चुनावों के वक्त भविष्य की बातें होती हैं
और चुनावों के बाद इतिहास उबलने लगता है। याद कीजिए चुनावों का दौर। तब ये कहा
जाता है कि रोज़गार देंगे, महंगाई काबू में करेंगे, सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे और
चौतरफा विकास करेंगे। अब आज का दौर देखिए। रोजगार के मसले पर चौतरफा खामोशी है।
मूर्तियों और दफ्न क़िस्सों का चौतरफा शोर है। यूपी के अयोध्या में एक मूर्ति लगाई
जाएगी। ये मूर्ति सियासत में बड़ी परछाई न गढ़ दे इसलिए यूपी के ही सैफई में दूसरी
मूर्ति लगाई जाएगी। दोनों मूर्तियां किसी धार्मिक संगठन की देन नहीं होंगी बल्कि
राजनैतिक दलों की देन होंगी। मतलब मूर्तियों की सियासत के ज़रिए धार्मिक राजनीति
पर ही ज़ोर होगा।
इसी तरह सुनहरे भविष्य के सपने दिखा कर सफलता दर्ज करने वाले अब भविष्य को
पीछे धकेल इतिहास में पहुंच गए हैं। पद्मिनी से पद्मावती होते हुए ये क़िस्सा क्षेत्रीय
स्मिता से जुड़ता गया और इसके आसरे एक धर्म विशेष के ख़िलाफ माहौल भी बनता गया।
यही माहौल राजनीति में धर्म की छौंक लगाने वालों को सत्ता का सुख देता है।
लेकिन, सच इतना भर नहीं है। पर्दे पर उतरने वाली पद्मावती किसी फिल्म का
किरदार हो सकती है वो इतिहास का सच नहीं हो सकती। इतिहास का सच ये है कि पद्मावत
मलिक मुहम्मद जायसी की रचना है जिसमें पद्मिनी के सौंदर्य का ज़िक्र है। इतिहास का
सच ये है कि अलाउद्दीन खिलजी एक साम्रज्यवादी सोच का शासक था और उसने कभी अपने
शासन में मौलवी-मुतवल्लियों को तवज्जो नहीं दी। इतना ही नहीं खिलजी ने तब के
मुस्लिम संगठनों के ज़रिए दिए गए ‘यामिन-उल-ख़िलाफ़त-नासिरी-अमीर-उल-मोमिनीन’ की उपाधि ये कहते हुए लौटा दी थी कि इससे
मुल्क में रहने वाले गैर मुसलमानों में ये संदेश जाएगा कि उनका शासक एक मुस्लिम खलीफा
है। शासन के मसले में खिलजी पारदर्शिता का पैरोकार था और अमीर खुसरो जैसे
विद्वानों से मशविरा लेता था।
आज जिस पद्मावती
को लेकर गड़े मुर्दे उंखाड़े जा रहे हैं उस पद्मावती के लिए रणथंभौर का युद्ध हुआ
इसपर इतिहासकार सहमत नहीं हैं। इतिहासकारों के मुताबिक रणथंभौर के शासक हम्मीरदेव
ने खिलजी के मंगोल दुश्मन मुहम्मद शाह और केहब को शरण दी थी और मुहम्मद शाह और
केहब को खिलजी पर हमला करने के लिए फिर तैयार कर रहे था। खिलजी इस बात से बेहद खफा
था और इसी वजह से उसने रणथंभौर पर हमला किया।
1301 में खिलजी ने रणथंभौर किले पर कब्जा
किया। युद्ध में हम्मीरदेव के मारे जाने के बाद किले अंदर महिलाओं को ये डर हो गया
कि खिलजी उनके साथ ग़लत सलूक कर सकता है लिहाजा कुछ महिलाओं ने आग में कूद कर और
बाकी महिलाओं ने कूएं में कूद कर जौहर कर लिया था। अब ये जान लेना भी ज़रूरी है कि
इतिहास ने अलाउद्दीन खिलजी को सम्मना क्यों नहीं दिया। दरअसल अलाउद्दीन खिलजी ने
1298 में गुजरात के अहमदाबाद में ऐसी गलती कर दी जिसने उसको हमेशा के लिए खलनायक
बना दिया। दरअसल 1298 उसने राजा कर्ण सिंह वाघेला को न सिर्फ युद्ध में शिकस्त दी
बल्कि उनकी पत्नी कमला देवी के अगवा भी किया। कमला देवी ने इस घटना के बाद जौहर
नहीं किया बल्कि खिलजी की मुख्य रानी बनीं। युद्ध के बाद एक रानी को अगवा करना और
उसके साथ शादी करना अलाउद्दीन खिलजी को हमेशा के लिए ख़लनायक बना गया।
लेकिन, आज
अलाउद्दीन खिलजी और पद्वामती की कब्रों को खोदने का मतलब क्या है? इस सवाल का जवाब खोजते हुए आपको मूर्तियों
के सियासी निर्माताओं की मंशा तक पहुंचना होगा।
जैसे मूर्तियों
की राजनीति धार्मिक भावनाओं को भड़काती है वैसे ही खिलजी और पद्वामती के जरिए खड़ा
किया गया विवाद भी। इन दोनों की खासियत भी एक जैसी है। मसलन मूर्तियों को रोज़गार
की ज़रूरत नहीं होती। मूर्तियों को स्कूलों में टीचर, अस्पताल में डॉक्टर,
बिजली-पानी की भी ज़रूरत नहीं होती। ठीक इसी तरह इतिहास की कब्र से निकले किरदारों
को भी रोजगार, अस्पताल,बिजली-पानी जैसी तमाम बुनियादी ज़रूरतों की दरकार नहीं
होती।
तो मतलब साफ है
कि इन जैसे मुद्दे तामाम ज़रूरी मुद्दों को काफी पीछे धकेल देते हैं और इसी शोर
में सत्ता अपनी जवाबदेही से बच निकलती है।
जिस भारत में ये
तमाम विवाद हो रहे हैं उस भारत में सिर्फ बेरोजगारी के आंकड़े ही सबको हैरान करने
के लिए काफी हैं। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन ने 2017 में वर्ल्ड लेबर
इम्प्लॉयमेंट एंड सोशल आउटलुक रिपोर्ट में बताया है कि भारत में न सिर्फ बेरोजगारी
बढ़ेगी बल्कि सामाजिक असमानता में भी इजाफा होगा। रिपोर्ट में बताया गया है कि
2017-18 में भारत में नई नौकरियां बेहद कम हो जाएंगी। रिपोर्ट के मुताबिक 2018 तक
भारत में दक्ष बेरोजगारों की तादाद 180 लाख तक पहुंच जाएगी।
शिक्षा, चिकित्सा, सड़क,
बिजली,पानी के मुद्दे अपनी जगह पर मुंह बाए खड़े हैं। लेकिन, तमाम बहसें मूर्तियों
और इतिहास के सांप्रदायिक पन्नों के इर्द-गिर्द घूम रहीं हैं।
मतलब साफ है कि
असली मुद्दों से बचने की तमाम कवायदें जारी हैं और खड़े किए जा रहे मसले असली
सवालों को टालने की सियासी साजिशें हैं।