Tuesday, November 28, 2017

गुजरात चुनाव: मॉडल का प्रोपेगंडा और शासन का हिसाब-किताब

राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम जिसे बाद में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम, मनरेगा नाम दिया गया उसकी रूपरेखा ज्यां द्रेज ने तैयार की थी। ज्यां द्रेज विकासवादी अर्थशास्त्री हैं और झारखंड के पिछड़े इलाकों में आदिवासियों के लिए काम करते हैं। ज्यां द्रेज का इतना परिचय यहां इसलिए ज़रूरी था ताकि उनके मौजूदा बयान की गहराई अथवा ऊंचाई को नापा जा सके। दिल्ली में एक कार्यक्रम के दौरान ज्यां द्रेज ने कहा कि गुजरात मॉडल किसी तरह का कोई मॉडल नहीं है। द्रेज ने कहा कि परिभाषित किसी भी सूचक में गुजरात कभी मॉडल नहीं रहा है। चाहे वो बाल विकास सूचकांक हों, मानव विकास सूचकांक हों, सामाजिक सूचकांक हों चाहे वो बहुआयामी गरीबी सूचकांक हों। योजना आयोग के सभी मानकों को देखिए तो पाइएगा कि विकास सूचकों की किसी भी रैंकिंग में गुजरात सामान्य ही है।
      विधानसभा चुनावों से ठीक पहले ज्यां द्रेज का ये वक्तव्य कांग्रेस को मौका दे गया तो भाजपा को सांप सूंघा गया। लेकिन, इस बयान के इतर हमें गुजरात की ज़मीनी पड़ताल ज़रूर करनी चाहिए। क्या वाकई कोई गुजरात मॉडल है जिसका इतना प्रचार किया गया है ? ज़मीनी पड़ताल बताती है कि नहीं। गुजरात मॉडल अपने-आप में कोई मॉडल नहीं है। शिक्षा के मामले में ये राज्य काफी पीछे है। लड़कियों की शिक्षा के मामले में तो हालत बहुत बुरी है। सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम बेसलाइन सर्वे के मुताबिक गुजरात में 26.6 फीसदी लड़कियां नौंवी क्लास से पहले पढ़ाई छोड़ देती हैं। ड्रॉप आउट का ये आंकड़ा बिहार और यूपी से काफी बड़ा है। इतना ही नहीं देश की 83.8 फीसदी लड़कियां स्कूल जाने लगी हैं जबकि गुजरात में ये आंकड़ा महज 73.4 फीसदी है। इस मामले में भी गुजरात पिछड़ा राज्य है। वो भी तब, जबकि लड़कियों की शिक्षा के नाम पर राज्य में कन्या केलावनी योजना और शाला पर्वेशोत्सव योजना पर पानी की तरह पैसा बहाया गया है। बावजूद इसके 10 से 15 साल की लड़कियों की शिक्षा के मामले में गुजरात सबसे नीचे के पांच राज्यों में शामिल है। आलम ये है कि अकेले प्राइमरी स्कूलों में 15 हजार के करीब शिक्षकों के पद खाली हैं। मतलब ज्यां द्रेज की बात बेहद गंभीर अर्थों वाली है।
    बात यहीं खत्म नहीं होती। गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2013 से 2015 के बीच राज्य में 1483 किसानों ने खुदकुशी कर ली। मतलब सालाना तकरीबन पांच सौ किसानों ने आत्महत्या की। आंकड़े बताते हैं कि 2013 में 582 किसानों ने आत्महत्या की थी। 2014 में तो हालात और बिगड़े और 600 किसानों ने आत्महत्या कर ली। किसानों की खुदकुशी के मामलों को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने वाले भारत सिंह झाला का आरोप है कि ये आंकड़े इससे बहुत बड़े हो सकते हैं लेकिन, अधिकारी कर्ज के बोझ तले दबकर मरे किसानों की खुदकुशी का मामला या तो रजिस्टर ही नहीं करते या फिर पारिवारिक कलह को वजह बताकर मृतक किसान के परिजनों का दोहन करते हैं। आज भी किसानों की आत्महत्या के मामले कम नहीं हुए हैं।  
 
  किसानों की दुर्दशा से इतर राज्य का सामाजिक विकास भी कोई मॉडल पेश नहीं कर पाया है। ऊना में दलितों पर हुए अत्याचार की घटना के बाद सूबे की भाजपा सरकार और देश भर में पूरी पार्टी भले ही सफाई देने के लिए मैदान में उतर गईं लेकिन, सच्चाई ये है कि गुजरात में दलितों पर अत्याचार के मामले में दूसरे राज्यों से कहीं ज्यादा हैं। अकेले 2014 में राज्य में 74 दलित महिलाओं के साथ रेप के मामले रजिस्टर हैं।
    मतलब साफ है कि विकास, सुरक्षा, शिक्षा, चिकित्सा समेत किसी भी मामले में गुजरात पिछले 22 सालों में नंबर वन नहीं हो पाया है। इन पिछले 22 सालों में वहां भाजपा की ही सरकार रही है। तो फिर गुजरात के किस मॉडल की बात की जाती रही है? जाहिर है ये आंकड़े बताते हैं कि गुजरात मॉडल एक पॉलिटिकल प्रोपेगंडा है जिसका जिक्र ज्यां द्रेज अपने शब्दों में कर गए।
   तो अब तक जिस एक सवाल का जवाब लगातार ढूंढा जा रहा था कि गुजरात चुनावों में भाजपा गुजरात मॉडल का जिक्र क्यों नहीं कर रही है। तो इस सवाल का सीधा जवाब ये है कि बाहर भले ही आप गुजरात मॉडल का ढिंढोरा पीट लें लेकिन उस गुजरात में कैसे पीटेंगे जिसे कोई मॉडल मिला ही नहीं ? और फिर वहां तो 22 सालों के एकछत्र राज का हिसाब भी देना है। 

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