Friday, September 28, 2018

बिहार: बर्बादी को ही विकास बताने की साजिशें


विकास का मतलब क्या क्या सड़कें बनना विकास है क्या फ्लाईओवर बनना विकास है आपका जवाब भी वही होगा जो मेरा जवाब है। हां, सड़कें, फ्लाईओवर बनना विकास है। कॉमन जवाब है ये। और इसी जवाब से मेरा ये संदेह और गहरा होता जाता है कि सत्ता-समाज ने हमारी पूरी सोच को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। बिहार में जिस विकास की गाथा सुनाई जा रही है वो विकास सूबे के अलग-अलग हिस्सों में सड़कों पर सरपट दौड़ता दिख रहा है। पटना और नालंदा में यही विकास फ्लाइओवर पर सीना ताने खड़ा मिल जाता है।

  लेकिन इस विकास की कीमत चुकाई किसने ? कौन इस चमकते-दमकते विकास की चकाचौंध में तबाह हुआ ? इन सवालों का सीधा जवाब है बिहार। बिहार की जनता इस चकाचौंध में बुरी तरह से बर्बाद हुई है।
   पटना को देखकर अब अच्छा लगता है। गड्ढामुक्त सड़कें, चौंड़ी सड़कें, सड़कों के किनारे फुटपाथ, फ्लाईओवर पर सरपट दौड़ती गाडियां। नालंदा की तस्वीर भी ऐसी ही है सो अच्छी लगती है। लेकिन पटना से निकलते ही हाजीपुर हो या आरा कुछ बदला नहीं दिखता। शहरों को जोड़ने वाली सड़कें ज़रूर बेहतर हुईं हैं लेकिन शहर जस के तस हैं। बेतिया से लेकर दरभंगा तक, सुपौल से लेकर औरंगाबाद तक शहरों में कुछ बदला नहीं दिखता। तो फिर कौन सी चकाचौंध और किसकी तबाही का जिक्र मैं कर रहा हूं ?
   मैं जिक्र कर रहा हूं आपकी बर्बाद होती नस्लों का। आपको बाजार के हवाले करती व्यवस्था का। मंचों से बड़ी-बड़ी बातें करने वाले मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री या सूबे के शिक्षा मंत्री ने आपको कभी ये नहीं बताया होगा कि बिहार के स्कूलों की हालत क्या है। क्या आपको किसी ने ये बताया है कि बिहार के 68 फीसदी प्लस टू स्कूलों में गणित के शिक्षक नहीं हैं ? क्या विकास के इन स्वघोषित नायकों ने आपको कभी ये बताया कि सूबे के 70 फीसदी प्लस टू स्कूलों में फिजिक्स के टीचर नहीं हैं ? यही हाल केमेस्ट्री के शिक्षकों का भी है। तकरीबन 70 फीसदी प्लस टू स्कूलों में केमेस्ट्री के टीचर नहीं हैं। इंग्लिश के शिक्षकों के मामले में भी यही हाल है। और ये हाल सिर्फ प्लस टू स्कूलों का नहीं है। दसवीं तक चलने वाले स्कूलों का हाल भी यही है। ये हाल क्यों है और सड़कों-पुलों को नीली रौशनी में नहलाने की बेचैनी क्यों है ? इन सवालों के जवाब से पहले स्वास्थ्य महकमे का हाल भी जान लीजिए।
  बिहार के तमाम सरकारी अस्पताल नियोजित डॉक्टरों के भरोसे चल रहे हैं। एक तो अस्पताल ही बेहद कम हैं ऊपर से 60 फीसदी डॉक्टरों के पद रिक्त हैं। कई जिला अस्पतालों में तो हार्ट अटैक के मरीजों को देखने वाला कोई है ही नहीं। सरकारी अस्पतालों में आंख, कान और गला के डॉक्टर खोजे नहीं मिलते और दांत वाला विभाग कब बंद हो गया किसी को याद तक नहीं। नर्स और कंपाउंडर के भी ज्यादातर पद खाली हैं।
  अब आइए इस मजेदार खेल को समझते हैं। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का माहौल होगा या अच्छी व्यवस्था होगी तो आप क्यों किसी प्राइवेट स्कूल को अपनी गाढ़ी कमाई देंगे ? जब तेल से लेकर साबुन तक और यहां तक कि दवाई में भी आप सरकार को टैक्स दे रहे हैं तो फिर अपने ही दिए पैसों से सरकारी स्कूलों में ही अपने बच्चे को क्यों नहीं पढ़ाना चाहेंगे आप ? आप भले ही ये सवाल खुद से नहीं पूछते हों लेकिन सरकारों को ये सवाल टोकते रहते हैं। और सरकार को ये मालूम होता है कि जिस जनता के टैक्स के पैसों से सरकार राजा होता है उसी जनता को अगर किसी दिन अपने पैसों का सच पता चल गया तो फिर वो सरकार से सवाल पूछने लगेगी। आपको ये जान कर बेहद हैरानी होगी कि गांवों और शहरों में बसने वाली बहुत बड़ी उस आबादी को, जो इनकम टैक्स के दायरे से बाहर है, ये पता ही नहीं कि वो भी सरकार को टैक्स देती है। सरकारों ने और सरकारी मशीनरी ने कभी भी उस आबादी को ये नहीं बताया कि वो जो साबुन,तेल, दवाई, नमक खरीदती है उसकी कीमत का बड़ा हिस्सा सरकार का थोपा गया टैक्स होता है। और सरकार का सारा तामझाम चलता है इसी टैक्स के पैसों से। लेकिन राजनीति इससे नहीं चलती। राजनीति के लिए और राजनीतिक दलों को चलाने लिए बहुत पैसों की जरूरत होती है। ये पैसा आता कहां से है ? नेता कहते हैं चंदे से। चंदा देता कौन है ? नेता कहते हैं कि वो ये नहीं बताएंगे।
  तो फिर चलिए बिहार में चलने वाले प्राइवेट स्कूलों की तरफ देखते हैं। विशाल कैंपस, महलों सी इमारतें, 20 से लेकर 150 तक बड़ी बसें और न जाने क्या-क्या। जाहिर है इन स्कूलों के मालिक बहुत पैसे वाले होते होंगे। और जाहिर है कि जब सरकारी स्कूलों में टीचर होंगे, बिजली-पंखे होंगे और अच्छी पढ़ाई होगी तो इन प्राइवेट स्कूलों में कोई क्यों आएगा। और जब इन प्राइवेट स्कूलों में बच्चे नहीं आएंगे तो इन स्कूलों के अमीर मालिक लोग किसी पार्टी या किसी नेता को चंदा क्यों देंगे?
  सरकारी अस्पतालों में अगर डॉक्टर रहने लगें, जांच और इलाज होने लगे तो फिर फ्राइवेट अस्पतालों का धंधा चलेगा कैसे ? और जब धंधा ही नहीं चलेगा तो पार्टी फंड में गुप्त चंदा कैसे पहुंचेगा ?  

