तो सूख जाएगी गंगा, ब्रह्मपुत्र में उड़ेगी धूल और पानी के लिए तरसेगा इंसान
नीति आयोग के विज्ञान और
प्रौद्योगिकी विभाग ने जल संरक्षण पर जो रिपोर्ट तैयार की है वो रिपोर्ट बता रही
है कि धरती पर अब जीवन की संभावनाएं सूखती जी रही हैं। जीवन को सबसे बड़ा खतरा
भारत में ही है। रिपोर्ट बताती है कि हिमालय से निकलने वाली आधी से ज्यादा
जलधाराएं सूखने के कगार पर हैं। हिमालय के अलग-अलग हिस्सों से 55 से 60 लाख के बीच
जलधाराएं निकलती हैं। इनमें से 30 से ज्यादा तो सिर्फ भारतीय हिमालयी क्षेत्र से
निकलती हैं।
राष्ट्रीय नदी गंगा के उदगम स्थल गोमुख का आकार
लगातार बदल रहा है। इतना ही नहीं गंगोत्री हिमखंड खिसकता जा रहा है। गंगोत्री
हिमखंड के लगातार पीछे खिसकने से गंगा का मुख्य जल स्त्रोत ही संकट में पड़ गया
है। गंगोत्री हिमखंड सालाना 22 मीटर पीछे खिसक रहा है। इसी के साथ बाकी तमाम
ग्लेशियर सालाना तकरीबन 10 मीटर पीछे खिसक रहे हैं। इनका आकार छोटा और पतला होता
जा रहा है। केदरनाथ त्रासदी की वजह से बने गंगोत्री के चैरावाड़ी, दूनागिरी और
डुकरानी ग्लेशियर अस्तित्व के संकट से जूझने लगे हैं। जानकार बताते हैं कि हिमनद
के पीछे खिसकने से उनकी मोटाई घटती जा रही है और हालात यही रहे तो फिर
जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, नागालैंड,
पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, मणिपुर और मिजोरम के पांच करोड़ लोग पानी के लिए तरस
जाएंगे। छोटी-बड़ी हजारों नदियों में पानी का संकट खड़ा होगा तो फिर उत्तर भारत की
धरती सूखने लगेगी। सिर्फ बारिश के भरोसे धरती में पानी अस्तित्व नहीं बच सकता।
जलवायु परिवर्तन के कारण हिमखंड लागातार घट
रहे हैं। पानी की खपत लगातार बढ़ रही है और पेड़ कटने की वजह से पहाड़ी भूमि का
चरित्र बदलता जा रहा है। जल विद्युत् परियोजनाओं की वजह से हिमालयी नदियों का दोहन
बढ़ता जा रहा है। इंसानी जरूरतों के लिए जल, जंगल और पहाड़ को निचोड़ा जा रहा है।
एक बार पिर भागीरथी पर लोहारी-नागपाला परियोजना की हलचल बढ़ा दी गई है। 2010 में
जब प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री थे तब उन्होंने इस परियोजना को बंद करवा दिया था।
तब पर्यावरणविदों ने बताया था कि इस परियोजना की वजह से पहाड़ों का सीना चीरकर जो
सुरंगें बनाई जा रहीं हैं वो तबाही का कारण बन जाएंगी। इन सुरंगों के बनने से तब
विष्णु प्रयाग और गणेश प्रयाग पूरी तरह से सूख गए थे। जल विद्युत परियोजना के लिए
जो विस्फोट किए गए उनकी वजह से हिमखंड से ढंकी चट्टाने दरक गईं, ग्लेशियर टूट गए
और अपने मूल स्थान से खिसक गए। प्रणब मुखर्जी ने उस परियोजना के बंद करवा दिया था।
अब एक बार फिर उसे शुरू करने की तैयारी है। अब एक बार फिर पानी के खिलाफ इंसानी
साजिश तेज हो गई है।
आलम ये है कि अब हो चुके नुकसान की भरपाई संभव
नहीं है और जो बचा है उसे बचाने की चुनौती हम स्वीकार नहीं कर रहे हैं। तमाम
संसाधानों को जुटाने की हमारी ख्वाहिश, भीड़तंत्र में बदल चुके लोकतंत्र वाले
विकास की भेड़चाल में हांफती हमारी सरकारें और बस खुद जी लेने भर की हमारी चाहत ने
हमें उस मुहाने पर ला खड़ा किया है जहां आगे मौत है और पीछे हमने ही सब कुछ सोख
लिया है। अब वो दिन दूर नहीं जब गंगा सिर्फ बरसाती बनकर रह जाएगी और फिर वो दिन भी
दूर नहीं जब बरसात भी नहीं होगी।