Wednesday, February 14, 2018

ठेकेदारी से बाहर निकल कर ही खड़ा हो सकता है दलित अस्मिता का संघर्ष

भारत में दलित समाज अगर कल तक दक्खिन टोले में सिसक रहा था तो आज भी वो पूरब में हंसता-खिलखिलाता समाज नहीं गढ़ पाया है। मतलब तब सिसक रहा था अब भी हाशिए पर खड़ा पूरब टोले की ओर टकटकी लगाए देख रहा है। तकरीबन 20 करोड़ की ये आबादी आज भी शादी-व्याह में घोड़े पर सवार होने की जंग में शामिल है। आज भी गांव के मुख्य सड़क से बारात निकालने का संघर्ष देख रहा है। सरकारी नौकरियों और लोकसभा-विधानसभाओं में आरक्षण के लाभ के बावजूद दलित समाज का बड़ा हिस्सा अगर आज भी हाशिए पर खड़ा है तो इसके पीछे दलित समाज के भीतर की वजहों की पड़ताल भी होनी चाहिए। क्योंकि रिजर्व सीट की नौकरी को न तो किसी सवर्ण ने हथियाई और ना ही रिजर्व सीट से बने सांसद-विधायकों को उनके अधिकारों से किसी ने वंचित किया। तो फिर देश का ये मेहनतकश तबका आज भी कतार के सबसे पीछे क्यों खड़ा है ? आइए इस सवाल का जवाब खोजते हैं।
...आरक्षण नीति की खामियां...
दलितों को मिलने वाले आरक्षण में खामियां ही खामियां हैं। चाहे वो सरकारी नौकरियों में मिलने वाला आरक्षण हो या फिर शिक्षण संस्थानों में एडमिशन के लिए मिलने वाला आरक्षण। लोकसभा-विधानसभा चुनावों में मिलने वाले आरक्षण के ढांचे में भी बुनियादी खराबी है। इस ढांचे ने दलित समाज के एक छोटे तबके को सवर्ण खांचे में तो ज़रूर डाल दिया लेकिन बाद में दलितों के बीच पैदा हुआ यही सवर्ण तबका दलितों का शोषक बनता गया। मसलन जिसको एक बार आरक्षण का लाभ मिला वो नौकरी के जरिए आर्थिक रूप से मजबूत हुआ, सामाजिक हैसियत बढ़ाता गया और फिर संसधानों पर कब्जे के जरिए अपने बाल-बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर उन्हें भी आरक्षण के जरिए नौकरी में पहुंचाता गया। मतलब जिसने एक बार आरक्षण के जरिए कुछ हासिल कर लिया वो अपनी पीढ़ियों को आरक्षण का अधिकारी बनाता गया और अपने पड़ोसी को उसका फायदा मिलने से रोकता गया। ये सिर्फ नौकरियों में ही नहीं हुआ, ये राजनीति में भी खूब हुआ। बिहार में रामविलास पासवान को 2014 में बीजेपी गठबंधन ने चार सीटें दीं जिनमें एक सीट पर वो खुद, दूसरे पर उनके छोटे भाई रामचंद्र पासवान और तीसरे पर उनके बेटे ने चुनाव लड़ा। चौथी सीट सामान्य थी इसलिए वहां से उन्होंने किसी दलित को टिकट नहीं दिया। जबकि होना ये चाहिए कि उन्हें खुद अब सामान्य सीट से चुनाव लड़कर, आरक्षित सीट पर हाशिए पर खड़े किसी दलित को टिकट देना चाहिए। लेकिन पूरे बिहार में दलित के नाम पर उनको अपने भाई और बेटे के अलावा कोई नहीं दिखा। इस तरह से उन्होंने तीन वैसे दलितों को उनके अधिकारों से वंचित किया जो सत्ता में भागीदारी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यही हाल सरकारी नौकरियों में हुआ। आरक्षण के जरिए नौकरी पा चुके लोग अगली आरक्षण पर भी अपने बेटों-बेटियों का हक समझने लगे हैं। जबकि वो लोग इतने सक्षम हो चुके हैं कि अपने बच्चों को सामान्य कोटे के संघर्ष में उतार कर आरक्षण वाले कोटे में हाशिए पर खड़े लोगों को मौका दे सकें। जाहिर है आरक्षण नीति की इन खामियों ने दलित समाज में सवर्ण तबका खड़ा कर नए सिरे से शोषण का रास्ता खोल दिया है। 

...दलित ठेकेदारी... 
डॉ राम मनोहर लोहिया ने अपनी कुछ किताबों में पंडित जवाहर लाल नेहरु और डॉ भीम राव अंबेडकर के संबंधों का जिक्र किया है। वो लिखते हैं कि बाबा साहब को देख कर पंडित नेहरु खड़े हो जाते थे और हाथ जोड़ कर उनका अभिवानदन करते थे। लेकिन बाबा साहब कभी भी नेहरु के देख कर कुर्सी से खड़े नहीं होते थे और ना ही पहले हाथ जोड़ते थे। ये वो दौर था जब जातिवाद आज के मुकाबले कहीं ज्यादा था। पंडित नेहरु सारस्वत ब्राह्मण थे और बाबा साहब दलित। मतलब ये कि दलित संघर्षों को, दलित हितों को सिर्फ जाति के खांचे तक रखा गया तो नतीजे कभी अच्छे नहीं होंगे। हमें अंबेडकर के साथ-साथ नेहरु के नजरिए को भी अपनाना होगा। दलित संघर्ष की सबसे बड़ी त्रासदी है दलित समाज की ठेकेदारी। सियासी ठेकेदारी कर रहे कुछ नेताओं ने अपने परिजनों को दलित सियासत की सत्ता दिलाई और बड़े तबके को हाशिए पर खड़ा किए रखा। यही काम ज्यादातर दलित सामाजिक संघर्ष के ठेकेदारों ने भी किया। दलित समाज में खड़ा बौद्धिक वर्ग भी दलित ठेकेदार ही बना रहा। इन तमाम लोगों ने मिलकर उस प्रगतिशील वर्ग के खिलाफ ही माहौल गढ़ा जो लोग गैर दलित वर्ग से होते हुए भी दलित हितों का संघर्ष खड़ा करते रहे। एक कदम बढ़कर जिन लोगों ने दलित हितों का संघर्ष खड़ा किया उन लोगों के संघर्ष को दलित ठेकेदारों ने हमेशा खारिज किया या फिर उस संघर्ष को ही साजिशन संदेह के दायरे में घेरे रखा। हर प्रगतिशील विचार से इस ठेकेदार तबके को खतरा महसूस होता रहा। ये ठेकेदार तबका दलित संघर्ष की पूरी ठेकेदारी अपने कब्जे में रखने की साजिश करता रहा और देश का बड़ा दलित तबका हाशिए पर धकेला जाता रहा। 
दलित अस्मिता का संघर्ष सामाजिक सहयोग के जरिए ही मुकाम पा सकता है। अगर आप चाहते हैं कि दलित और सवर्ण एक साथ, एक टोले में, एक संस्कृति का हिस्सा बन कर रहें तो फिर दलित संघर्षों को दलित ठेकेदारों के चंगुल से आज़ाद कराना होगा।

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