बीजेपी के
खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चा खोलने को तैयार कांग्रेस को यूपी जैसे बड़े राज्य
में ही ज़मीन मिलती नहीं दिख रही है। जाति और
संप्रदाय के मोर्चे पर कमजोर कांग्रेस के पास यूपी में संघर्ष के जरिए हासिल की
हुई ताकत भी नहीं है। 2014 के लोकसभा
चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 42.63 फीसदी वोट मिले जबकि कांग्रेस को महज
7.53 फीसदी। समाजवादी पार्टी ने 22.35 फीसदी वोट हासिल किया और बहुजन समाज पार्टी
ने 19.77 फीसदी. ये नतीजे लोगों को अप्रत्याशित लगे। लेकिन बाद में हुए उपचुनावों
ने हारे हुए दलों को नया फॉर्मूला दिया। उपचुनवों में बीजेपी को लोकसभा की 3 सीटें
गंवानी पड़ी और एक विधानसभा चुनाव में भी हार का सामना करना पड़ा। मतलब चारों
उपचुनाव बीजेपी को हार का हरकारा दे गए। उपचुनावों से निकले फॉर्मूलो ने कांग्रेस,
सपा और बसपा को नया रास्ता तो ज़रूर दिखाया लेकिन हाल की सियासी घटनाओं ने इस
फॉर्मूले से कांग्रेस को बाहर करने के संकेत दिए हैं। क्योंकि तेल की कीमतों में
उछाल को जिस तरह मायावती ने बीजेपी के साथ कांग्रेस के माथे थोपा है उससे ये साफ
होता है कि फिलहाल बीएसपी को कांग्रेस की ज़रूरत नहीं है
तो फिर कांग्रेस करेगी क्या..क्योंकि पिछले
चुनाव में 7.53 फीसदी वोट पाने वाली पार्टी ने यूपी की सियासत में कोई ऐसा कमला
किया भी नहीं है जिससे उसके रिवाइवल की उम्मीदें पैदा हों.. 2009 के नतीजों से
तुलना करें तो पार्टी को 2014 में बड़ा नुकसान हुआ था। 2009 के लोकसभा चुनाव में
बीजेपी को यूपी में 17.50 फीसदी वोट मिले
थे जबकि कांग्रेस को 11.65 फीसदी। सपा ने 23.26 फीसदी वोट पाए थे और बीएसपी ने
27.23 फीसदी। पांच सालों बाद कांग्रेस 12 सीटों से 2 सीटों पर पहुंच गई। मतलब साल
दर साल लगातार खिसकते जनाधार वाली कांग्रेस को सहारा चाहिए लेकिन जिनसे सहारे की
उम्मीद है उन्हें कांग्रेस की ज़रूरत महसूस होती नहीं दिख रही है.. तभी तो सपा
प्रमुख अखिलेश यादव भी महंगाई के लिए बीजेपी और कांग्रेस दोनों को एक साथ
जिम्मेदार ठहराने लगे हैं।
तो फिर होगा क्या..कांग्रेस अकेले दम पर
यूपी में तन कर खड़े होने की स्थिति में है नहीं और सपा-बसपा पास फटकने देने को
तैयार हैं नहीं। और पार्टी की मजबूरी ऐसी कि पार्टी के पास कहने को ना तो कोई वोट
बैंक है और ना ही पारंपरिक वोट बैंक को एक बार फिर पार्टी से जोड़ने वाला कोई
नजरिया
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