुए नुकसान को छुपाने के लिए देश का ध्यान इधर-उधर भटकाने में भी काफी नुकसान करती रही है। इसलिए ज़रूरी है कि सरकार अपनी गलतियों से सीख ले। भारत के नागरिकों का दिल बड़ा है और देश ने हर उस सरकार की गलतियों को माफ किया है जिस सरकार ने अपनी गलतियां मानी हैं और उन गलतियों को सुधारने की दिशा में काम किया है।            

Thursday, January 2, 2020

फैज के बहाने एक और 'कन्हैया' तलाशती सरकार


साल 2016 में जब सरकार की ग़लत नीतियों की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था के डूबने की शुरुआत हुई और रोजगार का संकट गहरा हुआ तब सरकार ने बड़ी चालाकी से एक गद्दारकी खोज की और देश का सारा ध्यान उस गद्दार की तरफ मोड़ दिया। फिर हुआ ये कि कौआ कान लेकर भागा और लोग कौए के पीछे भागे। तब देश के गृहमंत्री थे राजनाथ सिंह। राजनाथ सिंह ने अपने ट्विटर हैंडल पर जेएनयू के तत्कालीन छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गद्दार लिखा और कुछ घंटों बाद ही उसे डिलीट कर दिय़ा। राजनाथ सिंह और राजनाथ सिंह जैसे भाजपा नेता पहले ट्वीट और बाद में डिलीट के सियासी विद्यालय में ही दीक्षित हुए हैं। गोएब्ल्स कहता था कि किसी झूठ को इतना फैला दो कि लोग उसे ही सच मान लें। 2016 में तत्कालीन गृह मंत्री और भाजपा के बड़े नेताओं ने कन्हैया कुमार के मामले में यही किया। खैर राजनाथ सिंह से लेकर अब के गृह मंत्री अमित शाह तक, दिल्ली पुलिस कन्हैया के खिलाफ कोई सबूत नहीं खोज पाई लेकिन, देश की एक बड़ी आबादी बिना किसी ठोस सबूत के कन्हैया को आज भी टुकड़े गैंग का नेता बताती है क्योंकि, प्रचार तंत्र के जरिए सत्ता ने इस झूठ को इतना फैलाय़ा कि लोग इसे ही सच मानने लगे।
  अब, जबकि देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से डूब चुकी है, नए रोजगार की संभावना तो दूर जिनके पास रोजगार है उसे बचाना ही मुश्किल हो गया है और बीजेपी के ही सांसद सुब्र्हमण्यम स्वामी ये स्वीकार कर चुके हैं कि हम बर्बादी के तरफ धकेले जा चुके हैं तब, सत्ता को लोगों का ध्यान बांटने के लिए फिर गोएब्ल्स की शरण में जाना पड़ा है। और यही वजह है कि सरकार एक और कन्हैयाकी तलाश में जुट गई है। जेएनयू में सरकार ने काम आसानी कर लिया क्योंकि जेएनयू में शहीद भगत सिंह की विचारधारा वाली राजनीति चलती है जो भाजपा की विभाजनकारी विचारधारा को वहां पनपने नहीं देती। जाहिर है उस विभाजनकारी सोच का वहां जमकर विरोध हुआ और उसी विरोध को सत्ता के तंत्र ने देशद्रोह के नाम से प्रचारित किया। अब फिर आसान टारगेट सेट किया गया है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया, ये नाम ही काफी है विभाजनकारियों के लिए। नफरत के लिए धर्म का इस्तेमाल करने वाली राजनीति जामिया नाम से ही काफी काम कर लेगी। और फिर अब यहां कोई कन्हैया कुमार खोजा जाएगा। बिना किसी सबूत के उसे देशद्रोही, गद्दार, टुकड़े-टुकड़े गैंग का सरगना कहा जाएगा। एक बार फिर कौआ कान लेकर भागेगा और कौए के पीछे लोग भागेंगे। सत्ता की शह पर गोएब्ल्स की औलादें आम आदमी को यकीन दिलाने में कामयाब होंगी कि जामिया मिल्लिया देशद्रोही गतिविधियों का अड्डा है। एक झूठ को इतना फैलाया जाएगा कि लोग उसे ही सच मानने लगेंगे। इसलिए ज़रूरी है कि इस वक्त फैज अहमद फैज को याद किया जाए।
    अब, जबकि आईआईटी कानपुर प्रशासन ने साफ कर दिया है कि संस्थान फैज अहमद फैज की किसी रचना की जांच नहीं कर रहा है फिर भी हमें फैज साहब की रचनाधर्मिता पर बहस करनी चाहिए। आईआईटी कानपुर को जा काम सौंपा गया है दरअसल वो वही काम है जिसके जरिए एक नए कन्हैया कुमार की खोज होगी। रही बात संस्थान प्रबंधन के बयान की तो उसपर आंख मूंद कर इसलिए भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि इस दौर में देश के प्रधानमंत्री मंचों से धड़ाधड़ गलत सूचना दे रहे हैं। कई मंत्री लगातार सदन को गलत जानकारी दे रहे हैं तो फिर भला सच का सारा ठेका अकेले आईआईटी कानपुर ही लेकर क्यों घूमे। तो अगर आईआईटी कानपुर फैज साहब की ग़ज़ल में हिंदू विरोध की तलाश कर रहा है तो उसे करने दीजिए। 1979 में तब की पाकिस्तानी हुकूमत ने भी फैज साहब को इस्लाम विरोधी घोषित किया था। तब के पाकिस्तानी तानाशाही समर्थकों ने फैज साहब को गद्दार घोषित कर रखा था। क्योंकि तब पाकिस्तान में मजहब के नाम पर ही सैन्य तानाशाही थोपी गई थी। 1977 में जनरल जियाउल हक ने पाकिस्तान में तख़्ता पलट किया था और 1978 में शरई कानून न मानने वालों को इस्लाम विरोधी करार दिया था। फैज साहब शरई कानून के खिलाफ थे। 1979 में फैज साहब लाजिम है कि हम भी देखेंगेग़ज़ल के जरिए जियाउल हक की तानाशाही के खिलाफ आवाज बुलंद की। फैज साहब की ये गजल हिंदी और उर्दू की हर जुबान पर चढ़ी। पाकिस्तान में जनरल की तानाशाही के खिलाफ नारा बना लाजिम है कि हम भी देखेंगे। सरहद पार कर ये तराना भारत पहुंचा और फिर भारत के बाद नेपाल। नेपाल की राजशाही के खिलाफ खड़े हुए आंदोलन के दौरान इसे खूब गाया गया।
  जाहिर है तानाशाही के खिलाफ खड़ी ये रचना किसी भी तानाशाह को पसंद नहीं आएगी इसलिए, ज़रूरी है कि जनतंत्र के पक्ष में खड़ा हर आदमी इसे गुनगुनाता रहे। तय मानिए गोएब्ल्स की औलादें से इस तराने को हिंदू विरोधी प्रचारित करेंगी। आप उनसे बौद्धिकता, नैतिकता की उम्मीद ही ना करें। उनका काम ही है किसी झूठ को इतना फैला देना कि लोग उसे ही सच मान लें।
...असित नाथ तिवारी...फफhW

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि ये बजट देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने ये बात यूं ही नहीं कही है। वर्ल्ड बैंक के अ...