2012 के नवंबर महीने
में ज़ी न्यूज़ के एंकर सुधीर चौधरी चैनल के दफ्तर से गिरफ्तार कर लिए गए थे। नवीन
जिंदल को ब्लैकमेल करने के आरोप में चौधरी साहब तिहाड़ जेल भेजे गए। इससे पहले जब
वो लाइव इंडिया में संपादक हुआ करते थे तो टीआरपी के दबाव में ग़लत ख़बर चलवा कर
उन्होंने एक महिला टीचर को भीड़ से पिटवाया और उनके लगभग सारे कपड़े फड़वा डाले
थे। महिला टीचर वाले मामले में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर वो खुद को बचा गए लेकिन,
जिंदल ब्लैकमेलिंग केस में उन्हें जेल जाना पड़ा था। बाद के दिनों में वो पत्रकार
के बजाए सत्ताधारी दल का प्रवक्ता नज़र आने लगे। इसी बीच एनडीटीवी वाले रवीश कुमार
ने एक शब्द उछाला गोदी मीडिया। पत्रकारिता के पेशे में दूर कहीं एक छोटी सी जगह पर
बेहैसियत सा मैं या मेरे जैसे कई लोग गोदी मीडिया, बिकाऊ मिडिया, सत्ता की चाकरी
करती मीडिया, सत्ता से डरी-सहमी मीडिया को जीते-भोगते रहे हैं।
कोबरा पोस्ट के हालिया स्टिंग ऑपरेशन
ने एक बात साफ कर दी कि आप चाहे जो भी अखबार पढ़ते हैं, चाहे जिस किसी न्यूज चैनल
को देखते हैं इनमें से ज्यादातर बिकाऊ हैं। टाइम्स ग्रुप से लेकर छोटे-मोटे चैनल
तक एजेंडा जर्नलिज्म का सौदा बेनकाब हो चुका है। कोबरा पोस्ट ने न सिर्फ एजेंडा
जर्नलिज्म का खुलासा किया है बल्कि इसी के साथ बिकाऊ मीडिया का सच सामने लाकर
पत्रकारों को बड़ी राहत दी है। आम तौर पर ये धारणा बनती जा रही थी कि पत्रकार
बिकाऊ हो गए हैं। कोबरा पोस्ट ने साफ कर दिया कि पत्रकार तो सिर्फ और सिर्फ नौकरी
बजा रहा है। बिके तो मालिकान हैं, बिका तो प्रबंधन है।
तो
फिर मुझे सुधीर चौधरी कम कसूरवार नज़र आते हैं। एक पत्रकार कैसे-कैसे ब्लेकमेलर बन
जाता है, एक पत्रकार कितने दबाव में नौकरी कर रहा होता है और पत्रकार एक अदद नौकरी
के लिए कितने समझौते करता है ये मीडिया में बैठे हर आदमी को पता है।
कोबरा पोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन को देखकर अगर
टाइम्स नाऊ, टाइम्स ऑफ इंडिया और बीसीयों रीज़नल चैनल के पत्रकारों की अंतरात्मा
जाग गई और वो बिके हुए मीडिया हाउस को लात मारकर रोड पर आ गए तो क्या खुद को
ईमानदार कहने वाले मीडिया हाउस उनको नौकरी देंगे ?
जिस देश
में चपरासी की नौकरी के लिए इंजीनियर, वकील, पीएचडी और एमबीए डिग्रीधारी लाखों की
भीड़ लाइन लगाती हो वहां पत्रकार अपनी नौकरी बचाने की जद्दोजहद ना करे तो क्या
हरिश्चंद्र बना फिरे ?
जिस समाज के लिए एक पत्रकार खतरनाक माफिया और
सरकारी महकमे के गठजोड़ से लड़ता है वो समाज कभी किसी पत्रकार के लिए खड़ा हुआ है
क्या ?
मैंने अपराधियों के मारे जाने पर तोड़फोड़
और आगजनी देखी है। देश के अलग-अलग हिस्सों में सैकड़ों पत्रकार नक्सली बताकर जेल
भेजे गए, सैकड़ों पत्रकार अपराधी-पुलिस गठजोड़ वाली बंदूकों से मार दिए गए। कभी
किसी पत्रकार के लिए समाज को सड़क पर उतरते देखा है क्या ?
आपके दिमाग़ में इतना ज़हर भरा जा चुका है कि
आप एक दंगाई की मामूली बातों में बहक कर अपना ही शहर आग के हवाले करने लगे हैं
लेकिन, एक अच्छी अपील आपको अपील नहीं करती।
तो फिर हर बात के लिए मीडिया को मत कोसिए।
कोबरा पोस्ट के स्टिंग ने बड़ी राहत दी है। स्टिंग ने साफ कर दिया है कि मीडिया
मालिकों को बस पैसे चाहिए। इसके लिए वो दंगे करवाने को तैयार हैं। सैकड़ों लोगों
की हत्या करवा कर, हज़ारों घरों को राख मिलवा कर उन्हें खुशी होगी अगर इसके लिए उन्हें
कोई पैसे देता है। वो आपके बच्चों को दंगाई बनाकर उस जंगल में धकेलने को तैयार हैं
जहां कहां से छूटी किसकी गोली किसके सीने में धंस जाए ये किसी को पता नहीं होता।
स्टिंग ऑपरेशन में जिन मीडिया घरानों को आपने
बेनकाब होता देखा है क्या आप उनका चैनल देखना, उनका अख़बार पढ़ना बंद करेंगे ? अगर हां, तब तो आपको ये नैतिक अधिकार है कि आप एक
पत्रकार से पत्रकारिता की उम्मीद करें। और, अगर नहीं तो फिर आपको ये अधिकार नहीं
कि आप किसी को बिकाऊ मीडिया कहें।
और आख़िरी बात अपने पत्रकार साथियों से। आप
सब मुझसे वरिष्ठ हैं। किसी नैतिक दबाव में मत आइए। कोबरा के डंक से बस कुछ अखबार
और चैनल बचे हैं। ज़रूरी नहीं कि ये सारे बिकाऊ नहीं हों। और इनमें से जो बिकाऊ
नहीं होंगे वो आपकी ईमानदारी से खुश होकर आपको नौकरी नहीं दे देंगे। और जिस
राष्ट्र-समाज की वजह से आप नैतिक दबाव महसूस कर रहे हैं न वो आपको एक दिन के लिए
भी पूछने नहीं आएगा। ध्यान रहे आप बिकाऊ नहीं हैं। बस इस बात का ध्यान रखिए कि आप
खुद किसी को ब्लैकमेल न कीजिए और ना ही झूठी ख़बर चला कर किसी का मान हनन कीजिए। लेकिन
नौकरी छोड़कर आप कोई क्रांति नहीं कर पाएंगे। फिलहाल प्रेमचंद की कहानी नमक का
दारोगा पढ़िए। कहानी के पात्र ईमानदार दारोगा की जब नौकरी गई तो उसे नमक तस्कर
अलोपीदीन की ही नौकरी करनी पड़ी थी। हम पत्रकारों को मालूम होना चाहिए कि हम
अलोपीदीन की औलादों की नौकरी कर रहे हैं।