मन में अंबेडकर, मिजाज में अंबेडकर, दिल में अंबेडकर, दिमाग़ में अंबेडकर, राह में अंबेडकर, आह में अंबेडकर, लेकिन उद्दश्यों में अंबेडकर नहीं हैं। उद्देश्य तो सत्ता प्राप्ति की है, चाह तो सत्ता की है और इस चाह में अंबेडकर समा नहीं सकते। तो फिर अंबेडकर को प्रतीक बनाना पड़ा। भारत की राजनीति प्रतीकों के सहारे चलती रही है। कभी गांधी प्रतीक थे, कभी राम प्रतीक बने और आज अंबेडकर बनाए जा रहे हैं। तभी तो हिंदू धर्म के आडंबरों को खारिज कर बौद्ध बने अंबेडकर उन लोगों को भी भाने लगे हैं जो हिंदू राष्ट्र के सपने देखा करते हैं और जिनके लिए बुद्ध और कबीर हिंदू विरोधी हैं।

तो झंडों और डंडों पर हैं अंबेडकर, मंचों और नारों में हैं अंबेडकर। और अंबेडकर का समाज, वो तो आज भी उसी गंदी बस्ती में है जिससे निकालने के लिए अंबेडकर ने संघर्ष किया और सबके निशाने पर आए। वो आज भी अपनी ही धर्म व्यवस्था का शिकार है और हाशिए पर खड़ा गांव के दक्खिन वाली बस्ती में जीने की विवशता की गवाही दे रहा है। नारों, झंडों में अंबेडकर को ढोने वाले मंचों के रास्ते शाही दरबार तक पहुंच गए, शहंशाह हुए और दलित समाज को वहीं का वहीं खड़ा रखा जहां से निकालने का संघर्ष अंबेडकर ने खड़ा किया था।
तो सच ये है कि अंबेडकरवाद को भी गांधीवाद और लोहियावाद जैसे लबादे में लपेट कर राजनीति की बिसात पर रख दिया गया है। जहां मकसद अंबेडकर को पाना नहीं, अंबेडकर के नाम पर सत्ता पाना है। अहिंसा के इस पुजारी के नाम खड़ा संगठन भीम आर्मी लोगों से हथियार उठाकर हमलावर होने की खतरनाक अपील कर रहा है तो समाज का संघर्ष खड़ा करने वाले अंबडेकर के नाम राजनीति करने वाले नेता पूरे दलित समाज को सिर्फ और सिर्फ वोटबैंक की दलदल बनाए रखने की तमाम कवायदें करते दिख रहे हैं।
No comments:
Post a Comment