Friday, February 16, 2018

हे गंगा मइया, तोहर कौनो नाहीं सुनइया

  तो सूख जाएगी गंगा, ब्रह्मपुत्र में उड़ेगी धूल और पानी के लिए तरसेगा इंसान
नीति आयोग के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग ने जल संरक्षण पर जो रिपोर्ट तैयार की है वो रिपोर्ट बता रही है कि धरती पर अब जीवन की संभावनाएं सूखती जी रही हैं। जीवन को सबसे बड़ा खतरा भारत में ही है। रिपोर्ट बताती है कि हिमालय से निकलने वाली आधी से ज्यादा जलधाराएं सूखने के कगार पर हैं। हिमालय के अलग-अलग हिस्सों से 55 से 60 लाख के बीच जलधाराएं निकलती हैं। इनमें से 30 से ज्यादा तो सिर्फ भारतीय हिमालयी क्षेत्र से निकलती हैं।    
  राष्ट्रीय नदी गंगा के उदगम स्थल गोमुख का आकार लगातार बदल रहा है। इतना ही नहीं गंगोत्री हिमखंड खिसकता जा रहा है। गंगोत्री हिमखंड के लगातार पीछे खिसकने से गंगा का मुख्य जल स्त्रोत ही संकट में पड़ गया है। गंगोत्री हिमखंड सालाना 22 मीटर पीछे खिसक रहा है। इसी के साथ बाकी तमाम ग्लेशियर सालाना तकरीबन 10 मीटर पीछे खिसक रहे हैं। इनका आकार छोटा और पतला होता जा रहा है। केदरनाथ त्रासदी की वजह से बने गंगोत्री के चैरावाड़ी, दूनागिरी और डुकरानी ग्लेशियर अस्तित्व के संकट से जूझने लगे हैं। जानकार बताते हैं कि हिमनद के पीछे खिसकने से उनकी मोटाई घटती जा रही है और हालात यही रहे तो फिर जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, नागालैंड, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, मणिपुर और मिजोरम के पांच करोड़ लोग पानी के लिए तरस जाएंगे। छोटी-बड़ी हजारों नदियों में पानी का संकट खड़ा होगा तो फिर उत्तर भारत की धरती सूखने लगेगी। सिर्फ बारिश के भरोसे धरती में पानी अस्तित्व नहीं बच सकता।
   जलवायु परिवर्तन के कारण हिमखंड लागातार घट रहे हैं। पानी की खपत लगातार बढ़ रही है और पेड़ कटने की वजह से पहाड़ी भूमि का चरित्र बदलता जा रहा है। जल विद्युत् परियोजनाओं की वजह से हिमालयी नदियों का दोहन बढ़ता जा रहा है। इंसानी जरूरतों के लिए जल, जंगल और पहाड़ को निचोड़ा जा रहा है। एक बार पिर भागीरथी पर लोहारी-नागपाला परियोजना की हलचल बढ़ा दी गई है। 2010 में जब प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री थे तब उन्होंने इस परियोजना को बंद करवा दिया था। तब पर्यावरणविदों ने बताया था कि इस परियोजना की वजह से पहाड़ों का सीना चीरकर जो सुरंगें बनाई जा रहीं हैं वो तबाही का कारण बन जाएंगी। इन सुरंगों के बनने से तब विष्णु प्रयाग और गणेश प्रयाग पूरी तरह से सूख गए थे। जल विद्युत परियोजना के लिए जो विस्फोट किए गए उनकी वजह से हिमखंड से ढंकी चट्टाने दरक गईं, ग्लेशियर टूट गए और अपने मूल स्थान से खिसक गए। प्रणब मुखर्जी ने उस परियोजना के बंद करवा दिया था। अब एक बार फिर उसे शुरू करने की तैयारी है। अब एक बार फिर पानी के खिलाफ इंसानी साजिश तेज हो गई है।
  आलम ये है कि अब हो चुके नुकसान की भरपाई संभव नहीं है और जो बचा है उसे बचाने की चुनौती हम स्वीकार नहीं कर रहे हैं। तमाम संसाधानों को जुटाने की हमारी ख्वाहिश, भीड़तंत्र में बदल चुके लोकतंत्र वाले विकास की भेड़चाल में हांफती हमारी सरकारें और बस खुद जी लेने भर की हमारी चाहत ने हमें उस मुहाने पर ला खड़ा किया है जहां आगे मौत है और पीछे हमने ही सब कुछ सोख लिया है। अब वो दिन दूर नहीं जब गंगा सिर्फ बरसाती बनकर रह जाएगी और फिर वो दिन भी दूर नहीं जब बरसात भी नहीं होगी।


