अब इस चुनाव का भारत से क्या संबंध है इसका जवाब भी खोजना होगा। दरअसल पूर्व माओवादी विद्रोहियों की पार्टी सीपीएन-माओवादी को चीन का भरपूर समर्थन मिलता रहा है और पार्टी के मौजूदा नेता पुष्प कमाल दहाल प्रचंड भी चीन से अपनी नजदीकी जाहिर करते रहे हैं। पड़ोसी देश नेपाल में प्रचंड के समर्थन से बनने वाली सरकार भारत के लिए कितना मुफीद होगी ये कहना अभी मुश्किल है।
इस मसले को हमें और आगे ले जाकर भी देखना होगा। गठबंधन में सबसे पार्टी के तौर पर उभरी सीपीएन-यूएमएल नेता केपी ओली कभी भारत के अच्छे पक्षधर रहे हैं लेकिन, बाद के दिनों में वो भी चीन परस्त होते दिखे। हमें ये भी देखना होगा कि केपी ओली और उनके गठबंधन ने जिस नेपाली कांग्रेस को चुनावी मात दी है वो नेपाली कांग्रेस भारत का पक्षधर रही है।
भारत को ये भी देखना है कि हाल ही में नेपाल में लागू किए संविधान का तराई इलाकों में जमकर विरोध हुआ था। संविधान में बदलाव की मांग को लेकर जमकर हिंसा हुई। मधेशियों को देश में दोयम दर्जा देने वाले इस संविधान का मधेशियों ने पुरजोर विरोध किया। बावजूद इसके वो संविधान लागू हुआ। नेपाल के मधेशी चीन के मुकाबले खुद को भारत के करीब महसूस करते हैं। सांस्कृतिक और प्राकृतिक रूप से वो भारत के करीब हैं भी।
इसके ठीक उलट नेपाल के पहाड़ी इलाकों बसी आबादी की सोच है। मंगोलियाई मूल की ये आबादी चीन से नजदीकी महसूस करती है। दरअसल शारीरिक बनावट और खान-पान की संस्कृति के मामले में नेपाल की पहाड़ी आबादी चीनियों के करीब है भी। नेपाल के पहाड़ बसे लोग और चीन की बड़ी आबादी मंगोल मूल की है। लिहाजा दोनों में ठीक वैसा ही अपनापन है जैसा नेपाल के मधेशी और भारतीय लोगों के बीच है।
तो जाहिर है नेपाल में बनने जा रही नई सरकार फौरी तौर पर चीन के लिए फायदेमंद होती दिख रही है। लेकिन, ये भी सच है कि नेपाल की ज्यादातर ज़रूरतें भारत से पूरी होती हैं, भारत के सीमावर्ती इलाकों में भारत-नेपाल के लोगों के बीच बेटी-रोटी का रिश्ता है। लिहाजा, नेपाल की बड़ी सियासी जमात भारत के साथ बेहतर रिश्तों का पैरोकार है। ऐसे में भारत के लिए ये उचित वक्त है जब वो नेपाल में गठित होने जा रही नई सरकार के साथ खड़ा हो उससे बेहतर रिश्ते की दिशा में कदम बढ़ाए।