Saturday, July 21, 2018

संसदीय परंपरा सिर्फ राहुल क्यों निभाएं ?

भारतीय आम समाज में आंख मारने की कई वैरायटी मौजूद है...अलग-अलग मौकों पर आंख मारने के अलग-अलग मायने भी हैं.. बावजूद इसके आंख मारने की कोई संसदीय परंपरा नहीं रही.. जो परंपराएं रहीं हैं वो ध्वस्त हो रहीं हैं..लिहाजा नई परंपराओं के लिए जगह तो वैकेंट हो ही रही है..तो क्या आंख मारने को संसदीय परंपरा में शामिल कर लेना चाहिए.....आइए एक मनोरंजक-व्यग्यात्मक लेख पढ़िए..
आंख मार दी.. और ऐसे वक्त पर मारी, ऐसी जगह पर मारी की देश भर की आंखों में चुभ गई.. विरोधियों की आंखों में तो तीर जैसी जा धंसी.. माइक नहीं तोड़ी, मुक्का नहीं मारा, टेबल पर नहीं कूद पड़े...आंख मार दी...और बस लोकतंत्र की बची-खुची गरिमा को भी मिट्टी में मिला दिया.. लोकतंत्र में, लोकसभा में, माइक तोड़ने वाले आंखों के तारे बन जाते हैं, बांहें मड़ोरने वाले आंखों के लाल होते हैं.. मुक्का-मुक्की कर ली तो फिर मंत्री पद पक्का...लेकिन आंख मारी तो आंखों के शूल हो गए.. अब जो हुआ सो हुआ..सबकुछ सीरियस ही हो ऐसा ज़रूरी नहीं...भारतीय लोकतंत्र में जितनी आज़ादी चुनावी घोषणाओं के लिए है उतनी ही आज़ादी मनोरंजन के लिए भी है.. अब ये तो हमारा कसूर है कि मनोरंजन के अपने लोकतांत्रिक अधिकार का हम पूरा इस्तेमाल ही नहीं करते... आंख मारना अगर सभ्य लोकतंत्र को मंजूर नहीं है, तो न हो.. हमारे मनोरंजन को, रुमानियत को, शरारत को तो मंजूर है न.. तो फिर मनोरंजन कर चुकाए बिना हम मस्ती में डूबें तो इस संसदीय परंपरा को भला क्यों आपत्ती हो.. वो क्या है न हमारे मनोरंजन के संसार में आंखों ही आंखों में कई बातें हो जाया करती हैं... वैसे आंखों ही आंखों में इशारे होते रहे हैं और कई बड़े घोटाले भी होते रहे हैं.. लेकिन इस किस्म के इशारों से संसदीय व्यवस्था की गरिमा पर असर नहीं होता है..अब देखिए ना जिन लोगों ने लोकसभा में आंख मारने वाली घटना देखी वो दुनिया की बाकी घटनाओं को कुछ पल के लिए भूल गए और फिर यहीं से डाउट हुआ कि आंखमारू स्क्रिप्ट में हो न हो कुछ राज़ है..वरना आंख मारने को भला इतना बड़ा मुद्दा बनाया ही क्यों जाता ..खैर, सबकुछ हुआ, बस ये पता नहीं चला कि आंखों से तूने ये क्या कह दिया और थोड़ी देर पहले तक आंखें मिलाने की चुनौती देने वाले अचानक क्यों आंखें चुराने लगे.. कम से ये ही बता दिया होता कि अंखियों के झरोखे से देखा किसको था..खैर हम तो यही दुआ करेंगे कि किसी को आंखों की किरकिरी न बनाएं.. और फिर गुस्ताखियों को किनारे करते हुए आगे बढ़ें और लगे हाथ फुल एंटरटेनमेंट के लिए थोड़ी देर के लिए प्रिया प्रकाश को भी याद करें.. बहुत सारे गानों के बोल मैंने लिख दिए हैं..तुरत मोबाइल उठाइए और गानों में खो जाइए...बस आंख मत मारिएगा

