विधायिका ने अपनी गरिमा खुद गिराई है। यूं बात-बात में विधायिका के दायरे में न्यायपालिका के डंडे का चलना उचित नहीं है। ये बेहद कमजोर विधायिका की निशानी है। लेकिन विधायिका को इसके लिए संविधान के दायरे में आना होगा। अलग-अलग राज्यों में राज्यपालों ने अक्सर विधायिका का सम्मान आहत किया है। 1990 के बाद ज्यादातर राजभवनों ने संविधान और संसदीय मर्यादा को छलनी किया है। आपको जब खुद अपने सम्मान का ख्याल नहीं होगा तो फिर दूसरे तो आपका मजाक उड़ाएंगे ही। आप खुद को जब पंचायत में लेकर चले जाएंगे तो सभा आपके दोषों के ढूंढेगी ही। देश और संविधान से अलग जब आप किसी नेता या गिरोह में आस्था रखने लगेंगे तो आदालत के डंडे आपकी पीठ पर पड़ेंगे ही। सभ्य समाज में दरवाजे पर पुलिस आने को भी अपमानजनक माना जाता है। तो फिर सभ्य राजनीति में राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक करार देना भी अपमानजनक माना जाना चाहिए। इसलिए ज़रूरी है कि राज्यपाल ऐसे फैसले ना लें जो असंवैधानिक हों और भरी पंचायत में उनके फैसले को बदलना पड़े। इसलिए ज़रूरी है कि राज्यपाल संविधान में आस्था रखते हुए काम करें न कि व्यक्ति विशेष में। इसलिए ज़रूरी है कि राज्यपाल का चयन करते वक्त लाज-शर्म का ख्याल रखा जाए। एक वक्त था जब देश के लोग राष्ट्रपति और राज्यपाल को लोकतांत्रिक गरिमा का प्रतीक समझते थे। यकीन मानिए, आज के ज्यादातर लोग इन दोनों पदों पर बैठे लोगों को रबर स्टांप मानने लगे हैं। कुछ लोग तो अब इन दोनों पदों को ही ग़ैरज़रूरी बताने लगे हैं। इसलिए ज़रूरी है कि ...सियासत में इतनी अदा रहे, आंखों में पानी रहे..लहजे में हया रहे।
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