दिल्ली में पूर्वोत्तर के छात्र नीडो की हत्या के बाद बीच बहस में नस्लभेद आ
गया है... ऐसा नहीं है कि दिल्ली में बाहरियों पर ये कोई पहला हमला है..पूर्वोत्तर
के लोगों को दिल्ली के लोग चिंकी कहते हैं.. ये भी किसी हमले से कम नहीं..लेकिन
नस्लभेद के दायरे में इस बात को सिमटाना साजिश का हिस्सा हो सकता है...दरअसल मुबंई
में उत्तर भारतीयों पर हमले के खिलाफ खड़े लोग इस मसले पर खड़े नहीं हो रहे हैं..
सियासी साजिश की बू यहीं से आ रही है.. महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों पर हमले
राजनीति का हिस्सा हैं... और उन हमलों के खिलाफ खड़े होना भी राजनीति का हिस्सा है...
लेकिन दिल्ली में ना तो पूर्वोत्तर के लोग मजबूत वोटबैंक हो पाए... और ना ही किसी
दलीय खांचे में समा पाए..याद कीजिए करीब 10 साल पहले की दिल्ली... तब बिहारी शब्द
किसी इलाका विशेष के मूल निवासियों की पहचान से ज्यादा दिल्ली की एक जमात की जुबान
के लिए गाली हुआ करती थी... हालात बदले उत्तर भारतीयों की सियासी ताकत बढ़ी.. और
अब उनपर हमलों की तादाद कम हो गई है... तो क्या ये ही हमले अब पूर्वोत्तर के लोगों
पर हो रहे हैं.. तो क्या देश में इज्जत के साथ जीने की खातिर सायासी गोलबंदी के
खांचे में समाए रहना एक मजबूरी है.. क्षेत्रवाद के जरिए अपनी गली का शेर बनने की
महानगरीय आदत सभ्य समाज के दायरे में जंगल खड़ा नहीं कर रही.. बहस इन सवालों पर भी
क्यों नहीं हो रही
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