Friday, July 20, 2018

ये झप्पी दूर तलक जाएगी


तो राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जादू की झप्पी दी...और फिर पीएम की पीठ थपथपाई... इसके तुरंत बाद मोदी ने उन्हें दोबारा अपने पास बुलाया..एक बार फिर राहुल को गले लगाया और इस बार पीएम ने राहुल की पीठ थपथपाई..तो ये कोई भरत मिलाप नहीं था...ये सियासी अदा थी.. और अदा ये कि राहुल ने अपने ऐक्शन से ये साबित करने की कोशिश की कि बीजेपी भले ही राहुल से नफरत करती हो..राहुल सबको गले लगाते हैं...मतलब ये कि बीजेपी भले ही राहुल को पप्पू मानती हो..राहुल विरोधियों का भी सम्मान करते हैं...मतलब ये कि कांग्रेस मोहब्बत की राजनीति करती है..और बीजेपी नफरत की राजनीति करती है
      तो राहुल का ये सियासी दांव कांग्रेस को ऑक्सीजन दे गया.. क्योंकि राहुल गांधी को ये खूब पता था कि अविश्वास प्रस्ताव के जरिए विपक्ष चाहे जो कर ले, सरकार को खतरे में नहीं ला पाएगा..पूरा विपक्ष इस अंकगणित को जान रहा था...विपक्ष तो बस वो मौका चाह रहा था जिस वक्त सत्ता और विपक्ष की ताकत देश के सामने ला सके.. इस अविश्वास प्रस्ताव के जरिए विपक्ष ने ये साबित कर दिया कि शिव सेना और बिजू जनता दल भले ही विपक्ष के साथ नहीं हों लेकिन सदन में ये सत्ता पक्ष के साथ भी नहीं हैं... बहस के दौरान वॉक आउट होते ही बीजेपी इस सियासत को भांप गई थी..वरना जिस राफेल डील के मसले पर सरकार सबकुछ ठीक होने के दावे कर रही है...उस राफेल मसले पर वो जवाब की बारी का इंतजार करती, तिलमिलाती नहीं..  
     तो जादू की झप्पी से लेकर पप्पू तक अविश्वास प्रस्ताव का सच ये है कि कांग्रेस ने इसमें भले ही लीड रोल नहीं किया हो लेकिन स्क्रिप्ट का सबसे महत्पूर्ण हिस्सा अपने लिए सुरक्षित रखा था...टीडीपी को आगे कर कांग्रेस ने सियासी आंख मारी और हार-जीत की जंग से खुद को बाहर रखा

Wednesday, July 18, 2018

मॉब लिंचिंग: राजपथ पर इठलाते हत्यारे


पास्टर निमोलर की एक कविता हमारे मौजूदा वक्त की ज़रूरत बन गई है। निमोलर ने लिखा था कि
पहले वो आए कम्यूनिस्टों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्यूनिस्ट नहीं था
फिर वो आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था
फिर वो आए यहूदियों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वो मेरे लिए आए
और तब तक कोई नहीं बचा था
जो मेरे लिए बोलता
लिहाजा, सुप्रीम कोर्ट को आखिरकार कहना पड़ा कि देश को भीड़ की मर्जी के हवाले नहीं कर सकते..ये कहना पड़ा कि भीड़ अपने-आप में कोई कानून नहीं है...ये कहना पड़ा कि भीड़ के भेड़ियों के खिलाफ सख्त कानून बनाइए...देश के किसी न किसी हिस्से में हर दूसरे दिन बौखलाई भीड़ किसी को मार रही है, किसी की हत्या कर रही है, किसी को पेड़ पर लटका रही है, किसी को जिंदा फूंक रही है।  टीवी चैनल और अखबार इसे भीड़ का इंसाफ बता रहे हैं..भीड़ की ताकत मीडिया भी जानती है...भीड़ की ताकत पुलिस भी जानती है और भीड़ की ताकत राजनीति भी जानती है...भीड़ जब अपनी अदालत लगाती है ये तीनों कहीं सो रहे होते हैं...बाद में पुलिस अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करती है... फिर किसी से अपना हिसाब चुकाती है, किसी से हिसाब-किताब करती है.. नेता भीड़ वाली अदालत से निकले इंसाफ का इस्तकबाल करते हैं और मीडिया पुलिस और राजनीति की भीड़ में उस भीड़ वाले इंसाफ में ब्रेकिंग और एक्सक्लूसिव खोजता है। पुलिस की नाकामियों से भीड़ का गुस्सा बढ़ता है और फिर भीड़ की अदालत से पुलिस को मुकदमा मिल जाता है...कई मुल्जिम मिल जाते हैं...कई गवाह मिल जाते हैं.. पीड़ित मिल जाते हैं..दलाल मिल जाते हैं... भीड़ भी किसी धंधे का हिस्सा ही तो होती है..इस भीड़ के जरिए पूरे मुल्क में रोज-रोज नई भीड़ खड़ी की जा रही है...भीड़ और राजनीति दोनों एक दूसरे के पूरक होते जा रहे हैं.. दरअसल ये भीड़ जिंदा लाश होती है..ये आदमी और जानवर का फर्क नहीं समझती..ये कानून की परवाह नहीं करती.. उसे समाजिकता की समझ नहीं होती..कोई बताने वाला भी नहीं होता. हां उनके भीतर के जानवर को जगाने वाला कोई होता है...वो कोई नेता होता है..कभी-कभी वो कोई विचार भी होता है...ये विचार इंसान और इंसान के बीच फर्क बताता है...ये हिंदू और मुसलमान बताता है...जब पुलिस भीड़ देख कर भाग रही होती है तब उसी भीड़ के बीच से कोई नेता निकलता है.. ये नेता पहले थानों की मुट्ठी गरम करता है...फिर थाने इसकी मुट्ठी गरम करने लगते हैं...जब ये जेल से बाहर आता है तो जयंत सिन्हा जैसे नेता उसे माला पहनाने लगते हैं... फिर चुनावों में नेता उससे सौदा करने लगते हैं..और तरह भीड़ का इंसाफ राजपथ पर इठालाने लगता है...