  सड़कों और पुलों के निर्माण में जो कंपनियां लगी होती हैं वो अरबों-खरबों की कंपनियां होती हैं। अरबों-खरबों का टेंडर होता है। और इसी अनुपात में गुप्त चंदा भी। मतलब दोनों के फायदे। प्राइवेट कंपनियां जनता के पैसों से सड़कें बनाकर मालामाल। राजनीतिक दल प्राइवेट कंपनियों के चंदों से मालामाल और सरकार के विकास के दावे के लिए सड़क, पुल और फ्लाईओवर।
   नीतीश कुमार के शासनकाल में शिक्षा और स्वास्थ्य महकमे का जैसा बुरा हाल हुआ वैसा बिहार के इतिहास में कभी नहीं हुआ। नीतीश कुमार के पास विकास गाथा के लिए सड़कें, पुल और फ्लाईओवर हैं। लेकिन ये गाथा किसी साजिश का हिस्सा लगती है। सड़कों के साथ-साथ शिक्षकों की भी जरूरत है। पुलों के साथ डॉक्टरों की भी ज़रूरत है। लेकिन डॉक्टर चुनावी चंदा नहीं दे सकता और शिक्षक के पास देने के लिए कोई गुप्त धन नहीं होता। कंस्ट्रक्शन कंपनी के पास देने के लिए बहुत कुछ होता है।  


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