Tuesday, March 12, 2019

इस्लाम: समझिएगा तो नफरत नहीं होगी-03


मुहम्मद साहब से पहले अरब किसी देश की शक्ल में नहीं था। कभी-कभार अलग-अलग हिस्सों में छोटी-छोटी बादशाहतें ज़रूर कायम हुईं। छठी शताब्दी तक अरब में इसी किस्म की छोटी बादशाहतें कायम होती रहीं हैं। मक्का और मदीना भी मुहम्मद साहब के वक्त में अलग-अलग कबीलों में बंटे शहर थे। इन कबीलों की कई शाखें होतीं थीं और सैकड़ों घरानों के हजारों परिवार एक कबीले में रहा करते थे। कबीले का हर सदस्य दूसरे सदस्य के लिए हर किस्म की कुर्बानी देता था। कबीले के किसी एक सदस्य के साथ दूसरे कबीले के लोग बदसलूकी करते थे तो उसे पूरे कबीले की बेइज्ज़ती मानी जाती थी और फिर बदले के लिए खून-ख़राबा होता रहता था। कई कबीले तो पीढ़ियों तक एक-दूसरे से जंग लड़ते थे। हर कबीले का एक सरदार होता था जिसे शेख कहते थे। ये शेख उस कबीले का हाकिम, जरनैल और पंडा-पुरोहित हुआ करता था। हर कबीले को लगता था कि उसका कबीला सर्वश्रेष्ठ नस्ल का है और उसके कबीले की मान्यता ही पवित्र है। एक मान्यता पूरे अरब में थी कि अगर किसी का कत्ल हो गया तो उसकी आत्मा चिड़िया बनकर उसके कब्र पर तब तक मंडराती रहती थी जब तक कि उसके कत्ल का बदला कत्ल से ही नहीं ले लिया जाए।


     कबीलों की आपसी लड़ाइयों में जो स्त्री-पुरुष कैद कर लिए जाते थे वो ग़ुलाम बना लिए जाते थे। महिलाओं से अरबों का बर्ताव बेहद अमानवीय था। कई कबीलों में बेटियों को ज़िंदा दफनाने के बाद उत्सव मनाने का रिवाज था। आलम ये था कि किसी की मौत के बाद उसकी बीवी किसी और की मिल्कीयत हो जाती थी। एक पुरुष कई स्त्रियों से और एक स्त्री कई पुरुषों से विवाह कर सकते थे। दो-चार शहरों को छोड़कर सारा अरब खाना-बदोश था। पानी की जरूरत के मुताबिक कबीले जगह बदलते रहते थे। लेकिन अरब के कबीलों में साल के चार महीने शांति के होते थे। इस दौरान आपसी लड़ाइयां बंद हो जाती थीं और कबीलों के पुराने झगड़ों को खत्म करने की कोशिशें भी होती थीं। इसी दौरान अरब के लोग काबा आकर मक्का की यात्रा करते थे। मुहम्मद साहब से पहले ही काबा अरबों का तीर्थ स्थान था।

    इन्हीं परिस्थितियों में इस्लाम का अवतरण हुआ। मान्यता है कि मुहम्मद साहब जब चालीस साल के थे तब रात को उन्हें आवाज़ आई ऐलान कर। मुहम्मद साहब इस आवाज़ के मायने नहीं समझ पाए। एक-एक कर ये आवाज़ तीन बार आई। तीसरी बार आवाज़ सुनकर मुहम्मद साहब घबरा गए और पूछा क्या ऐलान करूं ?’ जवाब मिला—ऐलान कर अपने उसी रब के नाम पर जिसने कायनात बनाई है। जिसने प्रेम से प्रेम का पुतला आदमी बनाया है। ऐलान कर तेरा रब बड़ा ही दयावान है, उसने आदमी को सोचने-समझने की ताक़त दी, आदमी को वो सब बातें सिखाई जो वो नहीं जानता है।फिर एक रात आवाज आई कि जा उठ! और रब्ब का संदेश दुनिया तक पहुंचा।
   मुहम्मद साहब परेशान रहने लगे। धीरे-धीरे वक्त गुजरता गया। मुहम्मद साहब की बेचैनी बढ़ती गई। उनकी हालत देख उनकी पत्नी ख़दीजा से रहा नहीं गया। ख़दीजा के एक रिश्तेदार थे बरका। बरका यहूदी और ईसाई धर्म के बड़े विद्वान थे। एक दिन मुहम्मद साहब को लेकर खदीजा अपने रिश्तेदार बरका के पास गईं। मुहम्मद साहब ने बरका को सारा हाल सुनाया। बरका ने मुहम्मद साहब को बताया कि वो खुदा के भेजे पैग़ंबर हैं और अब उन्हें वही करना चाहिए जो उनका खुदा उनसे कह रहा है।
  तीन साल तक संदेह और संशय में जीने के बाद मुहम्मद साहब अचानक एक दिन पैग़ंबरी की राह पर निकल पड़े। कहा जाता है कि जिस दिन वो पैग़ंबरी की राह पर निकले उस दिन के पहले वाली रात को उन्हें आवाज़ आई थी कि ऐ चादर में लिपटे हुए, उठ और लोगों को आगाह कर और अपने रब्ब की बड़ाई कर और अपने कपड़ों को साफ कर और अपने मैलेपन से बच और दूसरों की सेवा करने के लिए किसी पर अहसान मत जता और अपने रब्ब के लिए सब्र से काम ले।

     मुहम्मद साहब का इलहाम का ये दावा धर्मों के इतिहास में कोई नई बात नहीं थी।  दुनिया के तमाम धर्मों को स्थापित करने वालों पीरों-पैग़बंरों, वलियों, ऋषियों-महात्माओं ने अपने-अपने तरीक़े से इसका दावा किया है। वेद, तौरेत, इंजील को मानने वाले अरबों-अरब लोग अपने-अपने धर्म ग्रंथों को ईश्वर की रचना ही मानते हैं।

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