मॉब लिंचिंग: भरभराते लोकतंत्र की तस्वीर


भीड़ के जरिए खड़े किए गए भय के माहौल के सामने सिस्टम कैसे भरभरा कर गिर रहा है उसकी गवाही झारखंड के पाकुड़ में मंगलवार को दिखी...तकरीबन 70 साल के बुजुर्ग स्वामी अग्निवेश भरभराकर नीचे गिरे और भीड़ उनपर टूट पड़ी...ये घटना जिस वक्त हुई उससे ठीक कुछ घंटों पहले देश की सबसे बड़ी अदालत ने मॉब लिंचिंग के खिलाफ सख्त कानून बनाने की जरूरत बताई थी..लेकिन भीड़ की अदालतों ने कब कानूनी अदालतों को मान्यता दी है जो तब देते...और दें भी क्यों... 2015 में नोएडा के दादरी में भीड़ की अदालत ने अखलाक को सजा-ए-मौत दी थी...अखलाक के हत्यारों में से 15 आरोपियों को तब एनटीपीसी की संविदा नौकरी ऑफर की गई थी..मतलब भीड़ में शामिल होकर हत्या करो और नौकरी पाओ... 1 अप्रैल 2017 को अरवल में पहलू खान को गौगुंडों ने पीट-पीट कर मारा डाला..यहां भी हत्यारों को महिमामंडित करने का अभियान चलाया गया.. इसी साल 22 जून को दिल्ली-बल्लबगढ़ में ट्रेन में मोहम्मद जुनैद को भीड़ ने मार डाला था... हत्यारों का तब स्वागत किया गया था.. जून 2017 में ही झारखंड के रामगढ़ में अलीमुद्दीन की हत्या भीड़ ने कर दी थी...हत्या का आरोपी जब जेल से बाहर निकला तो केंद्र सरकार के मंत्री जयंत सिन्हा ने माला पहना कर उसका स्वागत किया... तो फिर भीड़ की शक्ल में किसी की हत्या से कोई डरे क्यों...और फिर सुप्रीम कोर्ट के उस सुझाव का मतलब भी क्या समझें... उन्हीं लोगों से सख्त कानून बनाने की उम्मीद की जा रही है जो हत्यारों को गले लगाते हैं..या फिर नौकरी ऑफर करते हैं..
          हाल ही में कर्नाटक में सॉफ्टवेयर इंजीनियर आजम उस्मानसाब की हत्या भीड़ ने की है.. जून 2018 में झारखंड के गोड्डा में सिराजुद्दीन अंसारी और मुर्तजा अंसारी की भीड़ ने लाठी-डंडों से पीट कर हत्या कर दी..इससे पहले सूबे के खरसांवां में भीड़ ने तीन लोगों की हत्या की थी... महाराष्ट्र, हरियाणा, केरल, कर्नाटक देश का कोई भी राज्य इस हिंसक भीड़ को रोकने में सक्षम साबित नहीं हुआ...भीड़ की हिंसा का सबसे ज्यादा कहर उत्तर प्रदेश में बरपा...सर्वाधिक घटनाएं यूपी में ही हुईं..और अब उस लोकसभा को मॉब लिंचिंग के खिलाफ कड़े कानून बनाने हैं जिस लोकसभा बैठे नेताजी हत्यारे को फूल माला पहनाते हैं
        राहत इंदौरी का एक मतला है लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है..तो अब आग फैल रही है...कल तक गले में भगवा डाले जो भीड़ दाढ़ी और टोपी पर हमले किया करती थी अब वही भीड़ ऊपर से नीचे तक भगवा धारण किए स्वामी अग्निवेश को भी अपनी आग में झुलसा रही है.. हिंसक समाज के आसरे राजनीति की रोटी सेंकने वाले भी एक दिन इस आग की चपेट में आएंगे.. और हां हालात नहीं बदले तो फिर भीड़ की इन आदालतों से किसी दिन देश की सर्वोच्च अदालत का भी इंसाफ हो जाएगा

ये बजट अहम है क्योंकि हालात बद्तर हैं

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है कि ये बजट देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने ये बात यूं ही नहीं कही है। वर्ल्ड बैंक के अ...