Wednesday, November 15, 2017

बाबा जी: उस छोर से बुलावा था मिट्टी के गर्भ का

कह गए वो अबकी बार लौटा तो लिपटी परछाइयां होंगी।
ओस से नहाई रात में किसी नीली सतह पर चाह का आकाश लिए खो गए

मैं था, न था, तुम नहीं-तुम नहीं उपक्रम और व्यतिक्रम का अनभूला दर्द देकर
थोड़े से शब्दों में, टपकती बूंदों में, चिटके सपनों में कहीं खो गए

थके पंख जब, सिद्ध वेदना हुई, अतृप्त ज्वार संग चले गए
धुंधले संकेत दिए, गहराइयों की ओर चले, उस छोर से बुलावा था मिट्टी के गर्भ का।

प्रश्न सारे खो गए अक्षर सारे सो गए शून्य और अशून्य में छाया का दाग है
अनथही गहराइयां, सूना कैनवास है, दूरी के पास से चक्रव्यूह रच गए।

कोई दूसरा नहीं,वाजश्रवा के बहाने आत्मजयी की आवाजें उजास में कहीं खो गईं।
हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,दीवारें सुनती रहीं
शीघ्र थक जाती देह की तृप्ति में,आत्मा व्योम की ओर उठती रही
कविता की ज़रूरत को यकीनों की जल्दबाज़ी से एक यात्रा के दौरान ही अगली यात्रा रच गए

लापता का हुलिया बता, प्यार की भाषाएं गढ़, भूली जिंदगी जीते हुए
सृजन के क्षण को अधूरा छोड़ चले गए

एक अजीब दिन में, सवेरे-सेवेरे, किसी पवित्र इच्छा की घड़ी में चले गए।
इतना कुछ था दुनिया में और जीवन बीत गया।
सूर्य से सूर्य तक प्राण से प्राण तक चुपचाप अर्पित हो गया दिगंत प्रतीक्षाओं तक
परिवार से, स्वीकार से ले ली विदाई फिर एक बार जीने की खातिर अनंत के विस्तार से।

Note: बाबा जी स्व. तारकेश्वर नाथ तिवारी जी के लिए

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