Friday, March 17, 2017

सत्ता का 'माया'जाल और वोटर का मोहभंग

उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी का सूपड़ा साफ होना इस बात का संकेत है कि महज जातीय अस्मिता के सहारे सत्ता की सियासत नहीं चल सकती। दलित अस्मिता का जो मतलब हाल के दिनों में कुमारी मायावती ने विकसित किया वो इतना बस था कि नौकरशाही में बैठे दलित समुदाय के ठेकेदार, सियासी जमात में जमे-जमाए दलित और खाए-अघाए दलित समुदाय के वे लोग जो बौद्धिक जुगाली कर सकते हों। मायावती ये भूल गईं कि गांवों के दक्खिन टोलों में सबसे ज्यादा दलित बसते हैं।
वो टोले जहां मायावती की मूर्ति लगाई गईं हैं, जहां मायावती को किसी तारणहार से कम नहीं समझा जाता। उन गांवों में कांशीराम की मूर्तियां नहीं हैं, बाबा साहब की भी नहीं हैं, संत रविदास बाबा की भी नहीं हैं लेकिन मायावती की हैं। उस मायावती की जो कभी इन गांवों में कभी गईं ही नहीं।
मायावती ये भी भूल गईं कि जिस ज़मीन पर वो सत्ता की इमारत खड़ी करती रहीं हैं वो ज़मीन उनकी है ही नहीं। वो ज़मीन कांशीराम ने तैयार की थी। यूपी के किसी भी गांव की दलित बस्ती में चले जाइए आपको लोगों की आंखों में कांशीराम की यादें तैरती मिल जाएंगी। साइकिल से पहुंचे कांशीराम के क़िस्से सुनाते लोग और जिस घर में रुके वो घर दिखाते लोग ज्यादातर गांवों में मिल जाएंगे।
बहुजन समाज पार्टी को खड़ा करने से पहले कांशीराम ने राजनीति में दलितों को खड़ा होने का हुनर सिखाया। एक दिन में 60 से 80 किलोमीटर साइकिल चलाने वाले लोग इस दौर में नहीं मिल सकते। कांशीराम साइकिल से चलते थे। मायावती चार्टर्ड प्लेन से चलतीं हैं। कांशीराम तालाब, कुंओं का पानी पीते थे, मायावती मिनरल वाटर से पैर धोतीं हैं। कांशीराम ने दलित समाज को सत्ता-समाज से जोड़ा, मायावती ने सत्ता हासिल करने के लिए दलित समाज का इस्तेमाल किया। कांशीराम पिछड़े गांवों में बदबूदार नालियों के नजदीक चटाई और खाट पर सो कर दलित समाज को समझते और समझाते रहे थे, मायावती शानदार इमारत में तमाम सुविधाओं के बीच रहतीं हैं।
मायावती ने दलितों के लिए कभी संघर्ष किया हो ये उनको भी याद नहीं होगा। मायावती से किसी गांव का ग़रीब दलित कभी जाकर मिल ले ये सोचा भी नहीं जा सकता। गांवों में मुफलिसी की हालत में जी रहे दलित लोगों के साथ मायावती अपना कुछ मिनट भी बिता सकें ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता। यहीं मायावती हार गईं। हारना तो उन्हें बहुत पहले था। लेकिन कांशीराम की विरासत पर उनके कब्जे ने उनको अबतक बनाए रखा था। वो इकलौती ऐसी नेता रहीं जो कांशीराम की जमा-पूंजी का इस्तेमाल करतीं रहीं। लेकिन जमा की गई पूंजी कब तक खर्च की जा सकती है और चार्टर्ड प्लेन से कब तक गांव के दक्खिन टोलों से जुड़ा रहा जा सकता है ? तो मायावती की ये हार सबसे बड़ी हार नहीं है। यही आलम रहा तो मायावती को इससे भी बड़ी हार झेलनी होगी। मायावती का मौजूदा स्वरूप हारेगा तो दलित अस्मिता जीतेगी।
कांशीराम को क़िस्से और कहानियों में समेटने वाली हर कोशिश दलित विरोधी होगी। दलित अस्मिता की राजनीति करने वालों को ये समझना होगा कि बाबा साहब और कांशीराम के नाम के आसरे दलित भावनाओं को दलित बनाए रखने से पूरे समाज का नुकसान है। दलित समुदाय को सत्ता में, आरक्षण में, शिक्षा में, नौकरियां समेत तमाम क़िस्म के विकासवादी रास्तों पर बराबर की हिस्सेदारी देनी होगी। दलित समाज के भीतर एक सवर्ण खड़ा कर बाक़ी दलितों को बरगलाया नहीं जा सकता। गांव में दो-चार दलितों को तमाम सुविधाएं देकर बाक़ी दलितों को वोट के तौर पर इस्तेमाल करने का वक़्त खत्म तो होगा ही। दलितों को समानता के साथ समग्रता से समझने का नज़रिया अगर मायावती विकसित नहीं करेंगी तो कोई और कर लेगा।

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