तारीख बदली,
महीने बदले, साल बदले, सरकार बदली, प्रधानमंत्री बदले, नोट बदले, वोट बदले देश की
सियासत बदली लेकिन नहीं बदला कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष। 19 साल से कांग्रेस
के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सोनिया गांधी के कंधों पर है। सोनिया गांधी
के नेतृत्व में 2004 में कांग्रेस गठबंधन ने बीजेपी की शाइनिंग इंडिया लहर समेत
अटल बिहारी बाजपेयी की राजनीतिक लोकप्रियता को धूल चटा दी थी। 2009 में एक बार फिर
बीजेपी के लौह पुरुष हो राष्ट्र प्रधान के नारे की हवा सोनिया के नेतृत्व ने निकाल
दी और केंद्र में यूपीए की सरकार बनी। इन दो जीतों ने सोनिया की नेतृत्व क्षमता को
साबित भी किया स्थापित भी किया। लेकिन 2012 के बाद से राहुल गांधी को कांग्रेस का
अध्यक्ष बनाए जाने की मांग जोर पकड़ने लगी। इसी बीच सोनिया गांधी की तबीयत बिगड़ती
चली गई और कांग्रेस की लोकप्रियता भी भ्रष्टाचार के आरोपों में दम तोड़ती चली गई।
2014 आते-आते घोटाले और भ्रष्टाचार के आरोपों ने देश में न सिर्फ कांग्रेस विरोधी
माहौल गढ़ा बल्कि नेहरु-गांधी परिवार के खिलाफ भी हवा बना दी। 2014 में कांग्रेस
को इतिहास की सबसे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा।
अब जबकि स्वास्थ्य कारणों से सोनिया गांधी
की सक्रियता बेहद कम हो गई है और राहुल की सक्रियता अचानक बहुत ज्यादा बढ़ गई है
कांग्रेस ने बड़े बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार करी ली है।
इसी साल सितंबर
में अमेरिका की बर्कले यूनिवर्सिटी में राहुल गांधी ने सवालों के जवाब में जैसी
राजनैतिक परिपक्वता दिखाई वो हैरान वाली थी। बर्कले ने राहुल की बेहद संजीदा तस्वीर
पेश की। राहुल गांधी के तेवर में भी बदलाव आया और मुद्दों, सवालों के जरिए सरकार
को घेरने की उनकी शैली भी बेहद धारदार हुई। बर्कले से लौटने के बाद राहुल गांधी न
सिर्फ ज़मीनी राजनीति में बेहद दमदार तरीके से उतरे बल्कि सोशल मीडिया में भी
जबर्दस्त धमक दर्ज करवाई। राहुल के बदले तेवर ने न सिर्फ कांग्रेस को नया उत्साह
दिया बल्कि कांग्रेस समर्थकों की उम्मीदों को भी पंख लगा दिया।
नए अध्यक्ष के चुनाव की जरूरत इसलिए भी पड़ी
क्योंकि सोनिया गांधी की सेहत उनका साथ नहीं दे रही है और गुजरात में उभरते युवा
नेतृत्व को साधने के लिए युवा नेतृत्व का समीकरण बनाना भी सियासी जरूरत है। 2015
के शुरुआती दिनों से ही ये देखने को मिला है कि राहुल गांधी पार्टी के तमाम
महत्वपूर्ण फैसले लेते रहे हैं। पर्दे के पीछे से वो कई बार पार्टी अघ्यक्ष की
भूमिका में दिखे।
बात इतनी भर नहीं है। गुजरात चुनाव से ठीक
पहले राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाए जाने के लिए वर्किंग कमेटी की बैठक
में प्रस्ताव पारित करने के सियासी मायने भी कम नहीं हैं। हिमाचल प्रदेश और गुजरात
में होने वाले विधानसभा चुनावों के प्रचार में कांग्रेस की सक्रियता गुजरात में
अपेक्षाकृत ज्यादा दिख रही है। गुजरात में कांग्रेस भले ही सरकार बनाने की हैसियत
में न आए लेकिन उसकी पूरी कोशिश वहां बीजेपी को पहले से कमजोर करने की है। दरअल
कांग्रेस गुजरात चुनाव के जरिए देश को ये संदेश देने की कोशिश में है कि बीजेपी
जिस नरेंद्र मोदी और गुरात मॉडल के नाम पर इतराती है उसी नरेंद्र मोदी के गढ़ में
बीजेपी कमजोर पड़ती जा रही है और उसके गुजरात मॉडल की हवा निकल रही है। ऐसे में
कांग्रेस को गुजरात में मिले तीन युवा नेता पार्टी के लिए किसी उपहार से कम नहीं
हैं। पाटीदार आंदोलन के नायक हार्दिक पटेल, दलित नेता जिग्नेश मेवाणी और ओबीसी
नेता अल्पेश ठाकोर जैसे युवा साथियों को पा कर कांग्रेस की उम्मीदों को पंख लग गए
हैं। इन्हीं पंखों के जरिए कांग्रेस राजनीति की ऊंची उड़ान की तैयारी में है और
बर्कले के बाद नए तेवर के साथ खड़े राहुल को पार्टी का नेतृत्व देकर देश में युवा
राजनीति को हवा देने की कोशिश में जुट गई है।
No comments:
Post a Comment