Saturday, October 22, 2016

बायना बांटे ला बेटी मांगी ले...

बायना बांटे ला बेटी मांगी ले.....

 बेटी मांगी ले...छठ पर्व के इस पक्ष की चर्चा उतनी नहीं होती जितनी बाक़ी पक्षों की होती है। भारत जैसे देश में जहां भ्रूण हत्या बेहद आम है, जहां ज्यादातर परिवारों में आज भी बेटी की परवरिश में उपेक्षा साफ दिखती है, जहां बेटियों की संख्या लगातार कम हो रही है..वहां एक समाज ऐसा भी है जो चार दिनों के महान व्रत के दौरान सूर्य से बेटी मांगता है। छठ पूजा के दैरान गाए जाने वाले गीतों की गहराई में उतरना जरुरी है।
इन्हीं गीतों से सूर्य की आराधना होती है और इन्हीं गीतों में गाया जाता बायना बांटे ला बेटी मांगी ले कि सुन्दर पंडित दामाद। मतलब हे भगवान सूर्य भागवान हम आपसे बेटी की मांग कर रहे हैं ताकि हम अपने दरवाजे पर बारात बुलाकर (बायना बांटे ला) उसका सम्मान कर सकें। इसी के साथ सुंदर और समझदार दामाद भी मांगा जाता है। जिस देश में बेटे की ख्वाहिश लिए लोग न जाने कितने मंदिर, मजार, तांत्रिक के चक्कर लगाते हैं, कितनी बेटियों की बलि दे देते हैं उसी देश में चार दिनों की उपासना के दौरान बेटी मांगी जाती है। दरअसल बिहारी समाज अपनी संस्कृति में बेटा और बेटी दोनों को बेहद जरुरी मानता है। हालांकी सामाजिक विकृतियों ने यहां भी बेटियों को दोयम दर्जे तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. बावजूद इसके ये समाज कन्यादान के बिना खुद को ऋणमुक्त नहीं मानता। कन्यादान के लिए बेटी का होना ज़रुरी है। यहां बेटा अगर घर का गौरव है तो बेटी घर की शोभा और दामाद घर का सम्मान। शादी-विवाह से लेकर ज्यादातर धार्मिक कार्यों में बेटियों, बहनों और बहुओं की महत्वपूर्ण भूमिका वाला ये समाज बेटी के बिना घर को अधूरा समझता है। छठ पर्व में समाहित इस महान धारणा के महत्व को उजागर किए बिना छठ पर्व को पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता। यहां कुआंरे आंगन की धारणा है। माना जाता है कि जिस आंगन में बेटी की शादी के फेरे नहीं हुए वो आंगन कुआंरा होता है और कुआंरा आंगन शुभ नहीं हो सकता। भाई के घर शुभ आयोजनों में बहन से जुड़ीं रस्में नहीं हुईं तो वो रस्में अधूरी रह जाती हैं। छठ पर्व का ये पक्ष उस तरह से उजागर नहीं किया गया जिस तरह से इसे करना चाहिए था। आंशिक ही सही लेकिन ये पर्व बेटियों को समर्पित है। छठ पर्व का ये पक्ष भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बीमारी का कुछ तो इलाज कर ही सकता है। बेटियों के साथ होने वाले भेदभाव को कुछ तो कम कर ही सकता है। छठ को बस बिहारी समाज का मत समझिए, छठ एक बड़ी कुरीति के खिलाफ जंग है, एक बुराई के खिलाफ लड़ाई है, छठ हमारी अस्मिता की पूजा है।



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