Sunday, January 14, 2018

तो क्या मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ेगा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ?

अब शास्त्रों और बीजेपी के खिलाफ होगी संघ परिवार की जंग !
2014 में अन्ना आंदोलन से पैदा हुए माहौल को घर-घर तक पहुंचाने वाले संघ के जिन स्वयं सेवकों ने मोदी-मोदी के नारे गढ़े संभव है वही 2019 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ नारे गढ़ने आपके दरवाज़े पर पहुंचें। ख़बर आपको हैरान करने वाली है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की तैयारी इससे आगे की है। संघ ने सिर्फ अपना हाफ पैंट नहीं छोड़ा है, हाफ पैंट के साथ घिसी-पिटी पुरातनपंथी सोच को भी छोड़ने की तैयारी कर ली है। वेद-शास्त्रों के हर्फ-हर्फ को अपना जीवन कहने वाला संघ अब वेद-शास्त्रों के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत जुटाने लगा है। संघ परिवार ने पानी, मंदिर और श्मशान आंदोलन शुरू करने की योजना बनाई है। संघ परिवार ने साफ कर दिया है कि पानी को लेकर जो जाति विभेद करने वाले शास्त्र हैं उन्हें वो नहीं मानेगा, संघ अब उन शास्त्रों के उस हिस्से को भी नहीं मानेगा जो ऊंच-नीच की बात करते हैं। इससे आगे बढ़ते हुए संघ परिवार ने गांव-गांव श्मशान आंदोलन चलाने की तैयारी की है। गांव-गांव अलग-अलग जाति-वर्ग के लोगों के श्मशान हैं। संघ परिवार अब एक ही श्मशान में सवर्ण, पिछड़ा वर्ग और दलित के दाह संस्कार के लिए मुहिम चलाने की तैयारी में है। इतना ही नहीं मुसलमानों के बीच पकड़ मजबूत करने के लिए संघ परिवार ने बड़ी रणनीति बनाई है। ये रणनीति राष्ट्रवाद की चाशनी में डूबी है और इसी चाशनी में संघी मुस्लिम तैयार किए जाएंगे। फिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ खुद को एक ग़ैर राजनैतिक संगठन के केंचुल से बाहर निकालने की मुहिम चलाएगा और संभव है कि राष्ट्रीय स्वयं संघ नाम से ही सियासी दल चुनावी मैदान में हो और फिर अपने सियासी मकसद के लिए उसे बीजेपी की बिसात पर उलझना नहीं पड़ेगा।

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हलांकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अभी ऐसी कोई घोषणा नहीं की है लेकिन, संघ से जुड़े सूत्र बता रहे हैं कि संघ अपने लक्ष्यों को हासिल करने में पूरी सतर्कता बरत रहा है और अगर मौजूदा मोदी सरकार संघ के लक्ष्यों को हासिल करने में विफल रही तो फिर संघ परिवार नए राजनीतिक दल के गठन पर विचार करेगा। दरअसल संघ परिवार की सोच में ये बड़ा बदलाव मौजूदा केंद्र सरकार के रवैये से आया है। संघ परिवार को ये एहसास होने लगा है कि मोदी सरकार संघ के आनुषांगिक संगठनों की उपेक्षा कर रहा है। ऐसे में भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच, सहकार भारती, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत और लघु उद्योग भारती जैसे संगठनों की साख पर संकट पैदा होने का खतरा है।
केंद्र सरकार ने ना तो स्वदेशी जागरण मंच के विरोध को महत्व दिया और ना ही भारतीय किसान संघ के विरोध पर गंभीरता दिखाई। हद तो ये हो गई कि एफडीआई और महंगाई के मुद्दों पर संघ के आनुषांगिक संगठनों के तमाम विरोध के बावजूद केंद्र सरकार के किसी प्रतिनिधि ने संघ या संघ के आनुषांगिक संगठनों के नेताओं से बात तक नहीं की। जाहिर है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सरकार का ये रुख पसंद नहीं आना था और आया भी नहीं। कुछ ही दिनों पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की दो दिवसीय समन्वय बैठक में ये मुद्दा बेहद गंभीरता से उठा भी था।
सूत्र बता रहे हैं कि इस बैठक में आरएसएस के संयुक्त सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल, आरएसएस के सहयोगी संगठनों-स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ, सहकार भारती, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत और लघु उद्योग भारती के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। भाजपा की तरफ से अमित शाह और अरुण जेटली समेत केंद्र के कुछ मंत्रियों को बैठक में बुलाया गया था।
इस बैठक के बाद संघ परिवार के भीतर अब ये चर्चा भी होने लगी है कि बाहर और भीतर से बीजेपी को समर्थन देने से बेहतर होगा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को ही एक राजनैतिक दल के रूप में ढाल लिया जाए। संघ का मानना है कि उसका संगठन भारत के 90 फीसदी हिस्से में मजबूत पकड़ रखता है और गांव-गांव, शहर-शहर मजबूत संगठन होने की वजह से सीधी राजनीति में उसे कोई शुरुआती दिक्कत नहीं आएगी।
संघ और बीजेपी के बीच दूरी बढ़ी तो भारत की राजनीति एक झटके में बदली नजर आएगी। इस सच से किसी को इनकार नहीं होगा कि बीजेपी का आधार वोट संघ परिवार ही तैयार करता है। ये भी सच है कि अगर संघ ने सहयोग रोक दिया तो बीजेपी के लिए चुनावी राजनीति की चुनौतियां बढ़ जाएंगी। लेकिन बात उससे आगे की है। कल्पना कीजिए कि किसी चुनाव में बीजेपी के खिलाफ आरएसएस मैदान में हो और आरएसएस के नेता बीजेपी नेताओं की कलई खोल रहे हों और दूसरी तरफ बीजेपी के नेता आरएसएस की कलई खोल रहे हों। हलांकि अभी ये सिर्फ कल्पना भर है लेकिन, भारत जैसे बहुदलीय लोकतांत्रिक देश में इसके विकल्प हमेशा खुले हैं और राजनीति का सच ये है कि इसमें कोई किसी का सगा नहीं होता।

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