भीड़ विकल्पहीन होती
है, लोकतंत्र नहीं। जो आज ये कह रहे हैं कि
अलां-फलां का विकल्प कौन है उनसे पूछिए कि 2004 में अटल बिहारी बाजपेयी का विकल्प
कौन था ? अटल के नेतृत्व में एनडीए की हार हुई और देश ने
विकल्प भी पेश कर दिया। मुश्किल काम विकल्प तलाशना नहीं है। मुश्किल काम है भारतीय
लोकतंत्र को भीड़तंत्र या भेंड़तंत्र बनने से रोकना। और ऐसा नहीं है कि भारतीय
लोकतंत्र में पहली बार भीड़तंत्र दिखा हो। आज जिनके लिए भक्त शब्द का इस्तेमाल हो
रहा है वो पहले भी मौजूद थे। 1974 में जब जय प्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का
आह्वान किया तब भी उनके साथ भीड़ खड़ी थी। मसला था भ्रष्टाचार मुक्त सरकार का।
जेपी ने कहा कि इंदिरा गांधी की सरकार भ्रष्ट है और भ्रष्टाचार मुक्त सरकार के लिए
इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाना होगा। भीड़ ने जेपी की इस बात पर भरोसा कर लिया।
बिना ये सोचे कि क्या भ्रष्टाचार का संबंध सिर्फ इंदिरा गांधी से है। जो नया आएगा
वो हरिश्चंद्र होगा और भारत सतयुग में पहुंच जाएगा। भीड़ ने शायद इस पर विचार ही
नहीं किया और ना ही कोई तर्क सामने रखा। जेपी के पास भी कोई फॉर्मूला नहीं था।
उनकी संपूर्ण क्रांति बाद के दिनों में सत्ता परिवर्तन के लिए किया गया एक सियासी
हथकंडा साबित हुआ और फिर उन्हीं के लोगों ने संपूर्ण क्रांति को संपूर्ण भ्रांति
कहना शुरू कर दिया। लेकिन उनके साथ भीड़ खड़ी थी और लोकतंत्र में भीड़ की ताकत का
एहसास उन्हें खूब था। और ताली बजाने वाली इस भीड़ ने तो 25 जून 1975 को तब भी ताली
ही बजाई थी जब जेपी ने रामलीला मैदान मे जुटी भारी भीड़ से ये अपील कर दी कि वो
प्रधानमंत्री का आवास घेर ले और उन्हें घर से निकलने ही न दे। भीड़ ने इसी दौरान
लोकतंत्र को कलंकित करने वाली उस अपील पर भी ताली बजाई थी जिसकी वजह से आपातकाल की
घोषणा करनी पड़ी थी। जेपी ने तब भारतीय सेना से अपील कर दी कि वो सरकार का आदेश
मानने से इनकार कर दे और इंदिरा को सत्ता से हटाने में जनता की मदद करे। आप कल्पना
कीजिए कि क्या स्थिति होती अगर सेना ने बग़ावत कर दी होती। जाने-अनजाने में देश को
सैन्य तानाशाही की तरफ झोंकने वाली वो अपील भी भीड़ को अच्छी ही लगी थी। तो ये थे
जेपी भक्त।
उसी
जेपी आंदोलन से निकले तमाम बड़े नेता भ्रष्टाचार के अलग-अलग मामलों में जेल गए,
कुछ आज भी जेल में बंद हैं। तो भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े उस आंदोलन ने भ्रष्ट
राजनेताओं की बड़ी भीड़ इस देश को दी। और फिर न तो इन सबके लिए भीड़ को जिम्मेदार
ठहराया गया और ना ही भीड़ ने इसकी जिम्मेदारी ली क्योंकि, भीड़ की कोई जवाबदेही
नहीं होती।
5 अप्रैल 2011 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर
अन्ना हजारे का आंदोलन शुरू हुआ। ये आंदोलन भी भ्रष्टाचार के आरोपों में धिरी
तत्कालीन मनमोहन सरकार के खिलाफ था। आंदोलन के मंच पर मैग्सेसे पुरस्कार से
सम्मानित अरविंद केजरीवाल, देश की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी, योग व्यवसायी बाबा
रामदेव समेत कई बड़े लोग मौजूद थे। लोगों को समझाया गया कि कांग्रेस नेतृत्व वाली
यूपीए की सरकार ही देश की तमाम समस्याओं की वजह है। भीड़ ने ये बात मान ली। यहां
भी भीड़ ने तर्क को जगह नहीं दी। यहां भी भीड़ ने सोचने के लिए खुद के विवेक का
इस्तेमाल नहीं किया। भीड़ ने मान लिया कि सोचना-समझना तो अन्ना हजारे, अरविंद
केजरीवाल, किरण बेदी और बाबा रामदेव का काम है। भीड़ का काम सिर्फ नारे लगाना और
ताली बजाना है। भीड़ का काम सिर्फ उनको कोसना है जिनको मंच पर मौजूद नेता कोसना
चाहते हैं। तब की ये भीड़ अन्ना भक्त थी। उस आंदोलन से देश को क्या मिला ये सवाल
अब अन्ना हजारे से पूछा जाना चाहिए।
अब जो भीड़ है वो मोदी भक्त है। किसी को ये
नहीं पता था कि नोटबंदी से देश को क्या फायदा होना है लेकिन, भीड़ ने ताली बजाई।
किसी को नहीं पता था कि जीएसटी से कैसे आर्थिक सुधार को गति मिलेगी लेकिन, भीड़ ने
ताली बजाई। किसी को ये नहीं पता था कि अडानी और अंबानी के कर्जे माफ कर देने से
देश में कैसे औद्योगिक क्रांति आएगी लेकिन, भीड़ ने ताली बजाई। और आज जब
अर्थव्यवस्था डूब चुकी है, सरकार के पास वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, सैनिकों को वेतन
देने के पैसे नहीं हैं और सरकार सबके वेतन और भत्तों में कटौती करती जा रही है तब
भी भीड़ ताली ही बजा रही है। एक-एक कर कई छोटे उद्योग और रोज़गार बंद हो गए लाखों
लोगों से उनका रोज़गार छिन गया। उत्पादन क्षेत्र में चीन ने भारतीय बाजार पर कब्जा
कर लिया और भक्त ताली ही बजा रहे हैं। सरकार ने एलआईसी की कमाई लूट ली, रिज़र्व
बैंक की सत्तर साल कमाई पर डाका डाल दिया और भक्त ताली बजाते रहे।
तो मुश्किल काम विकल्प खड़ा करना नहीं है
मुश्किल काम है भारतीय लोकतंत्र को भीड़तंत्र बनने से बचाना। और ये काम राजनेता और
राजनीतिक दल नहीं करेंगे। ये काम देश की मीडिया को, छात्रों को, सामाजिक
कार्यकर्ताओं को, वकीलों, शिक्षकों को करना होगा। ये काम देश की आम जनता को करना
होगा। देश किसी मदारी का तमाशा नहीं होता कि बस कोई आया डुगडुगी बजाई और फिर कौए को
कबूतर बनाने वाली हाथ की सफाई दिखा गया और देश ताली पीटने लगा। जेपी से लेकर मोदी
तक के भक्तों को जवाबदेह बनाना सबकी जवाबदेही है। वरना ताली पीटते-पीटते कपार
पीटने की नौबत आ जाएगी।
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