Wednesday, February 14, 2018

ठेकेदारी से बाहर निकल कर ही खड़ा हो सकता है दलित अस्मिता का संघर्ष

भारत में दलित समाज अगर कल तक दक्खिन टोले में सिसक रहा था तो आज भी वो पूरब में हंसता-खिलखिलाता समाज नहीं गढ़ पाया है। मतलब तब सिसक रहा था अब भी हाशिए पर खड़ा पूरब टोले की ओर टकटकी लगाए देख रहा है। तकरीबन 20 करोड़ की ये आबादी आज भी शादी-व्याह में घोड़े पर सवार होने की जंग में शामिल है। आज भी गांव के मुख्य सड़क से बारात निकालने का संघर्ष देख रहा है। सरकारी नौकरियों और लोकसभा-विधानसभाओं में आरक्षण के लाभ के बावजूद दलित समाज का बड़ा हिस्सा अगर आज भी हाशिए पर खड़ा है तो इसके पीछे दलित समाज के भीतर की वजहों की पड़ताल भी होनी चाहिए। क्योंकि रिजर्व सीट की नौकरी को न तो किसी सवर्ण ने हथियाई और ना ही रिजर्व सीट से बने सांसद-विधायकों को उनके अधिकारों से किसी ने वंचित किया। तो फिर देश का ये मेहनतकश तबका आज भी कतार के सबसे पीछे क्यों खड़ा है ? आइए इस सवाल का जवाब खोजते हैं।
...आरक्षण नीति की खामियां...
दलितों को मिलने वाले आरक्षण में खामियां ही खामियां हैं। चाहे वो सरकारी नौकरियों में मिलने वाला आरक्षण हो या फिर शिक्षण संस्थानों में एडमिशन के लिए मिलने वाला आरक्षण। लोकसभा-विधानसभा चुनावों में मिलने वाले आरक्षण के ढांचे में भी बुनियादी खराबी है। इस ढांचे ने दलित समाज के एक छोटे तबके को सवर्ण खांचे में तो ज़रूर डाल दिया लेकिन बाद में दलितों के बीच पैदा हुआ यही सवर्ण तबका दलितों का शोषक बनता गया। मसलन जिसको एक बार आरक्षण का लाभ मिला वो नौकरी के जरिए आर्थिक रूप से मजबूत हुआ, सामाजिक हैसियत बढ़ाता गया और फिर संसधानों पर कब्जे के जरिए अपने बाल-बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर उन्हें भी आरक्षण के जरिए नौकरी में पहुंचाता गया। मतलब जिसने एक बार आरक्षण के जरिए कुछ हासिल कर लिया वो अपनी पीढ़ियों को आरक्षण का अधिकारी बनाता गया और अपने पड़ोसी को उसका फायदा मिलने से रोकता गया। ये सिर्फ नौकरियों में ही नहीं हुआ, ये राजनीति में भी खूब हुआ। बिहार में रामविलास पासवान को 2014 में बीजेपी गठबंधन ने चार सीटें दीं जिनमें एक सीट पर वो खुद, दूसरे पर उनके छोटे भाई रामचंद्र पासवान और तीसरे पर उनके बेटे ने चुनाव लड़ा। चौथी सीट सामान्य थी इसलिए वहां से उन्होंने किसी दलित को टिकट नहीं दिया। जबकि होना ये चाहिए कि उन्हें खुद अब सामान्य सीट से चुनाव लड़कर, आरक्षित सीट पर हाशिए पर खड़े किसी दलित को टिकट देना चाहिए। लेकिन पूरे बिहार में दलित के नाम पर उनको अपने भाई और बेटे के अलावा कोई नहीं दिखा। इस तरह से उन्होंने तीन वैसे दलितों को उनके अधिकारों से वंचित किया जो सत्ता में भागीदारी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यही हाल सरकारी नौकरियों में हुआ। आरक्षण के जरिए नौकरी पा चुके लोग अगली आरक्षण पर भी अपने बेटों-बेटियों का हक समझने लगे हैं। जबकि वो लोग इतने सक्षम हो चुके हैं कि अपने बच्चों को सामान्य कोटे के संघर्ष में उतार कर आरक्षण वाले कोटे में हाशिए पर खड़े लोगों को मौका दे सकें। जाहिर है आरक्षण नीति की इन खामियों ने दलित समाज में सवर्ण तबका खड़ा कर नए सिरे से शोषण का रास्ता खोल दिया है। 

