बिहार में आउटसोर्सिंग में आरक्षण की व्यवस्था देने के बाद सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्राइवेट सेक्टर में भी आरक्षण की वकालत कर एक ही दांव में कइयों को चित कर दिया है। आउटसोर्सिंग में आरक्षण की घोषणा के ठीक बाद ऐसा लगा जैसे नीतीश कुमार को अपने सहयोगी दल भारतीय जनता पार्टी के विरोध का ही सामना करना पड़ेगा। भाजपा के वरिष्ठ नेता और सांसद डॉ सीपी ठाकुर ने नीतीश कुमार से तपाक से ये सवाल तक पूछ दिया कि क्या सड़क पर चलने में भी आरक्षण की व्यवस्था लागू करेंगे ? डॉ सीपी ठाकुर के सवाल का जवाब नीतीश कुमार ने तो नहीं दिया लेकिन डॉ ठाकुर की पार्टी के ही बड़े नेता ने उनके सवाल को बेहद हल्का कर नीतीश कुमार के दांव को मजबूती दे दी। भाजपा के ही बड़े नेता और सूबे के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने आउटसोर्सिंग में आरक्षण की वकालत कर पार्टी का स्टैंड साफ कर दिया और अपनी पार्टी के नेता सीपी ठाकुर के विरोध को हाशिए पर धकेल दिया।
नीतीश कुमार राजनीति के दांव बेहद सधे अंदाज में चलते रहे हैं। 1989-90 में जब मंडल आंदोलन चरम था तब बिहार में नीतीश कुमार उस आंदोलन की दूसरी पंक्ति के नेता थे। बिहार में तब लालू प्रसाद मंडल आंदोलन को लेकर आगे बढ़ रहे थे। मंडल आंदोलन ने लालू प्रसाद को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया और लालू के साथ तन कर खड़े रहे नीतीश कुमार को राज्य स्तर पर नई पहचान दी। नीतीश कुमार हमेशा वैसाखी के सहारे सत्ता का सफर तय करते रहे हैं। 1994 में लालू प्रसाद से अलग होने को बाद समता पार्टी बना कर नीतीश कुमार ये समझ चुके थे कि वो अकेले दम पर बिहार की राजनीति में बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे। 1995 में नीतीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन कर लिया। इस गठबंधन के जरिए कोशिश की गई कि भाजपा के सवर्ण मतदाताओं के साथ नीतीश के पिछड़ा वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग मतदाताओं को जोड़कर बिहार की सत्ता हासिल कर ली जाए। तब सत्ता तो नहीं मिली लेकिन आरक्षण के रथ पर सवार लालू प्रसाद के रथ के घोड़े ज़रूर बिदकने लगे और लालू प्रसाद आरक्षण हासिल करने वाले तबकों कमजोर पड़ने लगे। कोइरी-कुर्मी बिरादरी लालू प्रसाद दूर होने लगी। हलांकि तब भी नीतीश कुमार पिछड़ों में उतनी मजबूत पकड़ नहीं बना सके जिससे कि अकेले दम पर उनकी सरकार बन जाए। 10 सालों का संघर्ष और लालू प्रसाद के कुशासन ने 2005 में नीतीश कुमार को भाजपा के सहयोग से बिहार की सत्ता दिला दी। 10 सालों तक बिहार का मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में अपना कद इतना बड़ा नहीं कर पाए जिसके आसरे वो चुनाव लड़ सकें। 2015 में भाजपा से नाता तोड़कर नीतीश कुमार को फिर लालू प्रसाद का सहारा लेना पड़ा। लालू प्रसाद ने एक बार फिर आरक्षण हासिल करने वाले तबकों को एकजुट करने की कोशिश शुरू की। नतीजे समाने आए तो भाजपा को सांप सूंघ गया। बिहार ने 2014 वाले मोदी लहर को किनारे लगा दिया और मोदी विरोध में खड़े गठबंधन को बिहार की सत्ता दे दी। इतना ही नहीं नातीश कुमार की पार्टी जदयू अपनी सहयोगी राजद से सीट के मामले में पिछड़ गई। नीतीश कुमार को इस बात का एहसास हो गया कि बिहार में लोकप्रियता के पैमाने पर लालू प्रसाद के मुकाबले अभी भी वो निचले पायदान पर हैं। नीतीश कुमार ये पहले से जानते हैं कि वो अकेले दम पर बिहार की सत्ता हासिल नहीं कर सकते।
नीतीश कुमार के पास दो ही विकल्प हैं या तो वो लालू प्रसाद के साथ रहें या फिर भाजपा के साथ। लालू प्रसाद के साथ रहने में बड़ा खतरा ये है कि जब पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग का नेता लालू प्रसाद ही रहेंगे तो फिर नीतीश क्या रहेंगे ? लिहाजा नीतीश कुमार ने बिना कोई ठोस वजह बताए राजद से गठबंधन तोड़ लिया और अगले ही दिन भाजपा से गठबंधन कर सरकार ना ली। बिहार की राजनीतिक बिसात पर चतुर चालें चलने वाले नीतीश कुमार को इस बात का एहसास है कि भाजपा को कमजोर किए बिना उनके लिए भविष्य की गठबंधन राजनीति आसान नहीं है। राजनीति के गलियारों में अभी ही कभी-कभार ये बात तैरने लगती है कि अगला मुख्यमंत्री भाजपा का होगा। जाहिर है नीतीश कुमार इस तैरती बात को हवा में ही हवा-हवाई बना देना चाहेंगे।आउटसोर्सिंग में आरक्षण के बाद प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण की वकालत कर नीतीश ने वो चाल चल दी है। नीतीश के इस एक बयान से भाजपा का सवर्ण वोटर सतर्क हो गया है। डॉ सीपी ठाकुर के विरोध की हवा खुद उनकी ही पार्टी के नेता सुशील कुमार ने निकाल दी है। माना जा रहा है कि नीतीश की बिसात पर चली गई ये चाल भाजपा की आंतरिक कमजोरी को जगजाहिर करेगी। बिहार में भूरा बाल साफ करो का नारा देने वाले लालू प्रसाद की ज़मीन हथियाने के साथ नीतीश कुमार का ये दांव भाजपा को भारी पड़ सकता है। भूरा बाल मतलब भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला। ये चारों सवर्ण जातियां बिहार में भाजपा का वोटर मानी जाती हैं। 1990 के बाद बिहार की राजनीति में ब्राह्मण हाशिए पर चले गए और 1995 आते-आते राजपूत भी महज वोटर बनकर रह गए। फिलहाल अकेले भूमिहार तबका ही सवर्ण सियासत को धार देता दिख रहा है। लेकिन आरक्षण के मसले पर बिहार बीजेपी के बड़े भूमिहार नेता डॉ सीपी ठाकुर को जिस तरह से भाजपा ने किनारे लगाया उससे ये साफ हो गया कि पार्टी अब सवर्ण नेतृत्व को बहुत तवज्जो देने की सोच से खुद को बाहर कर रही है। मतलब सवर्ण मतदाताओं को भाजपा से दूर कर नीतीश कुमार ने भाजपा को कमजोर करने की चाल तो चल ही दी है साथ में प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण की पैरोकारी कर लालू की ज़मीन खिसकाने का इंतजाम कर दिया है। नीतीश कुमार ये जानते हैं कि सवर्ण अगर भाजपा से नाराज हुए भी तो राजद के साथ नहीं जाएंगे। सवर्ण वोट बिखरेगा और इसका फायदा सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार को होगा। मतलब मंडल की चाल से नीतीश ने मंडल और कमंडल दोनों को अपनी बिसात पर शह दे दी है।