अयोध्या में मंदिर से जोड़कर कोई बयान दे देने भर से कई सारे ज़रूरी मसले
किनारे लगा दिए जाते हैं। रविवार को उत्तर प्रदेश के देवरिया में भूख से एक ही
परिवार के दो बच्चों की मौत की ख़बर वो जगह नहीं बना पाई जो उसे जगह बनानी चाहिए
थी। अक्टूबर में झारखंड के सिमडेगा जिले में 11 साल के एक बच्चे की भूख से मौत की
खबर के ठीक दो दिनों बाद सूबे में दो और लोगों की भूख से मौत की खबर आई। भूख से
मौत की खबर पूरी पड़ताल की दरकार रखती है। हम सिर्फ आंकड़ों के मकड़जाल में उलझ कर
रह जा रहे हैं। जो सत्ता में होता है विपक्ष उस पर सवाल खड़े करता है। जबकि सच ये
है कि सवाल खड़े करने वाले जब सत्ता में रहे होते हैं तब भी भूख से मौतें हुई रहती
हैं। जाहिर है ज़रूरत पूरी पड़ताल की है और सतही बातों से ऊपर उठकर इस मसले की
गहराई नापनी होगी।
ग्लोबल हंगर इडेक्स बताता है कि
भारत में तकरीबन 20 करोड़ लोग रोज़ाना भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। इस मामले में
नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों की हालत भारत से बेहतर है। तो फिर बहसों की धार इस
तरफ क्यों नहीं मोड़ी जाती। ग्लोबल हंगर इडेक्स के मुताबिक भारत में आबादी के छठे
हिस्से के पास खाने का गंभीर संकट है। 5 साल से कम उम्र के 31 फीसदी बच्चे अंडरवेट
हैं और 2 साल से कम उम्र में ही 58 फीसदी बच्चों की ग्रोथ रुक जाती है। ये रिपोर्ट
जिस हल्के तरीके से ली गई वो हैरान करने वाली है। इस रिपोर्ट में साफ जिक्र है कि
भारत में कुपोषण और भूख की वजह से रोज़ाना 5 हजार 13 बच्चे मर जाते हैं। मौक के
आंकड़े कभी बड़ी बहस का मुद्दा नहीं बनते। दुनियाभर में 5 साल से कम उम्र के बच्चों
की मौत में 24 फीसदी बच्चे भारत के होते हैं। दुनिया भर में पैदा होने के कुछ
घंटों बाद मरने वाले कुल बच्चों में 30 फीसदी बच्चे भारत के होते हैं। अब आप तय
करें कि अबतक आपने जिन मसलों पर सरकारें चुनी हैं वो मसले ज्यादा ज़रूरी थे या फिर
भूख का मुद्दा ज्यादा ज़रूरी था।
यहां ये भी जान लेना ज़रूरी है
कि भारत में खाने-पीने के संसाधनों की उपलब्धता कितनी है। दरअसल बढ़ती आबादी के मुकाबले
हम उत्पादन बढ़ाने में सफल नहीं रहे हैं। इसके साथ ही भंडारण और परिवहन की भ्रष्ट
और अराजक व्यवस्था से हमारे उत्पादन का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है। आंकलन के
मुताबिक 40 फीसदी फल और सब्जियां खराब सप्लाई चेन की वजह से बर्बाद हो जाते हैं।
यही हाल अनाजों का भी है। सप्लाई चेन में गड़बड़ी की वजह से 20 फीसदी अनाज बर्बाद
हो जाता है।
ये सब उस देश में होता है जिस देश
में 18 लाख से ज्यादा बच्चे अपना पांचवा साल देख तक नहीं पाते हैं। तीसरे
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे में भी बताया गया था कि भारत में पचास फीसदी बच्चे
कुपोषण का शिकार हैं। दुनिया भर में भुखमरी से जूझ रही 92.5 करोड़ आबादी में 45.6
करोड़ लोग तो सिर्फ भारत में हैं। संयुक्त राष्ट्र सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य के
सम्मेलन में जो आंकड़े पेश किए गए उससे हमसब का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। 1996
में विश्व खाद्यान्न सम्मेलन में वहां जुटे तमाम देशों के प्रतिनिधियों ने ये प्रण
लिया था कि 2015 तक भूखों की संख्या आधी कर लेंगे। लेकिन भारत में भूखों की तादाद
बढ़ती गई। खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक भारत में रोज़ाना 24 हजार नए लोग
भुखमरी और कुपोषण की भीड़ में शामिल हो रहे हैं।
भारत में अनाज की उपलब्धता बढ़ाने
के साथ उसके सही रख-रखाव पर ध्यान दिए बिना भुखमरी से जूझना संभव नहीं है। 2011-12
में भारत में प्रति व्यक्ति रोज़ाना 230 ग्राम चावल की उपलब्धता थी जो 2016-17 में
225 ग्राम रह गई है। यही हाल गेहूं का भी है। 2011-12 में प्रति जहां प्रति
व्यक्ति रोज़ाना 207 ग्राम गेहूं उपलब्ध था वो अब घटकर 201 ग्राम रह गया है। ऐसा
इसलिए नहीं है कि अनाज की उत्पादन कम हुआ है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आबादी बहुत
तेज़ी से बढ़ी है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अनाज भंडारण में कुव्यवस्था के ज़रिए
कुछ लोगों की बड़ी भ्रष्ट कमाई होती है।
तो मतलब साफ है कि भूख से मौत के
मसले पर हमारा समाज, हमारी सत्ता व्यवस्था की गंभीरता उतनी नहीं दिखती जितनी
राजनीति के ज़रिए खड़े किए गए धार्मिक-सांप्रदायिक मसलों पर दिखती है। भूख से मौत
मानवता के खिलाफ एक ऐसा अपराध है जिसके लिए किसी को कोई सज़ा नहीं होती। और हमारी
पूरी व्यवस्था इसी का फायदा उठाती रही है।
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