Wednesday, January 24, 2018

गांधी हत्या पर विशेष: गोडसे तो मोहरा भर था

                      पहली कड़ी
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की योजना को अमल लाने की बेचैनी 1947 के नवंबर महीने की पहली तारीख को जिस पूरे गिरोह को तनावग्रस्त कर रही थी उसे मुंबई के सावरकर भवन में रहने वाले अपने वैचारिक गुरु के प्रति अपनी आस्था प्रमाणित करनी थी। ये गिरोह जिसने 15 अगस्त को तिरंगा झंडे का विरोध करते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के झंडे को सलामी दी थी 1 फरवरी को मुंबई में अपने नए खुल रहे अखबार के दफ्तर के उदघाटन के लिए जमा हुआ था। हिंदू राष्ट्र अखबार का नया दफ्तर खुलने वाला था और पूणा के दो ब्राह्मण अखबार से आगे की बात सोचने में मशगूल थे। नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे में गहरी मित्रता जरूर थी लेकिन दोनों के स्वभाव में बड़ा फर्क था। दोनों कट्टर हिंदूवाद के समर्थक थे, दोनों विनायक दामोदर राव सावरकर के प्रिय शिष्य थे। लेकिन दोनों में जो फर्क था वो बेहद हैरान करने वाला था। नारायण आप्टे ऐश-ओ-आराम की जिंदगी जीना पसंद करता था। वो रोज शराब पीता था और अपने घर में रहने के बजाय होटल के कमरों में ठहरता था। उसने अपनी पत्नी को अपने हाल पर छोड़ दिया था और अलग-अलग महिलाओं से संबंध बनाता रहता था। वो उन्हीं होटलों में ठहरता था जहां उसके लिए लड़कियों का इंतजाम हो जाए। नाथूराम गोडसे इससे अलग था। गोडसे मांस-मदिरा से बहुत दूर था और ब्रह्मचर्य के नियमों का कठोरता से पालन करता था। लेकिन दोनों की सोच में एक मामले में जबर्दस्त समानता थी। दोनों महात्मा गांधी को जाति के आधार पर अपना नेता नहीं मानते थे। नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे की जाति व्यवस्था पर दृढ़ आस्था थी। दोनों को मानना था कि महात्मा गांधी वैश्य हैं और एक वैश्य का नेतृत्व हिंदुओं के लिए अपमानजनक है। दोनों का मानना था कि विनय दामोदर सावरकर ब्राह्मण हैं और भगवान ने उन्हें हिंदुओं का नेतृत्व करने के लिए ही ब्राह्मण कुल में पैदा किया है। ये दोनों सावरकर समेत खुद को उच्च कुल का चितपावन ब्राह्मण मानते थे।
   1 फरवरी को हिंदू राष्ट्र अखबार की शुरुआत करने वाले ये दोनों युवा परेशान थे। हालांकि अखबार में दोनों की भूमिकाएं बेहद स्पष्ट थीं। आप्टे तेजी से सौदे पटाने की कला का माहिर था और गोडसे जले-भुने लेख लिखने वाला संपादक।
   अखबार की शुरुआत के साथ ही दोनों में निराशा की पहली खबर पानीपत से आई। नवंबर के आखिरी हफ्ते में शहर में रह रहे शरणार्थी हिंदू और स्थानीय हिंदुओं ने मुस्लिम बस्तियों को घेर लिया। पानीपत रेलवे स्टेशन के तब के स्टेशन मास्टर देवीदत ने स्टेशन पर शरण लिए मुसलमानों को एक सुरक्षित कमरे में जगह दे दी तो भीड़ ने उनपर हमला कर दिया।  इस भीड़ में हिंदू और सिख शामिल थे। इस घटना के डेढ़ घंटे बाद ट्रेन के साधारण डब्बे से एक बेहद बूढ़ा शख्स स्टेशन पर उतरा। उस बूढ़े शख्स को देखते ही स्टेशन पर चहलकदमी बढ़ गई। हर आदमी बापू की एक झलक पाने को बेताब हो गया। बापू की एक अपील पर भीड़ ने स्टेशन मास्टर को रिहा कर दिया। कमरे में बंद मुसलमान बाहर आ गए और जो लोग कृपाण लेकर उनपर हमले के लिए बेताब थे वही लोग उन्हें गले लगाने लगे। पानीपत में गांधी ने एक छोटी सी सभा की और शहर का माहौल बदल गया। राहत शिविर में रह रहे सिखो के लिए मुसलमानों की बस्तियों से कपड़े और राशन भिजवाए गए। इस खबर ने अखबार के दफ्तर में बैठे नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को घोर निराशा में धकेल दिया। बापू पानीपत की लड़ाई तो जीत गए लेकिन जिंदगी की लड़ाई हार गए।
   शाम होते ही नारायण आप्टे और नाथूराम गोडसे अपने पुराने मित्र दिगंबर बडके से मिलने उसके घर पहुंच गए। बडके इस दिन साधु के वेश में था। वो रोज अपना वेश बदलता रहता था। बडके की पूना में किताबों की दुकान थी और किताबों की आड़ में वो हथियार बेचा करता था। इसी के साथ वो होटल के कमरों में लड़कियों की सप्लाई भी किया करता था। नारायण आप्टे से उसकी मित्रता होटल में लड़कियां सप्लाई करने के दौरान ही हुई थी। बडके से मिलकर उसने कहा कि वो कुछ करने वाला है और इसके लिए उसे हथियारों की ज़रूरत है। मतलब नवंबर 1947 में ही महात्मा गांधी की हत्या का फैसला हो गया था।

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