संस्थाओं के कमजोर होने की
गवाही है सेना प्रमुख का बयान।
सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत के बयान से हैरान हूं। जनरल रावत ने पाकिस्तान
के संदर्भ में कहा है कि आतंकवाद और बातचीत दोनों एक साथ नहीं हो सकते। जनरल रावत
का ये बयान बताता है कि देश के तमाम संस्थान कमजोर हो चुके हैं। वरना जनरल ये बयान
क्यों देते। मौजूदा परिस्थितियों में पाकिस्तान से बातचीत होगी या नहीं ये कौन तय करेगा ? हमारी चुनी हुई सरकार या
सेना का जनरल ? सेना के अधिकारी जब हमारी
विदेश नीतियां तय करेंगे तो फिर विदेश मंत्रालय क्या करेगा ? सेना प्रमुख का ये बयान
गंभीरता से लेना चाहिए। आपका काम सीमा पर दुश्मनों से देश की सुरक्षा है। आपका काम
ये नहीं कि आप ये तय करें कि किससे कब बातचीत होगी। सेना प्रमुख से जवाब-तलब होना
चाहिए। उन्हें हिदायत दी जानी चाहिए। अगर ये सब नहीं किया गया तो फिर मुझे ये कहने
में गुरेज नहीं होगा कि ये सरकार बेहद कमजोर है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को देश
को ये एहसास करवाना होगा कि वही विदेश मंत्री हैं।
संस्थाओं के रेंगने की ये कोई पहली
घटना नहीं है। इससे पहले भी कर्नाटक विधानसभा चुनावों की तारीखों की घोषणा के वक्त
ये देखा गया। ऐसा लगा निर्वाचन आयोग बीजेपी का चुनाव सेल है। बीजेपी आईटी सेल
प्रमुख अमित मालवीय ने जब चुनाव के तारीखों की घोषणा ट्वीटर पर कर दी तब निर्वाचन
आयोग ने उन्हीं तारीखों पर चुनाव करवाने की पुष्टि की।
सुप्रीम कोर्ट को भी इसी तरह की
संस्था बनाने के दावे बीजेपी कर रही है। यूपी के एक बीजेपी विधायक ने हाल ही में
कहा है कि अयोध्या में राम मंदिर बन कर रहेगा। विधायक ने साफ कहा कि सुप्रीम कोर्ट
भी हमारा ही है और फैसला मंदिर के पक्ष में ही आएगा।
एक-दो नहीं ऐसे कई उदाहरण हैं जो बता
रहे हैं कि देश की तमाम संस्थाएं या तो खुद रेंगने लगीं हैं या फिर उन्हें रेंगने
पर मजबूर कर दिया गया है। लेकिन, सेना प्रमुख का आगे बढ़कर सरकार होने की कोशिश
करना खतरनाक संकेत है। सेना प्रमुख हमारी विदेश नीतियां नहीं तय कर सकते। इस काम
के लिए हमने सरकार चुनी है। भारत को पाकिस्तान बनाने की कोशिश मत कीजिए। भारत में
फैसला संसद करती है और वही करेगी भी।
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