यहां व्यवस्था जिम्मेदार नहीं होती
3 अप्रैल को कानपुर की खुशी व्यवस्था की उस अंधी सुरंग में समा गई जहां से निकलने का कोई रास्ता नहीं होता...ये सुरंग देश के आम लोगों की कुसियां निगलती है...और यहां की व्यवस्था आम लोगों की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है।
मां की कोख से बच्चे जिंदगी लेकर निकलते हैं....और सिस्टम की कोख में जिंदगी
गंवा बैठते हैं...इस मां के आंसू हाकिमों के जाम पर भारी नहीं पड़ते... कहां हाकिम
और कहां श्यामा जैसी आम महिला...मां तुम रोती रहो...रोओ इस बात के लिए तुम्हारी
खुशी हाकिमों के नकारेपन ने छीन ली..रोओ मां..रोओ इस बात के लिए कि समाजवाद और
राष्ट्रवाद के नारों के बीच तुम्हारी हिचकियों की आवाज़ कोई सुनता नहीं है... रोओ
इस बात के लिए कि तुम निवाले को तरसती हो और वो जाम से सराबोर होते हैं..रोओ
क्योंकि तुम्हारे लिए ही तो अब तक खोदे गए हैं सारे गड्ढे, बनाई गईं हैं सारी
सुरंगे...रोओ..इसलिए रोओ कि खोदने से पहले यही तो बताया जाता है कि इन सुरंगों से
निकलेगी आम लोगों के लिए खुशी...देखो ना इसी सुरंग से तो निकली थी तुम्हारी खुशी
भी...मरी हुई खुशी..रोओ मां..रोओ...अब तो आखिरी सांस तक तुम्हें रोना ही है...तुमने सुना
न क़ानून की भाषा बोलने वाला गिरोह कैसी बातें कर रहा है
रोओ मां, उस सोच के लिए भी रोना जिसमें ये माना जाता है कि मौत तो तय होती है..फिर जब सबकुछ तय होता ही है तो कत्ल से लेकर कातिल भी तय होते हैं...ये तो नियती थी तुम्हारी खुशी की...उसे सुरंग में समाना था..जान लो इस सोच में, इस सुरंग में, इस व्यवस्था में अंधेरा ही होता है..रोती रहो तुम..तुम न तो किसी वोटबैंक को हिला सकती है न तो नोटबैंक को डुला सकती हो..फिर रोने का अलावा कर ही क्या सकती हो..लेकिन रोना..जरुर रोना..अपनी बेटी के लिए तुम्हारा रोना बेहद जरुरी है।
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