बिहार की राजनीति
में जाति का वजूद खत्म नहीं हुआ है...लेकिन कई मौकों पर व्यक्तिवादी होती राजनीति
पार्टी पर हावी हुई है..कई मौकों पर पार्टी राग आम आदमी के मुद्दों को हाशिए पर
धकेलता रहा है.. तो बिहार में कौन चलेगा..किसकी चलेगी..कैसे चलेगी..जाति की
राजनीति चलेगी क्या.. लालू प्रसाद के मंडल राग के बाद पिछड़ों की सियासी जमीन पर
जातीय राजनीति को परवान देने की कवायद तेज हुई है.. लगातार हुए जातीय सम्मेलनों और
चुनाव से ठीक पहले कई जाति-समुदाय को ओबीसी, बीसी, एससी, एसटी के खांचे में डालना भी उसी सियासत का
हिस्सा है..जातीय नेताओं के उभार और गठबंधन में जातीय पहचान वाले नेताओं को शामिल
करने की राजनीति खूब हुई...मंचों से एक पूर्व मुख्यमंत्री की जाति बता-बताकर इसको
हवा भी खूब दी गई... तो क्या एक बार फिर बिहार में जात की राजनीति ही चलेगी...या
फिर पार्टी वाली राजनीति चलेगी...भागलपुर के दंगों के बाद बदली बिहार की राजनीति
में मंडल आयोग की अनुशंसाओं ने बड़ा असर दिखाया...अचानक सूबे की राजनीति
बदली..कांग्रेस हाशिए पर जाती रही और जनता दल शीर्ष पर पहुंचता रहा.. इसी जनता दल
से बाद में आरजेडी और जेडीयू का जन्म हुआ..अब दोनों एक साथ हैं..आरजेडी की चलेगी, जेडीयू की चलेगी..या फिर देश में कांग्रेस का विकल्प बन राष्ट्रीय राजनीति को
बदल चुकी बीजेपी की चलेगी.... तीसरा सवाल व्यक्ति विशेष में सिमटती राजनीति से
जुड़ा है... अजीब संयोग है कि बीजेपी कहती है कि जेडीयू में एक आदमी की चलती है वो
हैं नीतीश कुमार, एलजेपी कहती है कि आरजेडी में एक आदमी की चलती
है वो हैं लालू प्रसाद, नीतीश कुमार कहते हैं कि बीजेपी में एक आदमी की
चलती है वो हैं नरेंद्र मोदी.. तो क्या देश की राजनीति व्यक्तिकेंद्रित होती जा
रही है.. और बिहार में यही राजनीति चलेगी.. लोग किसी के नाम पर उससे जुड़े
उम्मीदवारों को वोट दे देंगे...सवाल हैं.. जवाब अलग-अलग ही होंगे..लेकिन जो भी
होंगे दिलचस्प होंगे
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