जग सूना-सूना लागे
सर्वोच्च
अदालत ने एक जनहित याचिका की
सुनवाई के दौरान वीआईपी सुरक्षा
के नाम पर चल रहे ताम-झाम
पर सवाल खड़े किया है..आम
आदमी की फिक्र के साथ..
इस बात पर तेज
हो गई है कि वीआईपी सुरक्षा
और लाल बत्ती जरूरत हैं या
झूठी शान
सालाना
31 करोड़
रु. का
खर्च...ये
खर्च वीआईपी सुरक्षा में तैनात
जवानों के वेतन मद में होता
है.. इसी
काम के लिए तकरबीन इतना ही
खर्च बाकी मदों में होता है...
पंजाब के
चंडीगढ़ में पीएम का कारकेड
गुजर रहा था..ट्रैफिक
रोका गया... एंबुलेंस
में पड़े-पड़े
एक मरीज की मौत हो गई..
प्रशासन पीएम
के स्मूथ मूवमेंट के लिए बेचैन
दिखा... एंबुलेंस
उसकी फिक्र के दायरे से बाहर
था... देश
के तमाम राज्यों -शहरों
में पीएम-सीएम
और वीवीआईपी मूवमेंट के नाम
पर यही होता है... अब
सुप्रीम कोर्ट ने सवाल पूछा
है कि किस नियम के तहत पुलिस
ट्रैफिक रोकती है...
अगर सड़कें
इतनी खतरनाक हैं तो आम आदमी
के लिए भी हैं.. उसकी
सुरक्षा के लिए क्या होता
है....
-कोर्ट
ने वीआईपी सुरक्षा के मानक
पर सवाल पूछा है...
झूठी शान के
लिए लाल बत्ती गाड़ी का इस्तेमाल
और सरकारी बॉडीगार्ड की ठसक
पर सवाल उठाए हैं..
जिनको जरूरत
है उनको सब मिले..
लेकिन वीआईपी
की मेम साहिबा,
बच्चों और
रिश्तेदारों को ये सुविधा
क्यों … जनप्रतिनिधि के नाम
पर आपराधिक छवि के लोगों को
सरकारी हिफाजत क्यों...
कोर्ट
ने पूरी जानकारी मांगी है..
किनको सुरक्षा
दी गई है.. क्यों
दी गई है.. देने
का आधार क्या है...
और उस पर कितना
खर्च आता है... वीआईपी
मूवमेंट के दौरान आम आदमी की
सुरक्षा में तैनात जवानों को
ट्रैफिक रोकने में किस नियम
के तहत लगाया जाता है...
आम और खास की
सुरक्षा में बड़ा फर्क क्यों
है... सरकारें
आंकड़े जुटा रही हैं..
जवाब खोज रही
हैं...हम
और आप ये सोच रहे हैं कि आम आदमी
से इतना ऊपर क्यों होता है
उसका जनप्रतिनिधि
सत्ता-सियासत
ने लोकतंत्र की परिभाषा को
कब और कैसे बदल दिया पता ही
नहीं चला... लोक
कब हासिए पर गया..
तंत्र कब सत्ता
के इर्द-गिर्द
घूमने लगा और सिस्टम कब आम
आदमी से दूर हो गया स्पष्ट तौर
पर कुछ भी नहीं दिखा...
और इसी बीच आम
आदमी का नुमाइंदा आम से खास
हो गया...
सायरन
की ऊंची और डरा देने वाली
आवाज... धूमती
लाल बत्ती... सनसनाती
गाड़ियां... डंडे
भांजते पुलिस के जवान..चौक-चौराहों
पर खड़े अधिकारी से लेकर जवान
तक... वायरलेस
पर दौड़ते-भागते
मैसेज... आगे
और पीछे पूरी तरह से खाली
सड़क.... और
अगल-बगल
में पूरी तरह से ठहरा ट्रैफिक...
अवाक लोग...
परेशान भीड़...
ये नजारा आम
होता है.. वजह
सड़क से गुजर रहा कोई 'खास'
होता है
जिस
इलाके से ये काफिला गुजरता
है... उधर
के ज्यादातर पुलिसकर्मी इसके
स्मूथ मूवमेंट के इंतजाम में
लग जाते हैं... कुछ
पल के लिए आम आदमी इनकी फिक्र
के दायरे से बाहर हो जाता है...
लोकतंत्र
में लोक कहां है..
तंत्र किसके
लिए काम कर रहा है...
सर्वोच्च्
अदालत ने सवाल पूछा है...जवाब
की तैयारी है.. लेकिन
इसका हिसाब कौन देगा कि इतने
दिनों तक आम आदमी के पैसे का
इस्तेमाल इस तरह क्यों हुआ