समूचा उत्तर
बिहार हर साल भीषण बाढ़ की चपेट में होता है। सैकड़ों लोग मरते हैं, हजारों
कच्चे-पक्के मकान बह जाते हैं या फिर कटाव की वजह से गिर जाते हैं। फसलों की तबाही
से लाखों किसान हर साल बर्बाद होते हैं। डूबते-उतराते उत्तर बिहार के लोगों ने
इन्हीं हालातों में रचने-बसने की कला सीख ली है। डूबते-उतराते उत्तर बिहार के
लोगों को ये समझा दिया गया है कि सालाना तबाही एक प्राकृतिक आपदा है। ‘प्राकृतिक आपदा’ की समझ विकसित होने के बाद तबाही के गुनहगार राहत-बचाव के सालाना लूट
वाले उर्स में शामिल हो जाते हैं। बिहार की इस बर्बादी की मीडिया रिपोर्टिंग भी
अज्ञानता के अंधकूप में भटकती दिखती है। न तो तथ्यों की पड़ताल, ना कोई अध्ययन और
ना कोई रिसर्च। मीडिया रिपोर्टिंग में बस लफ्जों की बाजीगरी और नाटकीयता का मंचन
होता रहता है।
भागलपुर में मची तबाही के लिए नेपाल और बरसात
को कोस रही मीडिया रिपोर्टिंग ये बताने कि लिए काफी है कि टीवी रिपोर्टिंग मर चुकी
है। राहत और बचाव की खामियों से आगे न तो रिपोर्टर सोच पा रहा है और ना ही डेस्क
पर बैठे लिखाड़ी। ग़म और आंसुओं को कैसे माल बना कर बेचा जाए सारा फोकस इसी पर है।
पिछले साल भी सारा फोकस इसी पर था, अगले साल भी सारा फोकस इसी पर रहेगा। बरसात भी
हर साल होगी, नेपाल भी वहीं रहेगा जहां वो आज है। इसमें से कुछ भी बदलने वाला नहीं
है। सरकार और मीडिया के लिए ये सबसे अच्छी स्थिति है कि बरसात हर साल आती है और
पड़ोस में पहाड़ों पर बसा नेपाल है।
भागलपुर में तबाही भी हर साल आती है। 1950 में
ही वैज्ञानिक कपिल भट्टाचार्य ने ये बता दिया था कि बाढ़ से भागलपुर बर्बाद हो
जाएगा। तब कपिल भट्टाचार्य को विकास विरोधी वैज्ञानिक बताया गया। तब कपिल
भट्टाचार्य की रिपोर्ट पर विचार कर रही सरकार को विकास विरोधी बताया गया। ये वो
दौर था जब पश्चिम बंगाल में गंगा नदी पर फरक्का बैराज बनाने का विचार सामने आया
था। वैज्ञानिक कपिल शर्मा ने तब इसका विरोध करते हुए कहा था कि फरक्का के कारण बंगाल के मालदा, मुर्शीदाबाद के साथ बिहार के पटना, बरौनी, मुंगेर, भागलपुर और पूर्णिया हर साल पानी में
डूबेंगे। 1971 में बिहार में अब तक की सबसे बड़ी बाढ़ आई। ये वही साल है जिस साल फरक्का
बैराज बन कर तैयार हुआ। फरक्का बैराज बनने का बाद गंगा नदी का बहाव अवरुद्ध हुआ और
नदी में गाद बढती गई।
गंगा बिहार के ठीक मध्य से होकर गुजरती है। यह पश्चिम में बक्सर
जिले से राज्य में प्रवेश करती है और भागलपुर तक 445 किलोमीटर की दूरी तय करती हुई झारखंड और
फिर बंगाल में प्रवेश कर जाती है। बिहार की
ज्यादातर नदियां गंगा में ही मिलती हैं और गंगा ही उनका पानी बंगाल की खाड़ी तक
पहुंचाती है। फरक्का बैराज बनने से पहले गैर बरसाती मौसमों में बिहार में गंगा की
औसत गहराई 12-14 मीटर हुआ करती थी जो अब मात्र 6-7 मीटर रह गई है। मतलब गाद भरने
से गंगा उथली हो गई है और अब वो सोन, गंडक, बूढ़ी गंडक समेत दर्जनों नदियों का
पानी ढो पाने में सक्षम नहीं है।
2016 में जब बिहार
की राजधानी पटना में गंगा की पानी घुसा और पटना और भागलपुर में तकरीबन तीन सौ लोग
बाढ़ से मरे तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर
फरक्का बैराज हटाने की मांग की। लेकिन तबाही को विकास समझने-समझाने वाली 1950 वाली
सोच 2016 में भी मौजूद रही और फरक्का के मसले पर केंद्र सरकार ने विचार तक नहीं
किया।
अब उथली होने के साथ गंगा का स्वभाव भी बदला है। ऐसा लगता है कि बरसात के मौसम में गंगा फरक्का में जाकर ठहर जाती है। अंजाम ये होता है
कि ये अपनी सहायक नदियों का पानी नहीं खीच पाती है और इसकी सहायक नदियां उफना
जाती हैं। गंगा की सहायक धाराओं के उफनाने से पूरा उत्तर बिहार डूब जाता है।
हैरानी है कि तबाही की इस वजह पर कोई चर्चा
नहीं हो रही। न तो राज्य की विधानसभा में तबाही की मूल वजह पर कोई चर्चा होती है
और ना ही लोकसभा में बिहार के सांसद मूल वजह पर कोई चर्चा कर पाते हैं। मीडिया से
तो ऐसी उम्मीद ही अब नहीं की जा सकती। उम्मीद बिहार की उसी जनता से की जा सकती है
जो हर साल तबाह और बर्बाद हो रही है। यही जनता एक दिन फरक्का बैराज का अंत लिखेगी।
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