कोई
भी अपनी मर्जी से कम वेतन पर काम नहीं करता। वो अपने सम्मान और गरिमा की कीमत पर
अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए इसे स्वीकार करता है। वो अपनी और अपनी प्रतिष्ठा
की कीमत पर ऐसा करता है क्योंकि उसे पता होता है कि अगर वो कम वेतन पर काम नहीं
करेगा तो उस पर आश्रित इससे बहुत पीड़ित होंगे
कम वेतन देने या ऐसी कोई और स्थिति बंधुआ मजदूरी के समान है। इसका उपयोग अपनी प्रभावशाली स्थिति का फायदा उठाते हुए किया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि ये कृत्य शोषणकारी, दमनकारी और परपीड़क है और इससे अस्वैच्छिक दासता थोपी जाती है।
26 अक्टूबर 2016 को देश की सबसे बड़ी अदालत
ने एक मुकदमे का फैसला सुनाते हुए जब ये टिप्पणी की तो देशभर में अस्थाई नौकरी
करने वालों का संविधान पर भरोसा पहले से अधिक बढ़ गया। कोर्ट के इस फैसले के कुछ
दिनों बाद ही बिहार में दसवीं और बारहवीं की परीक्षाएं हुईं। इन परीक्षाओं के
दौरान की कुछ तस्वीरें जब मीडिया के जरिए सामने आईं तो देश भर में बिहार की शिक्षा
व्यवस्था की जबर्दस्त किरकिरी हुई। दीवारों पर चमगादड़ों की तरह लटके इंसानों को
देखकर हर आदमी हैरत में पड़ा। छज्जे और खिड़कियों पर लटकी ये भीड़ परीक्षा में
चोरी करवाने वालों की थी। देश भर में हुई इसी किरकिरी से बचने के लिए 2017 में
बारहवीं की परीक्षा में चोरी रोकने की हरसंभव कोशिशें की गईं और इसके बाद जो नतीजे
सामने आए उसने राज्य की बर्बाद हो चुकी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी। इस
साल 65 फीसदी से ज्यादा छात्र फेल हो गए।
फेल होने वालों छात्रों की ये भीड़ 12 साल
पहले सरकारी स्कूल में आई होगी। इन छात्रों ने ठीक उसी साल पहली क्लास में कदम रखे
जिस साल नीतीश कुमार बिहार का मुख्यमंत्री बने। 2005 से अब तक नीतीश कुमार की
सरकार बिहार में शिक्षा के स्तर को सुधारने के दावे करती रही है और नतीजों को
झुठलाते उनकी पार्टी के प्रवक्ता सरकार का बचाव करते रहे हैं। लेकिन बिहार में
शिक्षा व्यवस्था का सच ये है कि राज्य में साढ़े 72 हजार प्राइमरी स्कूलों में सवा
दो करोड़ बच्चे पढ़ते हैं और इनको पढ़ाने के लिए साढ़े चार लाख शिक्षक हैं। इस
साढ़े चार लाख शिक्षकों में 3 लाख 80 हजार से ज्यादा नियोजित शिक्षक हैं और 68
हजार के करीब स्थाई नियुक्ति वाले शिक्षक हैं। इन नियोजित शिक्षकों को महीने में 11-12
हजार रुपये मानदेय दिया जाता है। यही हाल राज्य के हाई और +2 स्कूलों
का है। 2934 हाई और +2स्कूलों में 35 लाख से ज्यादा छात्र हैं और उनको पढ़ाने के लिए महज
42 हजार शिक्षक हैं। शिक्षा का अधिकार कानून के तहत फिलहाल तकरीबन 7 लाख शिक्षकों
की कमी है। ये आंकड़ा अभी और बढ़ सकता है अगर सरकार ये बता दे कि 2006 से 2016 के
बीच कितने नियोजित शिक्षकों ने नौकरी छोड़ दी है। दरअसल +2 के
शिक्षकों को हर मीहने 14 हजार 232 रुपये मानदेय और हाई स्कूल के शिक्षकों को हर
महीने तकरीबन 13 हजार रुपये दिए जाते हैं। जाहिर है इससे ज्यादा पैसा मिलते ही
शिक्षक कहीं और चले जाते हैं। बिहार के हजारों शिक्षकों ने झारखंड में शिक्षक की
सरकारी नौकरी हासिल कर ली और बिहार से चले गए। हजारों नियोजित शिक्षकों ने किसी
दूसरे विभाग में नौकरी तलाश ली या फिर अपना ट्यूशन सेंटर खोल लिया।
हैरानी की बात ये रही कि 2006 से अब तक राज्य
में शिक्षक नियोजन की प्रक्रिया चलती रही, जैसे-तैसे स्कूलों को चलाया जाता रहा और
आम समाज खामोश रहा।
ऊपर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र इसलिए
ज़रूरी था क्योंकि तब सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि ये फैसला हर किस्म के
अस्थाई कर्मचारियों पर लागू होता है।
देश के कई राज्यों की सरकारों ने बेहद चालाकी
से सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बचने का रास्ता तलाशा। हद तो ये कि बिहार सरकार
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हाई कोर्ट के फैसले को मानने को तैयार नहीं है।
ऊपर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र इसलिए
भी ज़रूरी था क्योंकि हाल ही में 31 अक्टूबर को पटना हाई कोर्ट ने बिहार के
अलग-अलग शिक्षक संघों की तरफ से दायर याचिका पर फैसला सुनाया। कोर्ट ने नियोजित
शिक्षकों को समान काम के लिए समान वेतन देने का आदेश राज्य की सरकार को दिया।
फैसले के तत्काल के बाद बिहार के शिक्षा मंत्री कृष्णनंदन वर्मा ने ये कह दिया कि
हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाएगी। लेकिन जब उनसे ये पूछा
गया कि क्या उन्हें हाई कोर्ट के फैसले की पूरी जानकारी है तो वो सकते आ गए। जैसे कोर्ट
का फैसला जाने बिना ही सरकार पहले से ही सुप्रीम कोर्ट जाने का मन बना चुकी हो।
चपरासी से भी कम वेतन पा रहे इन शिक्षकों को स्थाई शिक्षकों के बराबर वेतन देने से
बचने के लिए सरकार तमाम रास्ते तलाशती दिख रही है।
ऐसा लग रहा है जैसे सरकारों ने अदालती आदेशों
का माखौल बनाने का माहौल सा गढ़ लिया है। सरकारें खुद कानून का पालन करती नहीं दिख
रहीं हैं।
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