Monday, January 15, 2018

दलित सियासत में सिमटती ‘माया’ और उभरता ‘रावण’

दलित राजनीति में कांशीराम की ज़मीन पर जिसने सबसे बेहतरीन सियासी फसल उपजाई वो हैं मायावती। लेकिन अब उसी मायावती को कांशीराम की जमीन से बेदखल करने की कोशिशें तेज हो गईं हैं। हाल के दिनों में जिस तरह से भीम आर्मी ने अपनी ताकत दिखाई है और जिस तरीके से संगठन विस्तार किया है वो मायावती के लिए बेहद बड़ी चुनौती का सबब है। भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर फिलहाल जेल से बाहर हैं और संगठन विस्तार में अपनी पूरी ताकत झोंके रहे हैं। चंद्रशेखर खुद का रावण कलवाना पसंद करते हैं और अपनी पहचान मायावती से बड़ी मानते हैं। इस रावण के समर्थकों का मानना है कि मायावती ने सिर्फ दलित भावनाओं का इस्तेमाल किया और सत्ता का सुख भोगा। इस रावण के समर्थक ये भी मानते हैं कि दलित संघर्ष कांशीराम के बाद मायावती के सत्ता संघर्ष में तब्दील हो कर रह गया था और अब चंद्रशेखर उस संघर्ष को नए तरीके से खड़ा कर रहा है।
             मायावती भी ये जान चुकी हैं कि चंद्रशेखर भड़काऊ राजनीति के जरिए अब सीधी लड़ाई वाली राजनीति की तरफ बढ़ चुके हैं। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में जातीय संघर्ष के नाम हुई हिंसा के पीछे मुख्य रूप से चंद्रशेखर का ही नाम सामने आया। इसके बाद चंद्रशेखर के नेतृत्व में दिल्ली के जंतर-मंतर पर जुटी दलितों की भीड़ ने भी मायावती की चिंताएं बढ़ाईं।
दरअसल राजनीति में मायावती की जो कमजोरियां रहीं उन्हीं कमजोरियों ने चंद्रशेखर की ताकत बढ़ाई। दलित अस्मिता का जो मतलब हाल के दिनों में कुमारी मायावती ने विकसित किया वो इतना बस था कि नौकरशाही में बैठे दलित समुदाय के ठेकेदार, सियासी जमात में जमे-जमाए दलित और खाए-अघाए दलित समुदाय के वे लोग जो बौद्धिक जुगाली कर सकते हों। मायावती ये भूल गईं कि गांवों के दक्खिन टोलों में सबसे ज्यादा दलित बसते हैं। वो टोले जहां मायावती की मूर्ति लगाई गईं हैं, जहां मायावती को किसी तारणहार से कम नहीं समझा जाता। उन गांवों में कांशीराम की मूर्तियां नहीं हैं, बाबा साहब की भी नहीं हैं, संत रविदास बाबा की भी नहीं हैं लेकिन मायावती की हैं। उस मायावती की जो कभी इन गांवों में कभी गईं ही नहीं।
मायावती ये भी भूल गईं कि जिस ज़मीन पर वो सत्ता की इमारत खड़ी करती रहीं हैं वो ज़मीन उनकी है ही नहीं। वो ज़मीन कांशीराम ने तैयार की थी। यूपी के किसी भी गांव की दलित बस्ती में चले जाइए आपको लोगों की आंखों में कांशीराम की यादें तैरती मिल जाएंगी। साइकिल से पहुंचे कांशीराम के क़िस्से सुनाते लोग और जिस घर में रुके वो घर दिखाते लोग ज्यादातर गांवों में मिल जाएंगे।
बहुजन समाज पार्टी को खड़ा करने से पहले कांशीराम ने राजनीति में दलितों को खड़ा होने का हुनर सिखाया। एक दिन में 60 से 80 किलोमीटर साइकिल चलाने वाले लोग इस दौर में नहीं मिल सकते। कांशीराम साइकिल से चलते थे। मायावती चार्टर्ड प्लेन से चलतीं हैं। कांशीराम तालाब, कुंओं का पानी पीते थे, मायावती मिनरल वाटर से पैर धोतीं हैं। कांशीराम ने दलित समाज को सत्ता-समाज से जोड़ा, मायावती ने सत्ता हासिल करने के लिए दलित समाज का इस्तेमाल किया। कांशीराम पिछड़े गांवों में बदबूदार नालियों के नजदीक चटाई और खाट पर सो कर दलित समाज को समझते और समझाते रहे थे, मायावती शानदार इमारत में तमाम सुविधाओं के बीच रहतीं हैं।
      मायावती ने दलितों के लिए कभी संघर्ष किया हो ये उनको भी याद नहीं होगा। मायावती से किसी गांव का ग़रीब दलित कभी जाकर मिल ले ये सोचा भी नहीं जा सकता। गांवों में मुफलिसी की हालत में जी रहे दलित लोगों के साथ मायावती अपना कुछ मिनट भी बिता सकें ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता। यहीं मायावती हार गईं। हारना तो उन्हें बहुत पहले था। मायावती को इसका संदेह भी था और यही वजह रही कि बहुजन समाज पार्टी में उन्होंने खुद के बाद किसी दलित नेता को उभरने ही नहीं दिया।
       चंद्रशेखर को यहीं से जमीन मिलती गई। चंद्रशेखर ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद 2022 में होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव में चंद्रशेखर पश्चिमी यूपी में अपनी सियासी ताकत आजमाने की फिराक में हैं। फिलहाल चंद्रशेखर शायद ही खुद की पार्टी बनाएं और चुनावी मैदान में उतरें। संभव है चंद्रशेखर आम चुनाव में किसी को समर्थन देने की रणनीति बना रहे हों। पश्चिमी यूपी में खुद को आजमाने के साथ चंद्रशेखर अपनी बार्गेनिंग क्षमता का आकलन भी करना चाहेंगे और फिर इसके बाद सूबे की दलित सियासत की एक नई दिशा भी सामने होगी।

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