...दलित ठेकेदारी... 
डॉ राम मनोहर लोहिया ने अपनी कुछ किताबों में पंडित जवाहर लाल नेहरु और डॉ भीम राव अंबेडकर के संबंधों का जिक्र किया है। वो लिखते हैं कि बाबा साहब को देख कर पंडित नेहरु खड़े हो जाते थे और हाथ जोड़ कर उनका अभिवानदन करते थे। लेकिन बाबा साहब कभी भी नेहरु के देख कर कुर्सी से खड़े नहीं होते थे और ना ही पहले हाथ जोड़ते थे। ये वो दौर था जब जातिवाद आज के मुकाबले कहीं ज्यादा था। पंडित नेहरु सारस्वत ब्राह्मण थे और बाबा साहब दलित। मतलब ये कि दलित संघर्षों को, दलित हितों को सिर्फ जाति के खांचे तक रखा गया तो नतीजे कभी अच्छे नहीं होंगे। हमें अंबेडकर के साथ-साथ नेहरु के नजरिए को भी अपनाना होगा। दलित संघर्ष की सबसे बड़ी त्रासदी है दलित समाज की ठेकेदारी। सियासी ठेकेदारी कर रहे कुछ नेताओं ने अपने परिजनों को दलित सियासत की सत्ता दिलाई और बड़े तबके को हाशिए पर खड़ा किए रखा। यही काम ज्यादातर दलित सामाजिक संघर्ष के ठेकेदारों ने भी किया। दलित समाज में खड़ा बौद्धिक वर्ग भी दलित ठेकेदार ही बना रहा। इन तमाम लोगों ने मिलकर उस प्रगतिशील वर्ग के खिलाफ ही माहौल गढ़ा जो लोग गैर दलित वर्ग से होते हुए भी दलित हितों का संघर्ष खड़ा करते रहे। एक कदम बढ़कर जिन लोगों ने दलित हितों का संघर्ष खड़ा किया उन लोगों के संघर्ष को दलित ठेकेदारों ने हमेशा खारिज किया या फिर उस संघर्ष को ही साजिशन संदेह के दायरे में घेरे रखा। हर प्रगतिशील विचार से इस ठेकेदार तबके को खतरा महसूस होता रहा। ये ठेकेदार तबका दलित संघर्ष की पूरी ठेकेदारी अपने कब्जे में रखने की साजिश करता रहा और देश का बड़ा दलित तबका हाशिए पर धकेला जाता रहा। 
दलित अस्मिता का संघर्ष सामाजिक सहयोग के जरिए ही मुकाम पा सकता है। अगर आप चाहते हैं कि दलित और सवर्ण एक साथ, एक टोले में, एक संस्कृति का हिस्सा बन कर रहें तो फिर दलित संघर्षों को दलित ठेकेदारों के चंगुल से आज़ाद कराना होगा।

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि ये बजट देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने ये बात यूं ही नहीं कही है। वर्ल्ड बैंक के अ...