दिल्ली में आम आदमी
पार्टी के 20 विधायकों की विधानसभा सदस्यता रद्द करने के चुनाव आयोग के फैसले पर
बहसें जारी हैं। मामला हाईकोर्ट में है। लेकिन जिस तरह से आयोग का फैसला सामने आया
उससे कई किस्म के संदेह पैदा हो रहे हैं। इस मामले में आदालतों के सामने भी कई
चुनौतियां हैं।
दरअसल संविधान में लाभ के पद की कोई व्याख्या
नहीं है। व्याख्या तो दूर की बात इसकी कल्पना तक नहीं है। मतलब लाभ का पद संविधान
के जरिए परिभाषित नहीं है। कोर्ट के सामने दूसरी बड़ी चुनौति पुराने मामले हैं।
ऐसे कई नजीर हैं जिसपर कोर्ट को नजर डालनी पड़ेगी। राजस्थान का कांता कथुरिया
प्रकरण सबको याद है। कांता कथुरिया, कांग्रेस के विधायक थे। तब की सरकार ने उन्हें
लाभ के पद पर नियुक्त किया। हाईकोर्ट ने कांता कथुरिया की नियुक्ति को अवैध करार
दिया। इसके ठीक बाद सरकार ने कानून बनाकर उस पद को ही लाभ के पद से बाहर कर दिया।
मामला सुप्रीम कोर्ट गया और सुप्रीम कोर्ट ने कांता कथुरिया की विधानसभा सदस्यता
और जिसे लाभ का पद बताया गया था उस पद पर तैनाती को वैध करार दिया।
आप विधायकों के मामले में चुनाव आयोग के
फैसले पर संदेह की बड़ी वजह 2006 का एक मामला भी है। 2006 में दिल्ली में कांग्रेस
की सरकार थी। इस सरकार में शीला दीक्षित मुख्यमंत्री थीं। तब शीला दीक्षित ने 19
विधायकों को संसदीय सचिव का पद दिया था। बीजेपी ने इसे लाभ का पद बताकर चुनौती दी।
सरकार ने तत्काल कानून बनाकर 14 पदों को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दिया। ये
काम मौजूदा सरकार भी कर चुकी है। मतलब अरविंद केजरीवाल सरकर ने भी कानून के जरिए
उन पदों को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दिया है जिनपर पार्टी के उन 20 विधायकों
को नियुक्त किया गया है जिनपर हाल ही में चुनाव आयोग का फैसला आया है। तो क्या चुनाव
आयोग अलग-अलग पार्टियों के लिए अलग-अलग मानक रखता है ?
चुनाव
आयोग के फैसले पर संदेह की और भी कई वजहें हैं। आप के जिन विधायकों पर आयोग ने
कार्रवाई की है उन्हें मार्च 2015 में संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त किया गया। उसी
साल छत्तीसगढ़ में भी 11 विधायकों को संसदीय सचिव के पद पर नियुक्त किया गया। छत्तीसगढ़
के इन 11 विधायकों की संसदीय सचिव पर नियुक्ति को भी कोर्ट ने अवैध ठहराया है,
बावजूद इसके चुनाव आयोग ने उनकी विधानसभा सदस्यता को बहाल रखा है।
हरियाणा में भी मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने
पांच विधायकों को लाभ का पद दिया। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने इन नियुक्तियों को
अवैध बताया लेकिन, इनकी विधानसभा सदस्यता को चुनाव आयोग ने बरकरार रखा। राजस्थान
के भी 10 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया गया है। मध्य प्रदेश में तो 118 विधायकों
को लाभ का पद दिया गया है। दिल्ली के 20 विधायकों के मामले में झटपट कार्रवाई और
मध्य प्रदेश के 118 विधायकों के मामले में चुप्पी। तो फिर चुनाव आयोग पर संदेह
क्यों नहीं किया जाए ? राजस्थान, हरियाणा और छत्तीसगढ़ के मामलों में
चुनाव आयोग के रवैये पर संदेह क्यों नहीं किया जाए ?
2016 में अरुणाचल प्रदेश की सरकार में
तोड़फोड़ कर बीजेपी की सरकार बनाई गई। पेमा खांडू मुख्यमंत्री बने। इसी पेमा
खांड़ू ने सितंबर 2016 में 26 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया और फिर मई
2017 में 5 और विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया। इतने छोटे राज्य में 31 संसदीय
सचिव बनाए गए ये किसी को क्यों नहीं दिख रहा है ?
और फिर
संदेह सिर्फ चुनाव आयोग पर ही क्यों ? ये तमाम तथ्य जुटाने
वाले वरिष्ठ टीवी पत्रकार रवीश कुमार अगर बार-बार मौजूदा टीवी मीडिया पर सवाल उठा
रहे हैं तो क्या ग़लत है ?
टीवी पर भयंकर होते एंकर आम आदमी पार्टी के मुद्दे
पर तो बहुत गरम होते दिख रहे हैं लेकिन, यही एंकर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा
और राजस्थान के मुद्दे पर एक शब्द भी क्यों नहीं बोल पा रहे हैं ?
जाहिर
है संस्थाओं को तबाह किया जा रहा है। इस काम में मदद करने वाले संस्थाओं के
प्रमुखों को रिटायरमेंट के बड़े लाभ का पद दिया जा रह है।
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